Friday, April 8, 2016

असम

काज़ीरंगा की धुंधली सुबहों में
चहकते जो परिंदे
हरियाली चादर पे
फिरती नाचती प्रकृति
जन्नत का होता भरम

तिबा मिसिंग कोरबी
और बोडो संग वैष्णव
थिरकते मचलते नाचते
झंकृत हो करताल
और बजे मिरदंग

कहानियाँ सुनाती हैं
दीवारें राज़ छुपाती हैं कम
सीधा था सादा था
आज भी मासूम है
सदा के जैसा असम

बोध

रुई से धवल बादलों को तुम
सहलाते होगे....
महसूस करते होगे नरमी
और गुदगुदा एहसास

होराइजन की नीली छटा को निहार
पुलकित होते होगे

सुनहरी किरणों को समेट कर
अंजुली में अपनी
उछाल उछाल कर
बाल क्रीडा का आनंद
लेते ही होगे...!

वो जो आयनमंडल से लगी
बादलों के ऊपर की
निर्मल हवा है
भर के अपनी साँसों में
मुग्ध होते होगे

चुटकी बजाते ही
सब ज़हर हो जाता होगा
उड़नछू...
ईश्वर जो हो...!

कहो हम क्या करें
जो हमने अपनी
बगिया उजाड़ी है स्वयं

अब एक दम भर
सांस के लिए घुटते हैं
शहर शहर गाँव गाँव..!

रातें

करवटों की, सलवटों की कुछ
वस्ल रातें

नमूंदार कुछ शोख चटक धब्बे
वो क़त्ल रातें

फितरतन न तेरी न मेरी
नामालूम नस्ल रातें

कुछ सेहरा कुछ दरिया
कुछ गुस्ल रातें

जुदा जुदा, मिली मिली सी
कुछ हमशक्ल रातें

गुमशुदा, कुछ रिमझिम, अंगड़ाइयां
आजकल रातें

हंसाती रुलाती, रूठती मनाती
दरअसल रातें

मुस्कुराहटें, शिकवे, अश्क, शैतानियाँ
बातें और रातें।