Thursday, October 28, 2010

सांस थोड़ी सी नर्म हो जाती............

तुम्हारी स्मृति मे,
मेरे अस्तित्व का....
कोई अंश भी शेष ना रहा होगा शायद..........?

तुम रह गई हो लेकिन.........!
उस कंबल की महक मे,
जो तुम्हे दिया था,
बस कुछ दिन के लिए......!

उस टूटी सी याद में,
जो कहीं घूमती रहती है,
इमारतों के दरम्यान....
वही जहाँ तुम्हारा आफ़िस था....

वही कही.......
अब तक घूमता रहता हू.......
सोचते हुए,
तुम मिल जाओ तो......?

तुम्हारी वो तीखी, गीली सी,
नज़मे मेरे लिए तो ना थी पर,
असर मुझे पे ही करती थी........
तुम अब भी हो,
तुम्हारी दी नज़मों के घावों मे......

तुम अब भी हो,
उन लफ़्ज़ों मे, जो गूंजते हैं,
मेरे कानों मे,
"तुम खुद को पता नही क्या समझते हो...?"
सच....
अब मैं कुछ नही समझता खुद को........!

और हा तुम अब भी हो,
उस एकतरफ़ा जुड़ाव मे,
जो मेरी तरफ से था.....

तुम अब भी हो,
और इतनी ज़्यादा हो.....
की मेरा अस्तित्व ढांप लेती हो......
खैर मैं तो तुम्हे देख लेता हू,
किसी ना किसी तरह..........

काश के कोई बता देता.....
तुमने भी...
मुझे छुप के देखा है कही से.......

साँस थोड़ी सी नरम हो जाती....
झूठी बेरूख़ी को संग लिए
मैं, कहीं चला जाता........
बेपरवाह हो कर.....
आख़िर.........