Friday, August 23, 2013

जन्नतों के आशियाने........!

छत पे जा के चुपके से,
जो लगाये थे बिस्तर,
जन्नतों के आशियाने,
से लगते थे...!

शाम से तुम उलझन में थीं,
किचन की खिड़की से,
एक बदली सी नज़र आई थी...!

बिस्तर पे खाते झगड़ते,
गिरा था पानी....!
तुम्हारी भौहों के दरम्यान,
सैलाब देख सहम सा गया था...!

प्यार का टुकड़ा वो एक,
मेरी यादों में अब तक है..!

नाज़ुक नाज़ुक और गुनगुनी,
सुबहों के वो बोसे...

मैं नही भूला...!
जानता हूँ तुम्हे भी याद ही होंगे।

कितनी अंगड़ाईया..!
चादर की उन सलवटों में,
जज़्ब पड़ी होती थीं...!

जिनसे अनगिनत ख़्वाबों
की पोटली बनाते थे हम।

जब भी झुक के हौले से,
मेरी जबीं पे तुमने,
होंठो से नज़रें उतारी थी।

मेरी इक अंगड़ाई,
चकनाचूर हुई...!

खेंच के पहलू में,
वो मोहब्बतों का दम भरना,
अब चुटकुले सा लगता है।

छत पे बिस्तर लगाना,
अब कोफ़्त है......!

वक्त पहले
दौर-ए-रुसवाइयों में भी....!

एक दफा लगा था बिस्तर,
फ़क़त इक बूँद छींटे की,
शरारत की थी बेचारी बदली ने...!

तुम्हे अब तक
बारिश से नफरत है....!

सरहद से....!

चूड़ियो के टूटने की,
कुछ शोर की,
रोने कराहने की,
आवाजें आई हैं...!

शायद फौजी के घर
चिट्ठी आई है..!

दो दिनों से मरघट की,
उदासी है गली में...!

उधर भी जरूर गई होगी..!
सरहद से फिर इस बार,
कई घरों में मिटटी आई है....!

इक जोड़ी बुज़ुर्ग आँखों में,
बस सवाल हैं...!

क्या हर सुख का,
हक बस तुम्हारा,
जान देने की कसम
सिर्फ मेरे कुनबे ने उठाई है...?

सरहद से....!
कई घरों में मिटटी आई है।

Sunday, August 18, 2013

हिजाब तले चीखें..!


तुमने लगायी थी आग,
तुमको ही बुझानी होगी
किसी की लगाई....!
अब कोई और नही बुझाता...!

बड़ी बेसब्र है,
पल पल में आती जाती है,
कमबख्त साँस को,
कुछ और नहीं आता....?

तुम जो थे,
न जाने क्या बेचैनी थी,
बड़ा सुकून आता था
अब और नही आता...!

दीवारे टटोल के आज भी,
पहुचा हूँ जानिब-ए क़िबला,
रास्ता अभी भी,
कोई और नही बताता...!

सबके ज़ख्मो पे,
तेरी नेमत का,
मरहम भी क्या मुकम्मल था....!

खुद का हमदर्द,
जब से बन पड़े हैं सब
किसी की चोट तेरे यहाँ अब,
कोई और नही सहलाता...!

इतनी नफरत-ओ-रंजिश,
देख कर भी,
न धड़का दिल इक बार....!

अपने गुनाहों में,
मुब्तिला शख्स को,
खौफ-ए-खुदा,
अब और नही डराता....!

सीना ठोक खुद को,
कहने वालो फ़रिश्ता....!
मैंने देखी है हकीकत,
तुम्हारी ड्योढ़ीयों के पार.....!

चाहो तो कह लो बुज़दिल,
जब से,
पाक वतन में सुनी हैं,
हिजाब तले चीखें.....!

अंतस अब उस ओर,
और नहीं जाता...!

मूर्खता के चिरायु पर्याय...!


लो बुझा दो साँसों का दीपक,
यदि तुम्हे प्रकाश मिले.....!

मैं आखिर करूँगा भी क्या,
नश्वरता का पर्याय बनना ही,
अंततः मेरा भाग्य....!

तो निस्संदेह, निरंकुश हो,
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में,
मुझे आहूत करो....!

यदि हो सके तो मेरे प्राण ले,
अपनी ईर्ष्या के कुटज को,
सिंचित प्रफ्फुल्लित करो...!

अकारण ही मैं भयग्रस्त रहा,
अब तो स्वयं समर्पित हूँ.....।

अनाधिकार पर लोभ,
और समय व्यर्थ करना,
अब और क्यों हो....?

क्यों न तुम्हे भी ज्ञात हो..?

कि मेरा वर्तमान,
तुम्हारा भी भविष्य है.....!

यदि तुम्हारी मूर्खता,
मेरे धैर्य से अधिक,
प्राणवती हुई....!

तो निस्संदेह शूरवीर बन,
आत्मसंतोष का गान करोगे...!

अन्यथा सत्य से परिचय,
हुआ ही समझो...!

ग्लानि बस इतनी ही है,
की तुम मानव हो,
और....!

मूर्खता के चिरायु पर्याय।