Wednesday, August 24, 2016

सुरसा उलझने

किसी नशेड़ी बनिए सा
मैं ख्यालों का तराज़ू लिए
अपना मन तोलता हूँ..!

उलझने हैं,
प्रेम करू तो किस से?
प्रेयसी या देश??

पथ चुनूं तो कौन सा?
जो घर जाता है?
या जो घर से बाहर?

संदेह करूँ तो किस पर?
रूढ़ियों पर या
रूढ़ियों के संदेह पर?

अर्थ को महत्त्व दूं?
या महत्त्व के अर्थ को?

प्रेम में घुल कर
कृष्ण वर्ण हो जाऊं?
या निष्काम का अनुचर?

उलझने ही तो हैं

उलझनों का गोला
सुबह निकलता है
और शुबहों का चाँद, रात..!

मैं इस चाँद को
उस सूरज से तोलता हूँ
आरज़ूओं से खेलता हूँ

फिर समय थप्पड़ मार
मुझे सच पर पटक देता है..!

उलझने फिर
सुरसा हो जाती हैं...!

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