Monday, November 4, 2019

शायद दूसरा भी किनारा हो?

सूखे ये वक़्त की नदी
तो दिखे, उस पार,
शायद दूसरा भी किनारा हो..!

इस ढहते वजूद का भी,
कोई तो सहारा हो..!!

हो ना हो वाकई,
चलो कहने को ही हो,
कोई तो हमारा हो..?

ढो लिया मोहब्बत को बहुत,
अब उतार दें ये बोझ दिल से,
हुक्काम ए इश्क का
फकत एक इशारा हो...!!

हम तो रोज़ ही रुसवा हैं,
सुकूं अफ्तारी भी हो थोड़ी..!
हां, शर्मिंदगी का तुम्हारी भी,
कभी महफ़िल में कोई नजारा हो..?

तुम भरे जाओ जाम पे जाम,
और गम ए सागर हम पीते रहे,
फिर हलक भी सूखा ही रहा..!
भला यूं कैसे गुजारा हो..?

माना ये सब दरम्यान है,
पर भला हम कहां हैं इसमें?
के इब्तेदा भी तुम्हारी,
अंजाम भी तुम्हारा हो..?

नागवार लगी हमें उम्र सारी,
हमने कुछ यूं गुज़ारी....!
गोया कोई एहसान उतारा हो...!!

पड़ा मिले राह में कोई,
तो पहुंचा देना घर तक,
शायद उसको भी,
किसी ने तड़पा के मारा हो..!

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