Sunday, October 12, 2008

ये अजनबी शहर


दिल्ली शहर मुझे कभी ज्यादा
पसंद नही आया, पर इतना वक्त
गुजार लेने के बाद कुछ बातें तो
समझ आने लगी हैं, फिर भी मेरे
जेहन में बसा गाँव मुझे लगातार
याद आता रहता है, कुछ महसूस
किया मैंने इस शहर में और लफ्जों
की शकल दे दी..........


हमसफ़र है पर हमदम न हो सका,
कोशिश भी न कर सके,
दर्द कम न हो सका.............

सुख बांटने का दिखावा करते रहे,
दर्द को छुपाये रखा,
अनजाने ही ख़ुद को अपनों से,
अजनबी बनाये रखा...............

अक्स को खो कर भीड़ में,
घर के आईने में ढूँढ़ते रहे,
जुबां सिल कर बैठे हैं,
कोई कहे भी तो कैसे कहे...............

अब जिन्दगी सवाल पूछती है,
जवाब सूझते नही,
सब को एहसास है, सबके दर्द का,
पर एक दूजे से पूछते नही..........

एक ओर मुस्कुराता चेहरा है,
दूसरी ओर उदासी छुपी है,
इस शहर को दोहरी जिन्दगी जीने की,
आदत सी पड़ी है.............

अब तो मेरी भी यही रहगुज़र,
मेरा भी यही घर,
पहले ज्यादा लगता था,
अब कुछ कम ये अजनबी शहर..............

हमदम= soulmate, हमसफ़र= fellow, अक्स= image, reflection,
आइने= mirrors, एहसास= feeling, realization, रहगुज़र= pathway

Monday, October 6, 2008

शायद यही मेरे होने की वज़ह हो.........

फिर आज मेरे रूबरू हैं,
मुझे डराने आए हैं, वो सवाल.......
पूछा करता था, मेरा दिल जो मुझसे.........

अब तो न टूटने दोगे कभी........?

एक बिखरते शीशे का दर्द,
उसका अक्स ही समझा होगा,
आइना होता तो, मेरा भी अक्स होता,
किसी ने समझा होता..........

फिर से आज कोई पुरानी रात लौट कर आई है..............
सर्द है, अँधेरी है, अकेली, और मैं भी,

बस कुछ गुज़रे लम्हे याद आते हैं,

कुछ टूट रहा है, पर धीरे धीरे..........


यूँ बिखरना............
जैसे हर पल मरना,
साँस में भरा है ज़हर जैसे.........

नज़र टिक जाया करती है,
जब तब, जहाँ तहां..........
फिर याद करता रहता हूँ, एक चेहरा.........
खूबसूरत..............
प्यार से लबरेज़ आँखें..........

एक और जिंदगी मिली थी जिनसे, मुझे........

क्या हुआ है, पूछे वो,
मुझसे ही हर दफा.........
कैसे कह दूँ, मर्ज़ है कि ज़फा..........

कैसे रुसवा कर दूँ तुझे,
खुश रखने की कसम उठा रखी है, मैंने........

सौंप दिया जो ख़ुद को......
तो जैसे चाहे, तोड़ मुझे,
शायद यही मेरे होने की वज़ह हो.........

Saturday, October 4, 2008

मुत्फर्रिक आशार..........

जैसे राह का काँटा हूँ,

याद रहा जो चुभ गया.......

निकला, तो दो पल में ज़माना (वो) भूल गया...........



एक बार फिर सूरज सर पे आने लगा है,

फिर तपती धूप की आहट आई है,

फिर सुलगती ज़मी पे नंगे पाँव चलने का वक्त आया है.............



आधी सी है, अधूरी है,

ये आस भी जैसे झूठी है,

तोडे मुझे रोज़, पर ख़ुद कब टूटी है................


तेरी याद से कुछ यूं लरजती है रात,

करवटें बदलते गुज़रती है रात....!



थरथराते होठो पे रखू निगाह,

की मह्बेखाब आँखे देखू,

रात तमाम तेरे गेसुओं से,

मेरा मशविरा चलता रहा......!


शिद्दत-ओ-दर्द-ए-हिज्र मरने नही देता,

इंतज़ार वस्ल की रात का भी कुछ कम नही,

पथराई नज़र में चुभते हैं, अधूरे ख्वाब,

सिवा इसके बड़ा कोई ग़म नही....!

तेरी आवाज़ भी सुन सकू,

तो रोशन हो दीदए उम्मीद,

और इस से भला मरहम नही...!

आ.........और यूं आ,

की वफ़ा का भरम न टूटे,

मैंने ज़माने को एक दौर तलक,

तेरे नाम की दुहाई दी है,

बेपरवाह सही मेरा पत्थर का सनम नहीं...!