Sunday, January 20, 2008

बहार जाने को है.................

छाया भी मुरझाई सी है,
हर पत्ती कुम्हलाई सी है।

अँधेरा बढ़ गया है,
यौवन एक पीढ़ी और चढ़ गया है।

ज़र्द पत्तियां अब ठिठुरने लगी हैं,
शाखों से बिछुड़ने लगी हैं।

अब कहाँ बागों में बहार होगी,
हाँ! हवा में जरूर, नेज़े की धार होगी,

हर फूल पे खामोशी बा-असर हो गयी है,
शायद चमन को,
पतझड़ आने की खबर हो गई है।

ये खिजां गुलिस्तां में सूनापन लिख जायेगी,
हर शाख़ पे तन्हाई बैठ के,
रोती दिख जायेगी।

अब ये मंज़र फिर सूने हुआ करेंगे,
किसी नयी बहार की दुआ करेंगे............

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