Saturday, January 24, 2015

मज़हब

मसाजिदों में फेक, "जानवर" की लाश
कर दिया जहाँ को, लपटों के हवाले
दरिंदो से इंसानियत, खुश देखी न गयी.....

तोड़ दिया दम, दौरान-ए-जचगी,
एक गरीब माँ ने,
रईसों के, गरीब हस्पताल के आगे.....

झक कोट वाले,
दुनियावी खुदाओं में फिर मुझसे
सूरत-ए-खुदा देखी न गई।



दौड़ती रही अंधी दुनिया,
भरी दोपहर सड़क किनारे,
और लाश पर दुधमुँहा, तड़पता रहा मासूम
बैठ गई गाय, बच्चे के मुह थन लगा के
उस से जब देखा न गया।

दर-ए-मसाजिद मिली, कि पण्डे के हाथ,
बाहर गिरजे के पाई, कि लंगर में छक ली

रोटी थी, मुझसे उसका मज़हब देखा न गया