मैं केंद्र में,
जड़वत खड़ा होता हूं....!
समर्पण के सम्बन्ध के,
एक सिरे को पकडे हुए.....!
जिसका दूसरा सिरा,
पकड़...!
तुम चलती हो,
पूरी परिधि पर...!
तभी तो पाती हो तुम,
अपना इच्छित,
पूर्ण विस्थापन..!
ये समर्पण की त्रिज्या,
कभी अतीत,
तो कभी भविष्य में,
बढ़ कर व्यास हो जाती है...!
केंद्र में, मुझ पर,
भविष्यगत शंकाओं का.
जब कभी,
एक लम्ब, अवतरित होता है..!
तो समेट लेता है तुम्हे भी...!
आच्छादित,
अस्तित्व हमारे,
शंकु बन जाते हैं...!
न होता वृत्त यदि आधार..!
तुम्हारे प्रेम और विश्वास का,
तो यह शंकु....
अपने ही,
शीर्ष पर टिका होता....!
हाँ.....तब भी
विस्थापन तो होता ही....!
परंतु तब,
केंद्र में एक नुकीला,
सिरा होता...!!!
जो हमारी
सारी ज्यामिति पर
खूंटे सा गड़ा होता..!!!