Monday, February 23, 2015

जब भी मिल जाता है तू....

भला हंसिये न
तो क्या कीजे
मेरी मुश्किलों की फिसलन पे
जानबूझ कर फिसल जाता है तू

मैं भी रंगीन होता हूँ
जब भी मिल जाता है तू

नहीं कहता,
कि तेरे मिलने से
हालात बदल जाते हैं

पर बेशक कोई दिन
कोई शाम बदल जाता है तू

जिंदगी में दम आ जाता है
जरा ही सही
जब भी मेरे साथ
पीने निकल जाता है तू

यूं तो मुझे लौटना ही होता है
मेरी खिजाओं में
पर मैं भी रंगीन होता हूँ
जब मिल जाता है तू

उतने दुखड़े नहीं बिखरते
उतने शिकवे नहीं रिसते
एहसास पे हर दफा
रेशमी पैबंद सिल जाता है तू

मैं और शाम दोनों....रंगीन
जब भी मिल जाता है तू......।

Sunday, February 22, 2015

किताबें, रंगमंच और चक्र

जैसे कण कण में भगवन है वैसे ही सब जगह कहानियां और कवितायेँ बिखरी पड़ी हैं। जब भी मैं लोगों को कोई किताब पढ़ते या फ़ोन पर ई-बुक पढ़ते देखता हूं तो सोचता हूँ की क्या वाकई इतना ध्यान लगा कर पढ़ने की आवश्यकता है?

बस इतना ही तो करना है कि अपनी नज़र उठा कर देखना है, अपनी पसंद के विषय तक अपनी नज़र ले जानी है फिर कहानी ही नही नाटक, एक फ़िल्म, जीवन वृत्तांत, कविता और न जाने किस किस विधा का समन्वय आँखों से होते दिल में उतरने लगता है।

दुनिया अपने आप में संभवतः सबसे अधिक सक्रिय रंगमंच है जिस पर अनगिनत विधाओं का प्रदर्शन सतत चलता रहता है। इसी बीच हम भी किसी न किसी विधा का भाग बन चुके होते हैं। किसी न किसी कविता नाटक या वृत्तांत में हमारी भी भूमिका तय हो चुकी होती है।

अपने वृत्तांत में बेशुमार खोये लोग किताबों में कहानियां पढ़ते हुए स्वयं एक नयी कहानी बनते हैं। बहुत रोचक होता है किसी पाठक के चेहरे पर उतरते चढ़ते भावों को देखना। यह भी एक कहानी पढ़ने जैसा ही है। भावों के उस ज्वर भाटे को देख यह अनुमान लगाना कि किताब की कहानी क्या मोड़ ले रही है, बड़ा मज़ेदार होता है।

कहानियां, किताबों में गुमशुदा लोगों को किसी न किसी घटना से जोड़ रही होती हैं, कभी उनके ख्यालों को गुदगुदाती हैं, कभी अश्रु ग्रंथियों को उत्तेजित कर, पन्नों की स्याही को फैलाने में सक्षम, अश्रु बिंदुओं को पन्नों तक उतार लाती हैं।

नयी पीढ़ी कहानियां ज्यादा नहीं पढ़ती। उनको एंड्रॉयड फोन और गेम ज्यादा पसंद हैं या फिर यूट्यूब। माध्यम भले ही बदल रहे हैं पर लोग अब भी कहानियां हैं।

पात्रों की वेषभूषा बदली है पर उनका कथानक अब भी वही है। जिंदगी की भागदौड़, नौकरी की चिंता बीवी से लड़ाई, माता पिता से मोह भंग। इन कथानकों पर नज़र पड़ते ही अचानक सक्रिय जगत के रंगमंच से मेरा भी मोहभंग होने लगता है। मुझे हर कहानी घिसीपिटी और खुद को दोहराती हुई नज़र आने लगती है। सबसे बड़े रंगमंच के निर्देशक की क्षमता पर संदेह होने लगता है। क्या कथानकों का बस इतना ही विस्तार है उसके पास? क्या कहानियों में विविधता लाने की उसकी क्षमता को चरम प्राप्त हो चुका?

अचानक ही बोध होता है की नयी कहानी का जन्म हो रहा है। एक नए कथानक का जन्म हो रहा है। स्वयं मुझे उस कथानक का मुख्य पात्र बना दिया गया है।

यह घटना झुंझलाने वाली है। उद्वेलित करती है और स्वतंत्रता संग्राम के पुरोधाओं के दमन की गतिविधि के समजात घटना का चित्रण कर देती है। अचानक ही मुझे स्वयं में स्वतंत्रता के लिए जूझते चे गुवेरा का अक्स नज़र आने लगता है। मेरे ह्रदय और मस्तिष्क में मची इस उथल पुथल के चलते मेरे चेहरे पर भावों और अभिव्यक्तियों का मेला लग जाता है। रोष, प्रसन्नता, क्रोध, वितृष्णा सब मेरे गालों और आँखों पर झूला झूलने लगते हैं।

अचानक मैं देखता हूँ कोई मुझे किताब समझ कर पढ़ रहा है। सक्रिय रंगमंच का पात्र बन चुका मैं और मेरा कोई दर्शक है।

चक्र निरंतर चल रहा है।