Saturday, November 30, 2019

कोई..!

वो जो लाख सितारों को भी,
"एक" गिनता है, उसकी,
तन्हाई का अंदाज़ा लगाए कोई..!

इक कतरे से जो समंदर हो गया,
उसकी,
गहराई का अंदाज़ा लगाए कोई..!

ख़ाक कर दिया खुद जहां अपना,
बेहिसी, बेखयाली, बदहाली का,
उसकी अंदाज़ा लगाए कोई....!

बेवफाई तक से मोहब्बत हुई जिसे,
उसकी,
आशनाई का अंदाज़ा लगाए कोई..!

जन्नत ओ खुदा से भी नफरत हो गई जिसे,
उसकी,
रुसवाई का अंदाज़ा लगाए कोई..!

ज़माना तो सारा खिलाफ निकला,
कोई एक अपना,
कभी तो कहलाए कोई..!

भटका है हां वो बहुत,
बस फिकरे ही कसने?
या राह भी बताए कोई..?

हां बदकिस्मती हमनवा हुई मुद्दतों,
काश, खुशकिस्मती भी,
उसका दरवाजा खटखटाए कोई...!!

ग़मजदा उम्र बीती सारी,
खुशनुमा ग़ज़ल इक,
उसकी खातिर गुनगुनाए कोई..!!

"अंतस" को भी मिल जाए मर्तबा,
काश कोई राह से भटक जाए,
मुझे भी सुबह का भूला मिल जाए कोई..!

Monday, November 4, 2019

अब जब भी शुबहा हो..!

मेरी अजीब हरकतों,
उलटे पुलटे जवाबों से,
आजिज़ आई मेरी जान...।

एक खट्टी सी बात,
और कसैली सी,
रात के बाद.....।

सुबह
जब उनींदी पलकों को,
क़यामत बना कर.....।

अधूरे ख्वाब,
अपनी अंगड़ाई में झटक कर
तकिये पे बिखेर दे।

तो ऐ सुबह उसके गाल पर,
एक नरम सा बोसा देना...।

सुना है मौसम सर्द है
तो ऐ ओस की बूंदों,

जाओ...

उसके रुखसार पे,
गुलाबों की ताज़गी मल के...
मेरी निगाह से जी भर देखना...।

जब वो शर्मा कर,
हथेलियों में ढक ले अपना चेहरा...
तो, ऐ हवा सुन...!

मत छेड़ना उसे।
उसकी नाक लाल हो जाती है।

बेशक उसका गुस्सा काफूर हो जाये।
पर फिर भी,

मेरी धड़कनो,
जाओ उसको कहना

तुम तो खफा हो कर सोती रही
मैं रात भर जागता रहा....!

पर सुबह
वैसा ही मिलूंगा
जैसा मैं उसे मिला था।
सबसे पहली बार...!!



मैं कल से आज तक

लबादा ओढ़ के चलता हूँ
मुस्कुराहटों का
कहीं किसी को हालत मेरी
'उसकी' कारगुज़ारी न लगे,

बंटा देता हूँ हाथ
के किसी को भी 
उसका दर्द भारी न लगे,

लाओ दे दो अपनी मुश्किल
और मैं अपना लूं इस तरह
कि अब तुम्हारी न लगे,

कोई हारा है इस कदर
की मौत का गुलाम है, फिर भी..!
कटी है जिसकी सारी जुए में
वो ज़िन्दगी का जुआरी न लगे..!

दुआ में अब यही
की दिल मिले सबको
बस किसी को दिल की
बीमारी न लगे..!

देखा न गया

मसाजिदों में फेक
"जानवर" की लाश
कर दिया जहाँ को
लपटों के हवाले
दरिंदो से इंसानियत
खुश देखी न गयी.....!!

तोड़ दिया दम
दौरान-ए-जचगी
एक गरीब मा ने..!
रईसों के बनाए,
इक गरीब हस्पताल के आगे..!!

झक कोट वाले दुनियावी
खुदाओं में फिर
सूरत-ए-खुदा देखी न गई।

दौड़ती रही अंधी दुनिया
भरी दोपहर सड़क किनारे
और लाश पर दुधमुँहा
तड़पता रहा मासूम..!!

बैठ गई गाय
बच्चे के मुह थन लगा के
उस से जब देखा न गया।

दर-ए-मसाजिद मिली
कि पण्डे के हाथ,
बाहर गिरजे के पाई
कि लंगर में छक ली

रोटी थी
मुझसे उसका मज़हब देखा न गया...!

मौसम सा सनम

जानता हूँ, आँसुओं की ख़ास,
क़ीमत नहीं कोई,
तो मुस्कुराता रहा.....!!!

कराहना मेरा,
क्या भाता किसी को?
दर्द रहा तो भी,
गुनगुनाता रहा..!!!!

वो घर जला गए मेरा,
अपने उजाले की ख़ातिर,

पर हमारी उम्मीद का,
एक दिया,
ना जाने कैसे,
टिमटिमाता रहा...!!!

मातमपुर्सी की आवाज़ें,
यूँ तो हमें अपने गुज़रने की,
ख़बर दे गयीं,

उस कफ़न को,
कुछ और ही मुहब्बत थी,
के पूरा मरने ना दिया,

पैरों से लग के,
ना जाने क्यों,
फड़फड़ाता रहा...!!!

ना ख़ुद को क़रार आया उसे,
ना हमे ही मुकम्मल होने दिया,
सनम जो मौसम सा हुआ,
आता रहा जाता रहा...!!

फिरकी

कम्बख्त इश्क ने,
बेवक़्त कत्ल कर दिया हमे,
वरना लकीर-ऐ-उम्र,
बड़ी लंबी थी हमारी....!!

उसकी मोहब्बत में,
पलट न सके बाज़ी ये,
ज़िन्दगी बेहतर भी,
हो सकती थी हमारी....!

हश्र दर्द-ओ-ग़म से,
सराबोर था ये सारा..!!
उतरी जब इश्क की खुमारी..!

क्या कमाल का वक़्त रहा?
बीमारी को इलाज समझते रहे,
ज़िंदगी को समझा बीमारी..!!

गुमां था के हमने वक़्त को,
तिगनी नचाई,
क्या पता था, वक़्त ने,
ली फिरकी हमारी...!

क्यों है?


हर किसी को मुझसे,
इतनी उम्मीद क्यों है,

मैं ही मानूं, मैं ही समझूं,
सिर्फ इतना ही नसीब क्यों है?

गर खुशी भी है वज़ूद में,
तो सिर्फ दर्द करीब क्यों है..?

ये टूट टूट कर आते हैं पल,
क्यों चिंदी चिंदी राहतों के,
उलट इसके, मुश्किलों में,
ये मुसलसल तरतीब क्यों है?

कुर्बान कर के खुद को भी,
मर्तबा हासिल न हुआ,
अंतस इतना बदनसीब क्यों है?

न वक़्त समझ आये न सनम,
ये लम्हा इतना अजीब क्यों है?

दावा


उनका दावा है,
बदल गए हैं हम..!!

खबर नही उनको,
भीतर से मर गए हैं हम..!!

कितना वक़्त दिया,
उनको बस इतनी फिक्र..!!
कहाँ इसकी के,
किन हालात से गुज़र गए हैं हम..?

ये दो वजहों ने सब बर्बाद किया,
एक नासमझी, एक वहम..!!

उनकी नज़र बस,
उनके खयाल कीमती..।
खामखां हमारा वजूद,
और खामखां हम..!!

लिए सूखी आंखों में अश्क़ नम,
वाहियात निकला ये जनम..!

गुल ओ किमाम वजूद

इस उम्मीद से कि,
पानी छन्न से टूट जाएगा..!
वो सैकड़ों पत्थर,
तालाब में फेकता रहा..!!

गर्माहट-ऐ-इश्क़ में कहाँ,
दिलचस्पी थी उसकी..??
वो तो बस मतलब की
रोटियां सेकता रहा..!!

शिद्दतों की गहराई,
बिल्कुल न थी उसमे...!!
आंखों में सागर लिए,
मुड़ चला मैं जब,
वो बस बैठा देखता रहा..!

कहां तो उसने,
अपने अरमानो की,
हर आग ठंडी कर ली..!!
यहां सदियों हमारा ये जिस्म,
बस दहकता रहा..!!

मिटा देने को वजूद बेदर्दी से,
मसल दिया पैरों तले..!
ये कमबख्त,
गुल-ओ-किमाम निकला
बरसों महकता रहा....!!!

वो वर्दियों वाले लोग..!

जाने किस मिट्टी के बने थे,
अंधेरी वतन की रात को,
नई सहर कर गए..!!

वतन वाले सुकूं से पहुंचे घर,
जब शहीद शमशान भी,
रोशन कर गए..!!

आईं जब गोलियों की आवाज़ें,
सफेद कुर्तों वाले, छुप गए,
सबसे पहले डर गए..!!

सिक्केबाज़ों की साजिशों के,
शिकार हैं, जान कर भी,
वो हर हद से गुज़र गए...!!

यहां बदल गए थे घर, और लोग,
जब वो वर्दियों के लोग,
लौट अपने शहर गए..!!

बड़े एहसान फरामोश निकले,
ये ऊंचे लोग, जब आन पड़ी,
चालाकी से मुकर गए..!!

ये फौज़ प्यादों से ज्यादा नहीं,
इन फरामोशों की नजर,

देखी जब हकीकत तो
मेरे खयाल तक ठहर गए..!!

हमारी गफलतों ठीकरे,
खुद ले लिए, आज़ादी,
हर सुबह तुम्हारी नज़र कर गए....!!

जिस्म इक को बचाने की,
जद्दोजहद थी बड़ी,
बच भी गया, बदले में,
लेकिन लाखों सर गए.....!!

शायद दूसरा भी किनारा हो?

सूखे ये वक़्त की नदी
तो दिखे, उस पार,
शायद दूसरा भी किनारा हो..!

इस ढहते वजूद का भी,
कोई तो सहारा हो..!!

हो ना हो वाकई,
चलो कहने को ही हो,
कोई तो हमारा हो..?

ढो लिया मोहब्बत को बहुत,
अब उतार दें ये बोझ दिल से,
हुक्काम ए इश्क का
फकत एक इशारा हो...!!

हम तो रोज़ ही रुसवा हैं,
सुकूं अफ्तारी भी हो थोड़ी..!
हां, शर्मिंदगी का तुम्हारी भी,
कभी महफ़िल में कोई नजारा हो..?

तुम भरे जाओ जाम पे जाम,
और गम ए सागर हम पीते रहे,
फिर हलक भी सूखा ही रहा..!
भला यूं कैसे गुजारा हो..?

माना ये सब दरम्यान है,
पर भला हम कहां हैं इसमें?
के इब्तेदा भी तुम्हारी,
अंजाम भी तुम्हारा हो..?

नागवार लगी हमें उम्र सारी,
हमने कुछ यूं गुज़ारी....!
गोया कोई एहसान उतारा हो...!!

पड़ा मिले राह में कोई,
तो पहुंचा देना घर तक,
शायद उसको भी,
किसी ने तड़पा के मारा हो..!

क्या है?

बड़ी दिलचस्पी है तुम्हे,
हमारे हाल-ओ-हालात में..!!
वजह क्या है..?

सब तो खोल दिए हैं,
बंधन के खयाल में क्यों हो,
बची अब गिरह क्या है..?

तुमने तो मिलन के,
जलसों में यकीं रखा है,
फिर एक ये विरह क्या है..??

खो दिया है गर,
अम्न- ओ- सूकूं,
माने हार गए,
फिर भी दामन में लिपटी
वो फतेह सी क्या है..?

कहां तो कोई कशिश बाकी न थी,
फिर ये शिद्दत ये जुनून,
बेतरह क्या है..???

जुदा जब हो ही चुके,
तो ये कुछ ज़रा सा,
जुड़ा क्या है......??