Thursday, May 15, 2014

मुतफ़र्रिक

कमबख्त हर रात पिछली रात के जैसी,
हालत-ए-चश्म बरसात के जैसी....।

अपनों ने ही निभाई दुश्मनी
गैरों को क्या फ़िक्र
भला हम खुशगवार रहे
कि रहे ग़मज़दा...!


टकरा के गर
लौट आती फलक से
तो भी सुकून होता...

अफ़सोस तो ये है कि
गले में घुट कर रह गयीं
दुआए मेरी....।

न जाने क्यों,
इतना बेतकल्लुफ़ वो,
हँसता है मेरे दर्द पे
ऐसा भी क्या
उसकी ख़ुशी का
सबब आहें मेरी

Wednesday, May 14, 2014

स्थिर सरकार और ताले....!

ये आर्यावत है,
पुरु ही,
सुलझाएंगे गुत्थियाँ....

ये भ्रम भी टूट गया,
की दोबारा कहर ढाने,
सिकंदर नही आएगा...!

संविधानो में,
बढ़ता रहेगा चकल्लस,
यदि न बने नागरिक, नदियाँ....

सदियों से प्यासी,
गंगोत्री के लिए,
कोई स्वार्थी,
समंदर नही आएगा...!

लोकतंत्र के,
दरवाजो पे लग गया,
स्थिर सरकार की,
मांग का ताला.......!

अब आम आदमी,
संसद के,
अन्दर नही आएगा....!

Sunday, May 4, 2014

स्नेहसिक्त...!

कदाचित सम्मान का प्रयोजन है,
याचना नहीं,

विपत्तियां हैं स्वीकार्य,
प्रताड़ना नहीं.....।

पेटी में बंदी,
हीरे और मोती के,
निरर्थक अस्तित्तव का,
बोध है....।

आह, दुर्भाग्य,
प्रेम और स्नेह को,
दुर्बलता माना गया...।

शक्ति पर्याय,
बल स्तम्भ को,
किंचित अवसर न मिला....!

ऊर्जा के विछोभ,
तांडव को उसने,
मोड़ दिया,
स्नेहासिक्त.....।

ह्रदय की अंतरिम,
विमाओं में,
वह शक्ति का पर्याय हो कर भी,
बहे गंगा और सरस्वती बन कर....।

सिंचित है जिसकी श्वास से,
भू, जल और वायु...!

जिसके लिए,
विलास त्यक्त,
आनंद परित्यक्त,
ममता के समक्ष....!

अस्तित्व का मूल,
शक्ति के पर्याय को,
बोध है......।
स्व:प्रकृति का.....!

कदाचित संतुलन का,
कारण तुम ही हो,
धन्य हो.....!