Monday, August 29, 2016

ज्यामिति

मैं केंद्र में,
जड़वत खड़ा होता हूं....!

समर्पण के सम्बन्ध के,
एक सिरे को पकडे हुए.....!

जिसका दूसरा सिरा,
पकड़...!
तुम चलती हो,
पूरी परिधि पर...!

तभी तो पाती हो तुम,
अपना इच्छित,
पूर्ण विस्थापन..!

ये समर्पण की त्रिज्या,
कभी अतीत,
तो कभी भविष्य में,
बढ़ कर व्यास हो जाती है...!

केंद्र में, मुझ पर,
भविष्यगत शंकाओं का.
जब कभी,
एक लम्ब, अवतरित होता है..!

तो समेट लेता है तुम्हे भी...!

आच्छादित,
अस्तित्व हमारे,
शंकु बन जाते हैं...!

न होता वृत्त यदि आधार..!
तुम्हारे प्रेम और विश्वास का,
तो यह शंकु....

अपने ही,
शीर्ष पर टिका होता....!

हाँ.....तब भी
विस्थापन तो होता ही....!

परंतु तब,
केंद्र में एक नुकीला,
सिरा होता...!!!

जो हमारी
सारी ज्यामिति पर
खूंटे सा गड़ा होता..!!!

Wednesday, August 24, 2016

सुरसा उलझने

किसी नशेड़ी बनिए सा
मैं ख्यालों का तराज़ू लिए
अपना मन तोलता हूँ..!

उलझने हैं,
प्रेम करू तो किस से?
प्रेयसी या देश??

पथ चुनूं तो कौन सा?
जो घर जाता है?
या जो घर से बाहर?

संदेह करूँ तो किस पर?
रूढ़ियों पर या
रूढ़ियों के संदेह पर?

अर्थ को महत्त्व दूं?
या महत्त्व के अर्थ को?

प्रेम में घुल कर
कृष्ण वर्ण हो जाऊं?
या निष्काम का अनुचर?

उलझने ही तो हैं

उलझनों का गोला
सुबह निकलता है
और शुबहों का चाँद, रात..!

मैं इस चाँद को
उस सूरज से तोलता हूँ
आरज़ूओं से खेलता हूँ

फिर समय थप्पड़ मार
मुझे सच पर पटक देता है..!

उलझने फिर
सुरसा हो जाती हैं...!