Thursday, December 27, 2007

स्वप्न या चेतना


मुझे स्वप्न आते हैं,
दिवास्वप्न,
टूटे और बिखरे,
असमंजित,
किसी क्षण श्रंखला की तरह,

तारतम्य होता तो कहानी बनते!
अभी तो स्मरण और कल्पना के भ्रंश,

कभी भूत कि नोक,
कभी भविष्य का टुकडा,
सब गुथे हुए से,
एक दूजे में!

पहचान कठिन,

कभी धन तो कभी रूदन,
कभी क्रोध दृश्य,
तो कभी परिहास,

समय का टूटा दर्पण,
और उसकी किरचें,
सभी क्षणों में परिवर्तित,
मानो क्षणों की माला,

मानस पटल पर उभर कर,
स्वप्न जैसी दिखती है,

कुछ टुकड़े नुकीले हैं,
चुभते हैं,

स्वप्न चुभते हैं?

मैं भयग्रस्त,
निर्लिप्त रहने का प्रयास,
परन्तु अप्रभावी,

अभी भी मैं स्वप्न यात्रा पर,
तब से,
जब चेतना ने छुआ मुझे,
प्रथम बार,

स्वप्न और चेतना,
गूढ़, जटिल संबंध!
चेतना ने उपजा स्वप्न?
या स्वप्न ने उपजी चेतना?

गूढ़ अति गूढ़,
एक प्रश्न.............

अनछुई


भाव जब कविता बने,
कुछ झूठ आ मिले,
रिश्ता जोडा,
मूल बदल गया,
कविता का रुप वो न रहा,

कुछ था जो उभर नही पाया,
या कवि ने उभरने ना दिया,

सब ने दर्द छुपा रखे हैं,
अपनी अपनी कविता में,

तो क्यों न कहूं,
पिटारी भावों की,
सपनो की,

इसी कविता को।

जब भी खुली,
किसी और के हाथ,
उसने अपना ही चेहरा देखा,
किसी और की कविता में,

सब को अपनी सी लगी,
सब का दर्द एक,
असंतोष,
कभी अपनों से कभी गैरों से,

वो मिली मुझे,
बोली मेरा रुप लौटा दो मुझे,
झुठलाओ नही मुझे,
निकलने दो आंसुओं कि तरह,
प्राकृतिक और अनछुई,

मैं बदल जाउंगी,
तो मुझे दर्पण कौन कहेगा?
मेरा दर्प कहाँ रहेगा?

कविता ने दर्पण बन जाना चाहा,
मैंने बन जाने दिया,
सब को अपनी सी लगी,
प्राकृतिक और अनछुई।

Wednesday, December 26, 2007

मार्गदर्शक


कभी ईसा तो कभी मूसा ने जन्म लिया,
कभी राम ने तो कभी कृष्ण ने अवतार लिया,
कभी बुद्ध ने भवसागर पार किया,

सुवासित पुष्प हर आँगन में खिले,
हर देश को हर युग में मार्गदर्शक मिले,

कोई तो था जिसने पीडा सुनी,
कोई तो आगे आया,
कुछ महावीर बने कोई बापू कहलाया,
हरिजनों को आगे बढ़ ह्रदय से लगाया,

कुछ साधारण जन्मे,
कुछ दिव्य लक्षण युक्त थे,
पर, मद मोह से मुक्त थे,

आर्यावर्त कि पोटली में ये रत्न सर्वाधिक हैं,
सत्य, निष्ठा, और प्रेम प्रयत्न सर्वाधिक हैं,

इतिहास स्वर्णिम था,
वर्तमान कि नयी आवश्यकताएं हैं,
नए पद्य हैं, नयी कथाएं हैं,

ये पीढ़ी भी औरों से भिन्न है,
स्वाचरण से खिन्न है,

आवश्यकता है,

फिर कोई पूर्ण मानव बने अवतार ढले,
बापू सा लाठी पकडे आगे चले,

निराशा कि धुंध छांटे, रास्ता दिखाए,
नवयुवकों को करना है क्या?

ये बताये..........................!

विकल्प


हर अनुभव ने अभिनय सिखाया,
हर ठोकर ने रास्ता दिखाया,

जीवन में गूढ़ता भावों के अतिरेक से है,
कुछ पाने कि अपेक्षा हर एक से है,

सिर्फ उसी में विचारों कि लय होती है,
तभी तो मानव कि प्रकृति तय होती है,

मानव ही बाँट लेता है, भोजन और अधिकार,
मानव ही गढ़ता हैं मानव के प्रकार,

जिसकी कल्पना ने अनंत विस्तार पाया है,
जिसकी छोटी सी बाहों में संसार समाया है,

चींटी से परिश्रम सीखा, चट्टानों से दृढ़ता,
विकास की कृति में हर युग में नए अलंकार गढ़ता,

अनजाने ही दिव्य द्रव्य को खोजता,
नन्हें हाँथो से बाँध बनाता, प्रकृति को रोकता,

मुश्किलों का विश्लेषण करता,
परिस्थितियों को सोचता,

बस कुछ करते ही जाना अपने में लीन,
दूरदृष्टि तो हैं, पर दिशा विहीन,

विकास के हर अनुच्छेद के पीछे, एक शोध है,
मानव को अनुसंधान कला का बोध है,

विकास के लिए सम्पूर्ण मानवता अभिमत है,
पर क्या प्रकृति सहमत है?

खुद चले प्रकृति के अनुरूप या उसे चला ले,
ये तो उपवन है, चाहे तो पुष्प या कांटे उगा ले!

गूढ़ता= complaxity, अतिरेक = extreme, अपेक्षा = expectation, लय = rythm, गढ़ता = creating, प्रकार = type, कल्पना = imagination, विस्तार = distribution, dispersal, span, अनंत = unlimited,
चींटी = ant, परिश्रम = hard work, दृढ़ता = rigidity, stability, toughness, कृति = creation, अलंकार = accessories, दिव्य = divine, द्रव्य = matter, विश्लेषण = analysis, लीन = busy, mad about, obsessed, अनुसंधान = research, बोध = realization, feeling, to come to know, अभिमत = agreed, convinced, अनुरूप = according.

शुभचिंतक


बोझ महसूस हुआ, तो सिर उठा कर देखा,
कंधे पे, दो विचार बैठे दिखे,
एक ने सिर झुकाया,
मेरे कान में फुसफुसाया,
उदास क्यों हो?

जबान तो थी, पर जवाब न था,
फिर, हितैषी का रुप धर कर बोला,
मुझे बताओ मैं सुनूंगा!

लगा, सब्र का बाँध टूट जाएगा,
नमी बढ़ी, तो आँखें चमकीली हो गयीं,
कुछ पुरानी यादें, और नुकीली हो गयीं,

निचली परतों में कुछ सुलगने लगा,
संध्या के पात्र में अँधेरा भरने लगा,

लचीली व्यथा कुछ कड़ी हो गयी,
समस्या और बड़ी हो गयी,

आंखो से मोती ढलके,
उसी अँधेरे में खो गए,
गालों पे चलके,

अँधेरे पे क्या कहानी गर्हूँ ,
अपनी ही व्यथा पर,
क्या कविता पढूं,

विचारों का धीरज न रहा,
तो उतर कर चले गए,

जैसे तुम गए थे,
अकेला छोड़ कर,
मुझे इन अंधेरों में,

मेरे ही अधीन हैं,
तो फिर बुला लूंगा,
उन विचारों को,

पर क्या तुम भी लौट कर आओगे,
मेरे हितैषी बन कर,
मुझे रौशनी दिखाने,
मेरी व्यथा मिटाने,

सच मानो विचारों कि नही,
तुम्हारी जरूरत हैं मुझे..........................

मूल्यांकन

मन का दर्पण टूटा,
टुकड़े घटनाएं बन कर बिखर गए,
मुड कर देखा तो
बिम्ब अधूरा था,

कुछ क्षण विलुप्त थे शायद?
किसने चुरा लिए?

मनमीत ने?
जो दर्पण तोड़ गया,

उसे मन की पोटली में,
कुछ ले जाते देखा था,

वही अमूल्य क्षण.......................
जिन पर अधिकार दोनो का, समान

तो मैं ही वंचित क्यों,
क्यों था नतमस्तक?
सिर झुकाए,
विचार इतने भी भारी न थे?

पर हाँ मैंने भी कुछ छुपाया था,
बस दो मोती आंखों में,
और एक स्वर्ण हृदय,
उसे तो आभास भी न था,

दो आँखें,
विरह की पीडा लिए,
छलकने को आतुर,

और वो कह गया,
जाते-जाते, मुझे

निष्ठुर...................

प्रश्न

मेरा अंतस
घबराया, बौखलाया,
इशारे से मुझे पास बुलाया,
आज मुझसे,
पूछ ही बैठा,
"मुझपे" कविता कब लिखोगे?

पीढी


हर बस..........
चल कर फिर वहीं
लौट आती है!

जैसे एक पीढी,
दूसरी को दोहराती है,

अनुभव यात्रियों जैसे हैं,
पीढी दर पीढी,
चढ़ते उतरते हैं!

कुछ यात्री,
पीढियों को,
याद रह जाते हैं,

जिनमे से कुछ
"बापू" कहलाते हैं!

विचित्र प्राणी


सुना था,
बड़ा विचित्र है,

किसी मनुष्य के समान,
या और बेहतर,

फिर एक दिन देख ही लिया,
कथा मिथ्या नही थी,
विचित्र ही था,

हर वस्तु का अलग दृष्टिकोण,
आंखों में भरी उत्सुकता,
जैसे छलक ही जाती,

घ्रान अंग निष्क्रियता को प्राप्त
हल्की आहटों ने चौंकाया उसे
लोगो ने फिकरे कसे

वो पूर्ववत, अप्रभावित,
कुछ खोजता,
सदैव,

रोटी कपडा और मकान के अतिरिक्त भी कुछ,
कुछ तो था जो मिला न था अब तक,

गले में बंधा,
कुछ थैले सा, ना जाने क्या समेटे हुए?

अचानक आंखों में जैसे बिजली चमकी,
बंधा थैला खुल पड़ा,
एक जबान और एक पन्ना हाथों पे गिरे,

जबान हिली तो कागज़ पे,
शब्द गढ़ गए,
सिलसिला देर तक चला,
यथार्थ को आधार मिल गया!

जबान की स्याही ख़त्म हो गयी,
तो कलम बन कर,
फिर थैले में समां गयी,
साथ में यथार्थ को समेटे वो पन्ना भी!

धूसर मटमैले खद्दर के कपडे में लिपटा,
लेखक था वो प्राणी!

मानव के लिए समर्पित,
मानव के लिए सोचता,
मानव से बेहतर!

कुछ नए स्कूल खुले हैं

उनकी बसें भी हैं,
कुछ कंप्यूटर भी सिखाते हैं,
अपना संस्थान अनुशासन से चलाते हैं,
शहर में कुछ नए स्कूल खुले हैं!

सभी सामान्य विषय उपलब्ध हैं,
कुछ ने पर्यावरण पर,
ध्यान केन्द्रित किया है!

लोगों में होड़ लगी है,
शहर में नए स्कूल खुले हैं!

पर यहाँ गुरुजी क्यों नही दिखते?
प्रजाति विलुप्त हो गयी क्या?

नैतिक शिक्षा की जगह,
सेक्स शिक्षा ले ही लेगी क्या?

पर कुछ पुराने भी तो थे?
उनका क्या हुआ?
क्या सिमट गए?
संस्कृति के वस्त्रों के समान!