Wednesday, June 29, 2016

आधी लकीर

होता है दिल में दर्द
बताना ही चाहें सब,
जरूरी तो नहीं....?

प्यार, प्यार ही होता है
पर निभाना जरूरी तो नहीं...?

दिलों में खलिश
यूं भी हो सकती है
दूरी ही हो जरूरी तो नहीं...!

ख्वाहिश, ख्वाहिश है
आधी है तो भी सही
पूरी हो जरूरी तो नहीं...!

तुमको उम्मीदें,
तो तुम्हारी ही होगी,
शिकन, किसी और के,
माथे पे हो जरूरी तो नहीं...!

मिला भी और नहीं भी
लकीर आधी भी थी
मेरी हथेली में पूरी तो नहीं....!

तू ही वजह हो जीने की
जरूरी तो नहीं...?

मुहब्बत....मुहब्बत है,
मजबूरी तो नहीं....!

NGO's और उन पर उठे प्रश्न

कई संस्थाओं में काम कर चुका हूँ और अब उनकी प्रवृत्ति भी समझ में आने लगी हैं। कार्यप्रणाली का आन्तरिक विश्लेषण अब उतना जटिल और असहज नहीं लगता। कई वर्ष इन संस्थाओं में कार्य करने के पश्चात गैरसरकारी संस्थाओं के बारे में मेरे जो विचार बने हैं, वो संभवतः संचालकों को स्वीकार्य नहीं होंगे.....
इनमे से कुछ मैं सब के साथ बांटना चाहता हूँ.......

१- अस्थिरता : अस्थिरता एक ऐसा कारक है जो संभवतः भारतवर्ष के हर गैरसरकारी संस्था का अंग बन चुका है खास तौर से वो जिन्हें हम NGO कहते हैं। मेरे दृष्टिकोण से इस समस्या का सबसे बड़ा कारण उस समझ का अभाव है जो NGO के कार्यकारी सदस्यों और प्रशासनिक सदस्यों के मध्य होनी चाहिए। जिन पाश्चात्य देशों में इस संस्कृति का जन्म हुआ उन्होंने न सिर्फ जन्म दिया बल्कि इसका समुचित विकास भी किया...यही कारण है की अमेरिका जैसे देश में कुल NGO की संख्या भारतवर्ष से कही कम है। इतनी अधिक संख्या होने के बावजूद लोग आज भी NGO में कार्य करने से कतराते हैं। मैंने जब इसका कारण जानने की कोशिश की तो परिणाम अपेक्षित ही थे। लोगो के अनुसार न तो इनका स्तर होता है न ही समय पर समुचित वेतन दिया जाता है। मेरे दृष्टिकोण से ये अस्थिरता सिर्फ इस लिए है क्योंकि NGO भारतीय संस्कृति नहीं है, भारत को इस संस्कृति की समझ भी नहीं है, और अगर है भी तो १०-२०% से अधिक गैरसरकारी संस्थाएं अपने प्रपोगंडा के अनुसार कार्य भी नहीं करती।

२- अनियंत्रित पंजीकरण एव कार्यप्रणाली : भारत में प्रतिदिन 800 से अधिक NGO पंजीकृत होते हैं, और ये प्रक्रिया कई दशकों से चल रही है...पंजीकरण की प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण नहीं है। केवल एक संस्था के सदस्य ही जितनी चाहे उतनी संस्थाए पंजीकृत करा सकते हैं। मैंने जिन संस्थाओं में कार्य किया दुर्भाग्य से वो सभी समाजसेवा के हित में समाजसेवा करने के नाम पर बनाई गयी थी। इन सभी संस्थाओ के प्रशासन का ध्यान केवल धनोपार्जन पर ही रहा। न सिर्फ इतना ही बल्कि प्रत्येक संस्थाजनित कार्य में उस सुविधा अथवा मौके की तलाश की गई जिसमे अधिकाधिक धन बचाया जा सकता था, वह धन जो बच्चो, वृधो, सामाजिक अथवा राष्ट्रीय विकास के लिए था। धन को NGO में किस प्रकार खर्च किया गया है इसके लिए कोई जांच अगर होती भी है तो वो भारतीय बाबुशाही की भेंट चढ़ जाती है। भारतवर्ष में NGO के पंजीकरण की प्रक्रिया भी एक हास्यास्पद घटना है। किसी भी प्रकार बना हुआ एक दस्तावेज जो पंजीकरण के लिए आवश्यक है, एक समुचित नाम, कुछ जाली दस्तावेज जो सदस्यों के नाम, स्थायी पते के लिए आवशयक हैं के अतिरिक्त ५-६ हज़ार रुपये। इस सभी सामग्री के साथ NGO संस्कृति को भारत में होम कर दिया जाता है। पंजीकृत होने वाले NGO'S के अधिकाँश सदस्यों के नाम या तो जाली, मित्रों के या रिश्तेदारों के होते हैं। पंजीकरण की प्रक्रिया के दौरान ही हर उस बाधा का तोड़ उस दस्तावेज में ड़ाल दिया जाता है जो बाद में आ सकती हैं। भारत की न्यायिक व्यवस्था और कर व्यवस्था की पेचीदगी भी उन संस्थाओं की मदद ही करती हैं जो सिर्फ धनोपार्जन के लिए बने जाती हैं। कर मुक्ति एक सबसे बड़ा उपाय हैं NGO के माध्यम से धनोपार्जन करने का। न ही पंजीकरण के दौरान और न ही सक्रीय कार्यकाल में इस पर भारतीय प्रशासन ध्यान देता हैं। पंजीकरण कार्यालय से संपर्क करने पर पता चला की सरकारी अमला इस लिए इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप इस लिए नहीं करता क्यों की पंजीकरण से लाखों रुपये की प्रतिमाह आमदनी होती हैं। परन्तु पंजीकरण के बाद इन संस्थाओं को दिए गए और निजी स्वार्थ में खर्च होने वाले करोड़ों सरकारी रुपयों के बारे में कार्यालय अधिकारी के पास कोई कोई जवाब नहीं मिला। मुझे अधिकारी की समझ के बारे में आश्चय हुआ जिसने लाखों के राजस्व को तो ध्यान में रखा पर करोड़ों के अपव्यय पर उसका ध्यान नहीं गया। 

३- अनुचित लोग, अनुचित कार्य: मेरे एक निकट मित्र ने कई NGO पंजीकृत करा रखे हैं, जिनके माध्यम से उन्हें प्रतिवर्ष लाखों रूपये की आमदनी होती हैं वो भी सरकार से। उनके द्वारा किये गए किसी भी कार्य का मुझे ज्ञान नहीं हैं। एक बार बात बात में मैंने जब यह पूछ लिया की बिना काम के आप को पैसा कैसे दे दिया जाता हैं तो उनका जवाब था.....साहब काम तो हम भी करते हैं, सारा दिन फ़ाइल ही तो तैयार करते हैं.....यह एक मजाक तो था ही पर कटु सत्य भी था। मैंने पुछा की आप के NGO में कार्य करने वाले लोगो को तो आप को वेतन देना ही पड़ता हैं...तो उनका उत्तर था......एक लड़का और एक लड़की ऑफिस में गुटरगूं करने के लिए काफी हैं दोनों को ४-४ हज़ार रुपये आशिकी करने के देता हूँ, बाकी फाइल में रहते हैं। मैंने जब उनसे कर्मचारियों के योग्यता के बारे में पुछा तो जवाब था की साहब NGO में काम करने के लिए ग्रेजुएट होना काफी हैं।

इतने सत्य बोलना भी बुराई करना ही हैं, ख़ास तौर से जब मैंने खुद ऐसी संस्थाओं में काम किया हैं। मुझे लगता हैं इतना काफी हैं........!

भारत और पाक

अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के मुद्दे पर आज मैँ एक परिचर्चा सुन रहा था जिसमे अफगानिस्तान पाकिस्तान ओर भारत के प्रतिनिधि शामिल हुए।
परिचर्चा के दौरान ही यह साबित हो गया की क्षेत्रीयआतंकवाद की जड़ पाकिस्तान के एसे कट्टरवादी लोगोँ हे जो ना खुद चैन से रहते हे न दूसरोँ को रहने देते हैँ अफगानिस्तान के प्रतिनिधियो ने भारत की इस बात का समर्थन किया।
मैं इस तरह के वाद विवाद सुनने का अभ्यस्त हूँ लेकिन आज ये देख कर दंग रह गया कि पाकिस्तान के प्रतिनिधियो ने आर एस एस, बजरंग दल, मुक्ति वाहिनी और विश्व हिंदू परिषद का नाम लेकर हिंदुओं को भी उसी कट्टरवादी श्रेणी मेँ रख दिया इसके ठीक बाद भारत और अफगानिस्तान के प्रतिनिधि विचलित दिखाई देने लगे।
यह अफसोसजनक है की कुछ कट्टरवादी हिंदू संगठनोँ के कारण सभी हिंदुओं की कई हजार साल पुरानी अहिंसक प्रकृति पर प्रश्नचिंह लग रहे हैं।
कुछ ओर हो ना हो पर आर एस एस और बजरंग दल की कट्टरवादिता के कारण हिंदुओं को भी मुसलमानोँ की तरह कट्टरवादी और हिंसक समझा जाने लगेगा।

मेरे पिता ने कहा

भला शंकर, ब्रम्हा, अल्लाह, मोहम्मद, कृष्ण, और जीसस से मुझे क्या मतलब......बने रहें वो जो भी हैं........? मेरे पिता ने कहा....तू हिन्दू पैदा हुआ है पर........ इंसान बनना.........बस मुझे इस से मतलब है..!

आदर्श

अपने आप में एक चिरंतन प्रगतिवादी घटना है जिसकी परिभाषा घटना के प्रादुर्भाव के पहले ही क्षण स्वयं को झुठला देती है।
आदर्श का अस्तित्त्व प्रकृति के सन्दर्भ में प्रतिपल बदलता है लेकिन मानव स्मृति में यह घटना भाव बन कर लंबे समय तक रह जाती है यही कारण है की मानव सभ्यता में "आदर्श" जीवित रहते हैं।

रंगीला महात्मा गांधी।


इसी शीर्षक पर और ऐसे ही कई और आर्टिकल मैंने अभी हाल ही में फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया साधनो पर देखे जिनको जोर शोर से शेयर किया जा रहा है।
गांधी कैसे थे कैसे नहीं वो अलग मुद्दा है पर जिन्होंने लिखे वो कुत्सित और विकृत मानसिकता के लोग हैं। ऐसे लोगों को तलाश रहती है मुद्दों की जिनको उछाल कर लोगों का ध्यान आकर्षित कर सकें और अपनी मानसिक विकृति की क्षुधा को तुष्ट कर सकें।
नहीं तो भला 70 साल पहले मरे हुए की कमी निकालने की क्या जरुरत। भाई उसमे से वो ढूंढो जो अच्छा है और आगे काम आये। तुम एक विकृति की बार बार बात कर के उसका विज्ञापन ही कर रहे हो।
और पढ़ने वाले......उनको तो रस मिलता ही है। कल्पनाओं में ही सही वो पोर्नोग्राफी का मज़ा लेते हैं।
मैं शर्त लगा कर कहता हूँ जो लिख रहे हैं उनका कोई न कोई आर्थिक राजनैतिक या सामजिक फायदा अवश्य है (और दिमाग में गंदगी है) लेकिन पढ़ने वाले काठ के उल्लू, गधे हैं।

विकास

वो चीज़ जिसे तुम विकास कहते हो.........वो गरीबों के लिए नहीं है---
विकास है उनके लिए जो कोयला खोदने से पहले आदिवासियों की झोपड़ियाँ खोद देते हैं...!
विकास है थुलथुले मोटे करोड़पतियों और अरबपतियों के लिए!
विकास है इन अरबपतियों की बड़ी कंपनियों में नौकरी कर रहे मोटी तनख्वाह पा रहे लोगों के लिए!
विकास है उन धंधेबाजों के लिए जो किसानों का अनाज १० में खरीद १०० में बेचते हैं!
विकास है उनके लिए जो कार खरीद सकते हैं, जो ५० हज़ार का फोन खरीद सकते हैं, जो माल में जाकर २०० किलो की दाल खरीद सकते हैं!
विकास है उनके लिए जिन्होंने कभी गाँव नहीं देखा लेकिन गाँव का हर संसाधन उनके लिए पैसा फेकते ही हाज़िर है....!
विकास है उनके लिए जो रोज़ शाम को ५००० की शराब मर्सिडीज़ के अन्दर बैठे पी जाते हैं!
विकास हैं उन पुलिस वालों के लिए जो आदिवासियों की लड़कियों को उठा ले जाते हैं बलात्कार करते हैं गोली मार देते हैं और बन्दूक बगल में डाल कर उन लड़कियों को नक्सली घोषित कर देते हैं क्योंकी इसके बाद लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों का इधर हौसला टूट जाता है उधर दरोगा को इतना करने के १-२ लाख रूपये मिल जाते हैं!
विकास है उन नेताओं के लिए जो उद्योगपतियों के लिए वेश्या का किरदार अदा करते हैं! नेता जो अपने आत्मसम्मान का बलात्कार करवाने के बदले चुनाव की फंडिंग पाते हैं...फिर किसानो से ले कर माध्यम वर्ग तक सब का शोषण करते हैं...!
अगर तुम किसान के बेटे हो.....एक छोटे नौकरी पेशा बाप की औलाद हो.....एक छोटे दूकानदार की जायज़ औलाद हो.......................तो ये सारी बातें तुम्हारे लिए हैं... .................और फिर बता दूं की विकास तुम्हारे लिए नहीं है..!

मुझे विश्वास है

मुझे तसल्ली है की तुम मुझे पसंद नहीं करते, और ये विश्वास भी है कि मैं ही सही हूँ....!
क्योंकि यदि तुम मुझे पसंद करते तो इसका मतलब होता - मैं वो कहता हूँ जो तुम चाहते हो, मैं वो लिखता हूँ जो तुम चाहते हो, वो सब झूठ होता, वो सब चापलूसी होती!
तुम्हे मीठी गोलियां पसंद हैं, मैं कडवी नीम हूँ, तुम्हे जलेबियाँ पसंद हैं, मैं मिर्च सा तीखा हूँ.....!
अगर तुम मेरे साथ नहीं चल रहे तो ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूँ...........दरअसल तुम मेरे साथ नहीं चल पा रहे हो......मेरा पथ कांटो भरा है और तुम्हे गुदगुदे कालीन पसंद हैं....!
तुम वातानुकूलित कमरों के आराम के तलबगार हो.....मैं कड़ी धूप का राहगीर.........! तुम मुझसे लड़ते हो, कीचड उछालते हो मुझपर और मुझे उकसाते हो तुम्हारी उन अतार्किक बातों का जवाब देने के लिए जिनका कोई ठोस आधार नहीं है......! 
और जब तुम देखते हो कि मैंने तुम्हे नकार दिया है, तुम चिढ जाते हो, मुझे कोसते हो, गलियाँ देते हो...! 
गालियाँ देते हुए तुम ये भूल जाते हो की अनजाने ही उनका अपमान कर रहे हो जिनकी दुहाई दे कर तुम अपना धंधा चलाते हो........तुम स्त्री, माँ, बहन जैसे शब्दों की महत्ता भूल जाते हो....!
हाँ इसीलिए............मुझे विश्वास है की मैं ही सही हूँ...!

Saturday, June 4, 2016

तुम, इम्तेहान और सब..!

तुझसे ही बस फेर लेता हूँ नज़र
कर देता हूँ नज़र अंदाज़

वरना

मोहब्बत भी करता हूँ
तो इम्तेहान लेता हूँ
आँखे पढ़ लेता हूँ
शख्शियत पहचान लेता हूँ

निस्सार करता हूँ वफ़ा
तो बेवफाई पे
जान लेता हूँ
मुझ से मिलना जरा सम्हल कर
लफ़्ज़ों से पहले ज़ुबान लेता हूँ

कितने भी पोशीदा हो तुम
के हो लाख परदों में फितरतें
और छुपा लो जैसे भी
के राज़ हों तो....जान लेता हूँ..!

मुझसे वफाओं में
जो पाओगे महक है जन्नतनशीं
की रिश्तों में, किमाम लेता हूँ
ज़ाफ़रान लेता हूँ

खुद को भी परखता हूँ
बेवफाई से बचता हूँ
अपना भी इम्तेहान लेता हूँ..!

ऐसी रातों से दिल भर गया

ये ज़िन्दगी भी
गर रात भर की हुआ करती..
हर दुसरे रोज़
सुबह होती..
यूं स्याह अँधेरे न रेंगते
मेरे वजूद के इर्द गिर्द..

ना आये ख्वाब
तो भी क्या बात थी?
जिंदगी यूं भी
तो बसर हो सकती है

अंगड़ाई होती के
गोया आज़ादी ही होती
सुबह होती के इंतज़ार होता
आती ही होगी

ज़िम्मा होता भी
तो ज़र्रा ज़र्रा
फ़िक्र होती तो
कतरा कतरा...
होती तो बस इतनी ही होती..

मेरे पैमाने भरने का
सबब भी क्या...?
ये बेहिसाब रातों का नाश
और मयनोशी
मेरी तो फितरत न थी

ऐसी रातों से
दिल भर गया....!