Monday, June 24, 2013

मैं निकला था घर से...!

ये हादसा क्या हो गया...?

माँ से बात करने का,
लहज़ा भी लचकने लगा,
मैं तालिब-ऐ-इल्म,
निकला था घर से......!

हसरत-ओ-ख्वाहिश,
कब की गुज़र चुकी...!

फ़क़त पैरहन बाकी,
जुम्बिश-ओ-गोश्त पर,
मैं जिंदा जिस्म,
निकला था घर से...!

एहसास था, रूह थी,
मोहब्बत-ओ-जज़्बात,
मैं सही किस्म,
निकला था घर से....!

जिसने छुपाये रखा,
हर नज़र से महफूज़,
टूटा माँ का तिलिस्म,
निकला था घर से....!

रिश्तों की झीनी,
चादरों पे....!

जमी है वक्ती धूल...!
अरसा हुआ अब तो,
कुछ याद अपनों की
हो चली है मद्धिम...!

मैं निकला था घर से...!

क्यों.....?

सोचता हूँ,

फिर और सोचता हूँ,
अजीब अजीब सी बातें....?

हाँ सब सामान्य लोग,
यही कहते हैं.....!

तो फिर और सोचता हूँ,
सिलसिलेवार.....!
सोचना ही पड़ता है।

अपने अस्तित्व और,
मेरे लिए....
तुम्हारी दीवानगी के बारे में!

धर्म की भंगुरता,
और लोगों के....
इस पर दृढ विश्वास पर।

पानी में रंग क्यों नहीं,
होता तो क्या पीते हम इसे,
इतनी ही सहजता से.....?

सोचता हूँ...

क्या दिल भी सोचता है?
या सिर्फ दिमाग..?

मय की मदहोशी थी खुशगवार,
या तुम्हारा प्यार...?

लोग मर जाते हैं....क्यों?

न मरते तो....?

अच्छा ही है..!
वरना हर रोज़ मरना पड़ता!

लो एक और शाम,
बेहूदगी से क़त्ल हो गयी!

सामने ही आईने में,
ख्यालों से गुत्थमगुत्था,
मेरी शक्ल हो गई....?

लो अब फिर से,
मैं सोचता हूँ.....!

Tuesday, June 18, 2013

ब्रांड....!

होठों के दरम्यां बेतहाशा,
भींच के तुझे...

जब भी शिद्दत से.
जज़्ब किया है.....

तो लगा है कि,
पूरी हो रही है,
हर चाहत,
हर अधूरी ख्वाहिश.....!

और हर दफा,
तेरे रुखसार पे,
आगे बढ़ चुकी सुर्खी,
मदहोश करती गई....!

जुनून-ओ-दुश्मनी,
भी निभा ली....
हर रंजिश चुका दी....!

आज फिर..!
एक सिगरेट,
जूतों तले बुझा दी....!

मगर मेरी जान,
इश्क के मानिंद...!

मैंने तुझसे भी,
वफ़ा निभाई है....!

न प्यार बदल पाया..!
न अपना ब्रांड...!

Monday, June 17, 2013

शर्मिंदा.......!

पहली बार जाना था,
बात कूट शब्दों में भी,
हो सकती है......!
जब सिखाया वो पहली तुम थीं.....!

गलीज़ सी जिंदगी के,
कुछ बरस, हथेली पे धरे,
पुर्जा पुर्जा झलक की खातिर,
हफ़्तों राहों पे रहा मैं,
और....!
वो दूसरी तुम थीं....!

मज़हबाना दायरे,
मुझे पेश कर,
जो महीनो सुरमा बहाया,
वो ख्वाबनशी तुम थीं..!

चाहतों में सौंप देना सब,
सिखाया तुमने,
पर तुम्हारा शीशा-ए-दिल.......
तोडना न जाने कब आया.......?

अपने टुकड़ों पे बिलखती,
तुम याद हो मुझे.....!

मेरी भूख को तुम से,
बेहतर भला कौन समझा होगा,
वो सैंडविच.........
अब तक याद हैं मुझे.........


बातें हैं, गलीज़ जिन्दगी है,
दायरे हैं, टुकड़े हैं.........
भूख अब भी है,
बस तुम नहीं हो............


बिना दीवारों का एक कमरा,
मैं घेरे बैठा हूँ................!
शर्मिंदा.....!

तुम्हारे लिए.....हमारे लिए....!

ये वाद.....!

मुझे न जचे,

न जचेंगे......!

क्यों......?
क्योकि मेरे लिए नहीं थे।

लूथर बस लूथर था।
पूरा अमेरिका तो नहीं....?

गोर्की भी गोर्की ही था।
पूरा सोवियत तो नहीं...?

और माओ..?

छोडो जाने दो.....!

मैं......?
मैं तो हिन्दोस्तान हूँ!

बासी विचार मेरे लिए?
मत थोपो न....?

इण्डिया जगत गुरु रहा है।
सुन कर, कह कर।
तालियाँ पीटने के सिवा भी,
बहुत कुछ बाकी है।

अपना वाद रचो।

चाहो तो संतुलन वाद कहो,
या सर्व वाद......?

तुम्हारा अंकुरण,
मुझे...जीवन देगा।

तो.......?

नया दो! मेरे मुताबिक। मेरे लिए!

तुम्हारे लिए....!
हमारे लिए.....!

जियो मियाँ..............!

तिनका तिनका मिलती है,
संजो संजो के रखता हूँ,
मुश्किलों के सहरा में जिंदगी,
शबनम की बूंद लगती है..........

कतरा कतरा मिले हो,
जब भी मिले हो,
कभी ऐंठे से, बड़े रूठे से,
जून की खुश्की,
तुम्हारे अल्फाजों से टपकती है......

तुम्हारे तंज़.....
दोयम सी मेरी अहमियत में,
चार चाँद लगा देते हैं....

मैं फिर सोचता हूँ,
ख़ुदकुशी आसां होती है की मुश्किल.....

कुछ कमीने दोस्त,
बरक्स मुझे साँसों के तारों में,
कुछ महीनो के लिए बाँध,
रफूचक्कर हो जाते हैं...

मैं फिर सोचता हूँ..........
ख़ुदकुशी की बातें............

खुद को ज़ाहिराना मज़बूत,
दिखाने की झूठी कोशिशे,
मेरी शामों को तोड़,
चूल्हे में झोंक देती हैं.............

मैं फिर ख़ुदकुशी के,
ख़याल पकाने लगता हूँ.........

अचानक कोई जाग कर,
भीतर ही चीखता है............
जियो मियां....
जिन्दगी बड़ी कीमती है........!

तो फिलहाल....
मेरे माथे भी,

मजबूरी का धब्बा लगा है........