करतब करने वाले कहीं बाहर से नहीं आते थे बल्कि गाँव के ही होते थे..! गाँव के बाहर माता के मंदिर के प्रांगण में एक नीम का पेड़ था जिसके नीचे रखी मूर्तियों के इर्द गिर्द ऐसे त्रिशूल गड़े होते थे जिनका बीच का फाल कई फीट (२ से ले कर १० फीट या उस से भी अधिक) लम्बा होता था....इन त्रिशूलों को सांग कहा जाता था, जब सांग गडी होती थी तो तीनो नुकीले भाग ऊपर रहते थे लेकिन छोटा आधार जमीन के अन्दर होता था! लोहे को गाँव में लुहार न जाने कैसे परिशोधित कर इन्हें बनाते की साल भर खुले में गड़े रहने के बाद भी इनपर जंग का धब्बा तक नहीं लगता था..! त्रिशूलों को मंदिर प्रांगण उसी रोज़ सुबह उखाड़ लिए जाता जिस रोज़ महिलायें जवारे ले कर निकलती थीं! उखाड़ने से पहले इन सांगों की पूजा की जाती, उन्हें तिलक लगाया जाता तेल चढ़ाया जाता! महंत अपने अंगूठे में एक चीरा लगा कर सांगों को रक्त से तिलक करते थे!
Monday, July 27, 2015
एक गाँव की मौत भाग 2
करतब करने वाले कहीं बाहर से नहीं आते थे बल्कि गाँव के ही होते थे..! गाँव के बाहर माता के मंदिर के प्रांगण में एक नीम का पेड़ था जिसके नीचे रखी मूर्तियों के इर्द गिर्द ऐसे त्रिशूल गड़े होते थे जिनका बीच का फाल कई फीट (२ से ले कर १० फीट या उस से भी अधिक) लम्बा होता था....इन त्रिशूलों को सांग कहा जाता था, जब सांग गडी होती थी तो तीनो नुकीले भाग ऊपर रहते थे लेकिन छोटा आधार जमीन के अन्दर होता था! लोहे को गाँव में लुहार न जाने कैसे परिशोधित कर इन्हें बनाते की साल भर खुले में गड़े रहने के बाद भी इनपर जंग का धब्बा तक नहीं लगता था..! त्रिशूलों को मंदिर प्रांगण उसी रोज़ सुबह उखाड़ लिए जाता जिस रोज़ महिलायें जवारे ले कर निकलती थीं! उखाड़ने से पहले इन सांगों की पूजा की जाती, उन्हें तिलक लगाया जाता तेल चढ़ाया जाता! महंत अपने अंगूठे में एक चीरा लगा कर सांगों को रक्त से तिलक करते थे!
एक गाँव की मौत भाग 1
गाँव की प्रौढ़ युवा गृहणियां सब मिल कर किसी रविवार को (जब बाजार में आमों की पहली खेप आ चुकी होती) बुलावा कर "भौरियां डालने" का कार्यक्रम बनाती थीं। छोटे बड़े बच्चे हुलसते हुए माओं के साथ सुबह 10 बजे के करीब हलकी गर्मी में घरों से निकल बाजार में झुण्ड बना लेते। साढ़े दस तक माओं, बच्चों, गायों, कुत्तों और बिल्लियों का ये झुण्ड गाँव से 1 किलोमीटर दूर माता के मंदिर के प्रांगण में पहुचता जहाँ आम महुआ नीम बरगद और पीपल के पेड़ों का एक विरल झुरमुट था। पेड़ ऐसे लगे थे की बीच में छोटा सा गोलाकार मैदान था।
महिलायें बैठ कर उपले सुलगातीं उस पर गेहूं के आटे के मोटे हाथ से बने टिक्कर डालतीं जिन्हें "भौरियां" कहा जाता था। खरी सिकी भौरियों को जब दादी और माँ घी के कटोरे में डुबो कर बगल में बैठे बच्चों के हाथ में पकड़ातीं तो सोंधी खुशबू पा कर बच्चे निहाल हो जाते।
पतले रस वाले दशहरी आम बच्चों को भौरियों के साथ दिए जाते तब तक गायें और दुसरे जानवर आश्चर्यजनक समझदारी से प्रांगण के बाहर बैठे रहते। बच्चों के जी भर भौरियां और आम खा लेने के बाद माएं और दादियां उठ कर प्रांगण के किनारे किनारे बैठे जानवरों को कच्चे आटे की लोई या फिर पकी हुई भौरियां और कभी कभी तो घी में डुबो कर उन जानवरों को खिलाई जाती। बच्चे इस काम में महिलाओं की मदद करते थे।
न जाने कहाँ से महिलाओं के पास इतना पर्याप्त सामन होता की सब का पेट भर जाता था। बच्चों और पशुओं को खिला कर वे स्वयं खाने बैठतीं।
3 बजे तक यह कार्यक्रम चलता। बच्चे ऊँघने लगते तो माताएं उनको अपने आँचल मे ढक कर वहीँ प्रांगण में 1 घंटे सोतीं।
4 बजे के करीब ये झुण्ड वापस गाँव आता। कितना जीवन था उन 4-5 घंटों में मैं बता नहीं सकता और आप समझ नहीं पाएंगे। बस इतना जानता हूं की गाँव को आधुनिकता, राजनीति और नशे की लत लगी है 15-20 साल से।
धीरे धीरे मेरा गाँव जरूर मर गया है लेकिन मुझे भौरियों का स्वाद, सोंधी खुशबू और दादी के हाथ का निर्मल स्नेह अब तक याद है।
फिर नशेमन
मय की बूंदों से
इबारत लिखी है
वो जो छलकने की
आवाज़ें.....
हाँ आवाजें....
उनके नुक्ते रखे हैं
सुरमई शीशों के
आर पार का समां
तोड़ कर बिखेरा है
जाम की लचक
जैसे बेल...
हर्फों में उतारी है
बोतल का नशा
तुम्हारी आँखों के नज़र कर
छिड़का है...
तेरी याद की खुमारी
कम करने को
अपने वज़ूद के पन्नों पे
केसरी आब के छींटें
मारे हैं...
आज फिर
बहुत नशे में हूँ मैं..!
पिछला वाला मैं
तरसे होंगे, तड़पे होगे,
हाँ जानता हूँ मैं....
सिसके होगे तकिये के पहलू
हाँ जानता हूँ मैं...
प्यार था, कभी बेशुमार था,
जानता हूँ मैं.....
सुबह से शाम सिर्फ इंतज़ार था,
हाँ जानता हूँ मैं..
दिल रख लिया तुमने
सौ दफा मेरा,
हाँ जानता हूँ मैं...
मैं, मैं न था
दर्द था.....!
हाँ जानता हूँ मैं.....
और इधर
एहसानों की गठरी है
चाहतों का बोझ है
और मैं हूँ....
क्या जानते हो तुम?
क्या पिछले वाले 'मुझको'
पहचानते हो तुम?
बेबसी
हर शख्स मुझे ताश के पत्तों सा
खेलता रहा
जीतने वाले ने भी फेका
हारने वाला भी फेकता रहा
मुश्किलों से जब भी बनाये
मैंने रेत के घरौंदे
कभी हवाओं ने तोड़े
कभी लहरें ने
मैं साहिल पे खड़ा देखता रहा
कोई ख्वाब था गोया
कोई अश्क छुपा के रोया
कोई खुल के रोया
कोई पा के रोया
कोई खो के रोया
किसी के अरमां बिखरे
टूटे किसी के ख्वाब
जिसने जितना खोया
वो उतना रोया
बता शिद्दत ऐ मुहब्बत
ही क्या थी दरम्यां
के फुरकतों में
न तू रोया न मैं रोया
एक नींद से जागे लगते हैं
और आशियाँ उजड़ा सा
तेरा होना मेरे लिए
कोई ख्वाब था गोया
जमाने के बाद
आँसुओं की कीमत जानोगे
कितनो को रुलाने के बाद
मुझे भी याद करोगे
पर मेरे जाने के बाद
मेरी हमनफसी पे
आज शुबहा है तुम्हे
होगा भरोसा
पर वक़्त
गुज़र जाने के बाद
मेरे अशआरों पे रोओगे
तुम भी
गुनगुनाने के बाद
एक दफा लगाओ पैमाना तो लब से
मंदिरो मसाजिद का पता
भूल जाओगे अंतस
मयखाने के बाद
आरज़ू ऐ एहतियात न रहेगी
पाक दिल हो जाओगे
हमारी मुहब्बत
आज़माने के बाद
जिंदगी का असल मतलब
समझ जाओगे
जाम टकराने के बाद
रूह में लौट आयेगा
पुरकशिश जेहन
दिल के टुकड़ों से
टकराने के बाद
हमने सीख लिया बहोत
बहतों को
सिखाने के बाद......
अश्क ढलके है
दिल ओ चश्म नम
तेरी याद फिर आई
जमाने के बाद....!
राब्ता
मुझमे बसी अपनी ही धड़कनो को
जानता नहीं
इतना बदल गया है आज
की अपने ही अक्स को आईने में
पहचानता नहीं
अब भी कर रखा है मुब्तिला साँसों में
बस एहसास नहीं
भरम होता भी है कभी
तो मानता नहीं
मैंने ऊँगली से इक दफा
जुल्फें सहेज दी थी
नफ़रतन वो आज भी
खुली लटें संवारता नहीं
दिल में उठती तो होगी हूक सी
पर पत्थर रख लेता है
जुबा से कभी पुकारता नहीं
मरता है तिल तिल मुझ को सहेजे
दिल के इबदतखाने में
पर मेरी आखिरी याद को
मारता नहीं
यार ये राब्ता भी क्या राब्ता है
मैं भी भूला नहीं
और तू है की मानता नहीं...!