Monday, October 21, 2013

समर्पण....!

मैं हूँ या,
दंभ ही दंभ है...?
या सब कुछ है,
एक स्वतंत्र अस्तित्व के सिवा?

ईर्ष्या ही ईर्ष्या है,
और बस यही है,
अकाल मृत्यु....?

संतोष है,
धन ही धन है...?

निरर्थक विचार हैं?
या बलिवेदी पर समय...?

विचित्र है, विचित्र है,
असमंजित भी,
सूत्रहीन भी....!
प्रथम विचार परस्पर,
मेरा है की तुम्हारा?

और देखो अंतरिम भाग,
स्वच्छ निर्मल,
अकलुषित, परिमार्जित..!

शून्य में विलीन होना क्या है?
समझ गया हूँ...!
प्रेम है.....और बस प्रेम है...!

जीवन को इतना ही समझा हूँ,
कि तुम हो, तुम हो और तुम हो...!

Friday, October 18, 2013

परन्तु तुम चाणक्य थे....!

न तुम जन्मते,
न मुद्रा ही हुई होती,
खड़ग से भी,
महत्त्वपूर्ण....।

अपनी गुप्त वीथिकाओं में,
न रचे होते ,
तुमने ये विचार,
तो भोजन सुलभ होता..।

न श्रीमूल्य की महत्ता,
न सुवर्ण भारी होता,
मानव जीवन पर...!

शास्त्र-वेद ही होते,
कदाचित प्राथमिकता....।

किन्तु श्रीशास्त्र में,
इतना भार कहाँ से लाये....।

मानो अथवा नहीं,
विश्वयुद्ध के,
प्रणेता तुम ही थे...।
अप्रत्यक्ष ही सही...!

सहस्राब्दी परांत,
यह दोष.....?

पूर्ण नही,
अंशदोष तो है ही...।

क्या तुमने कभी,
कल्पना भी की थी...?

तुम्हारा विचार,
बनेगा, मानव अस्तित्व का,
गूढ़तम आधार....।

आह....!
तुम्हारी कल्पना,
पूर्ण हुई होती...!

तुमने स्वहस्त,
अपनी रचा,
अग्नि को आहूत की होती।

परन्तु तुम चाणक्य थे....?

Wednesday, October 16, 2013

बकरीद मन गयी है....!



छुट्टी थी, देर से उठा, फिर सुबह से लैपटाप पर कोई न कोई फिल्म देखे जा रहा था ! जिस मोहल्ले में रहता हूँ वह मुस्लिम बस्ती नहीं है थोड़ी देर पहले अचानक पता चला कि किराए के कमरों और घरों में कई मुस्लिम परिवार रहते हैं.........!


मुझे कैसे पता चला..........?


पिछले कई महीनो में सिर्फ आज सुबह से ही कुछ बकरों के मिमियाने की करुण आवाज़ सुने दे रही है......आवाज़ कर्कश से ज्यादा करुण है.... जो शायद दोपहर बाद तक खामोश हो जाएगी........आवाज़ भी इतनी करुण कि उसमे में छुपा डर मुझे साफ़ सुनाई दे रहा है.....कौन कहता है की आने से पहले मौत का पता नहीं चलता....आज मुझे पता चला जानवर भी जानते हैं...!

अब हर बाप अपने बेटे को कुर्बानी का मतलब समझाते हुए बेटे और खुद को तैयार करेगा! अक्सर हर्षोल्लास से बेहद खुश बच्चे इस पल का कई महीनो से इंतज़ार कर रहे होते हैं.....जब उनके सामने पहले कुर्बानी होती है...!

सब रस्मो रिवाज पूरे करने के बाद बकरे को लिटा दिया गया है....बच्चा बहुत खुश है...! उसके लिए ये मदारी के किसी करतब से कहीं कम नहीं है....! पिता ने छुरी पर धार पहले ही रख ली थी.....थोडा नापतोल कर बकरे की गर्दन पर रख कर उसने दुआ पढ़ते हुए बकरे के गले पर फेर दी........मुह बंधे बकरे की छटपटाहट और गले से बहते खून को देख कर बच्चा सहम रहा है.......३-४ मिनट तक बकरा छटपटाता है........और बच्चे के भीतर का इंसान भी......जो उस से पूछता है कि अगर कुर्बानी हम दे रहे हैं.....तो दर्द इस बकरे को क्यों सहना पड़ रहा है......?

खैर........सर उतारे जाने के बाद भी बकरे के जिस्म में जुम्बिश है.......जिस को देख कर बच्चे को झुरझुरी छूट रही है.......उसे मटन बेहद पसंद रहा है.....पर आज ही उसे पता चला है कि दूकान से मटन उसकी थाली तक आने में कितनी जुगुप्सा इसमें भरी है...!

पिता बच्चे की ओर देखे बिना बड़ी हुलस के साथ बकरे को एक तसले के ऊपर उल्टा टांग उसकी आंतें और खाल निकाल देता है....इस विजय भाव से जैसे ही वो बच्चे की ओर मुड़ता है उसे बच्चे की आँखों में वो सवाल दिख जाता है....पिता मन ही मन उस उस सवाल के लिए खुद को तैयार कर रहा है!

मटन के टुकड़े किचन में चले गए हैं, बेटा सदमे से पूरी तरह उबर नहीं पाया है.........उधर एक जीव की आत्मा प्रकृति में विलीन हो गयी है जिसे ये भी नहीं पता कि उसकी जान क्यों गयी है...!

बच्चे ने सवाल अपने पिता के सामने रख दिया है.......पिता अपने संवेदनशील बच्चे को संवेदनाघाती एक कहानी सुना रहा है......एक बार अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम का इम्तेहान लेने के लिए उनसे अपनी सबसे प्यारी चीज़ कुर्बान करने को कहा....तब हज़रात इब्राहीम ने अपने सबसे अज़ीज़ बेटे इस्माइल को कुर्बान करने का फैसला किया..जैसे ही वो कुर्बानी देने लगे अल्लाह ने बेटे की जगह एक दुम्बे (भेड़) को रख दिया और खुश हो कर हज़रत को बताया कि ये सिर्फ एक इम्तिहान था....और वो बेटे की जगह दुम्बे की कुर्बानी दे दे...!

बेटे ने पिता से सवाल पूछ लिया.........तो आपको मेरी कुर्बानी देनी चाहिए थी.....? अल्लाह मियां मेरी जगह दुम्बे को रख देते....?
लाजवाब बाप अल्लाह पर लाये आपने ईमान को तोलता रहा.......बेटा सामने बैठा और न जाने क्या क्या बोलता रहा..!

शाम से मोहल्ले में अजीब सा सन्नाटा पसरने वाला है....बकरों के मिमियाने की आवाजें कम होने लगेंगी...बच्चों का उल्लास सवालों में बदलने लगेगा......!

पीछे बचे सन्नाटे में रह जाएगा........नालियों में बहता ताज़ा खून, ताजे कटे मांस की अजीब सी महक जो मिल मिल जायेगी कढाईयों और भौगौने में पक रहे मटन के खुशबूदार मसालों की महक से....!
शाम को ही कुछ लोगों के घरो के बाहर कसाई खड़े हो कर उतरी हुई खालों का मोल भाव कर रहे होंगे...!


आवाजें थमने लगी हैं........मेरी बेचैनी बढ़ने लगी है.....आज शाम मुझसे खाना नहीं खाया जायेगा....!
रात भर दिमाग में हथौड़े बजते रहेंगे.....और मैं सोचता रहूँगा.......संस्कृति और धर्म इतने स्वार्थी क्यों होते हैं....?


बकरा ईद मन गई है....मेरे जेहन में कई सवाल रह गए हैं....!

क्या बाप को अल्लाह पर अपने ईमान की असल तोल मिल गयी है...?
क्या बेटे को उसके सवालों के जवाब मिल गए हैं........?
क्या बच्चे के भीतर के इंसान को एक रिवाज़ और उसके बाप ने मिल कर थोडा सा मार दिया है....?

कहीं ऐसा तो नहीं कि दाढ़ को लगे मटन के स्वाद ने इस रिवाज़ को पक्का करने में अहम् भूमिका निभाई है...?

Sunday, October 13, 2013

तुम धन्य हो रावण......!

एक और दशहरा,
एक और रावण,
या बस एक बहाना....

राम से कहने का,
कि हम भी जलाते हैं रावण,
पीटते हैं लकीर.......!

और.........राम?
पीट रहे होंगे,
अपना सिर..........!

सोच कर कि मैंने तो,
समाप्त कर दिया था,
रावण को सतयुग में ही...!

ये नासमझ इंसान,
बनाता है रावण.........!

सदियों पुराने अपने
दंभ, झूठे गर्व की,
वर्षगाँठ मानाने को....!

हर वर्ष रचता है
स्वांग खुद को,
राम बराबर दिखाने को...!

हनुमान और जामवंत को,
आती होगी लज्जा,
जिनके नाम चंदे से,
आती है पंडालों में शराब........!

वरना चिरंजीवी हनुमान
कभी न कभी,
दर्शन तो देते........!

वानरसेना भी,
होगी बड़ी लज्जित,
देख रामलीलाओं में,
फूहड़ नृत्य.........!

जामवंत शर्मिंदा यूं हुए होंगे,
कि इच्छा जताई होगी,
सशरीर गौ लोक जाने की......!

रामलीला ने,
कितने राम दिए समाज को.....?
राम ही जाने......!

पर समाज ने जने हैं,
कोटि कोटि रावण.......!

अन्यथा......

दिल्ली, पटना, कानपूर,
मुंबई, हैदराबाद, और,
पूरे आर्यावर्त में,
सीताओं का यूं...!
हरण न होता..........!

जब एक था रावण,
तो एक थे राम
हरा भी दिया था,
लेकर पूरे विश्व का सहयोग....!


आज दस कोटि हैं रावण,
और राम..........?


जब भी जलता है रावण,
चिंगारियों में बदल,
समा जाता है,
मोहल्लों में,
युवाओं में...........!

ले रहा है बदला,
सहस्रों वर्षों से........

फिर जलता है, और बढ़ता है,
और जलता है, और बढ़ता है...!


मजेदार बात तो ये है,
हज़ारों बार जलाने के बाद भी,
प्रतीकात्मक.....!!!!!!

बुराई आज भी सिर्फ बढ़ी है.........!
मरी नहीं है..........!

धन्य हो रावण,
राम को अपनी पुण्यतिथि पर,
तुमसे बड़ी ईर्ष्या होती होगी..........!

दिल्ली भी निष्ठुर है...!


दिल्ली में खुली छत,
और कनोपियों की मुंडेरे,
बड़ी महंगी हैं।

एक किराए की मुंडेर से,
एक घर बनते देख रहा हूँ,
कुछ रोज़ से....।

और तभी से कविता,
उलझी पड़ी है,
उलझी सोच से.....!

क्या ये कारीगर,
ईंट पत्थर, सीमेंट के सिवा,
प्यार भी मिला जाते है,
सीली और गीली दीवारों में....?

जो बरसों रिस रिस कर,
कुनबों के रिश्तों को,
चिपकाए रखता है....?

कहीं ये मजदूर ही तो नहीं,
जो चुन देते हैं,
अपनी मेहनत,
यमुना की रेत के प्लास्टर में...?

जो मेरे जैसा कामगार,
हर शाम टूटी हिम्मत ले कर,
ऐसे ही किराए के घर में,
मरम्मत करता है....।

अगली सुबह,
बलि भेंट की खातिर
अपने इरादों की....!

कहीं ये कन्नी वसूली,
की हलकी चोट,
वजह बनती हो.....?

बच्चे, जो अनोखे ख्वाब,
देखते हैं....इन माचिस के,
डिब्बी जैसे कमरों में...?

उत्सुकता मुझे,
कारीगर के पीछे पीछे,
उसके आशियाने तक,
खींच ले गयी आज.....!

रईसों के आशियाने,
रचने वाला,
रूखा सूखा खा,
तिरपाल के नीचे,
सोने की तैयारी कर रहा था...!

लौट रहा हूँ.....!
आज शाम फिर,
सीली हैं आँखें..!

दिल्ली भी निष्ठुर है....।

Friday, August 23, 2013

जन्नतों के आशियाने........!

छत पे जा के चुपके से,
जो लगाये थे बिस्तर,
जन्नतों के आशियाने,
से लगते थे...!

शाम से तुम उलझन में थीं,
किचन की खिड़की से,
एक बदली सी नज़र आई थी...!

बिस्तर पे खाते झगड़ते,
गिरा था पानी....!
तुम्हारी भौहों के दरम्यान,
सैलाब देख सहम सा गया था...!

प्यार का टुकड़ा वो एक,
मेरी यादों में अब तक है..!

नाज़ुक नाज़ुक और गुनगुनी,
सुबहों के वो बोसे...

मैं नही भूला...!
जानता हूँ तुम्हे भी याद ही होंगे।

कितनी अंगड़ाईया..!
चादर की उन सलवटों में,
जज़्ब पड़ी होती थीं...!

जिनसे अनगिनत ख़्वाबों
की पोटली बनाते थे हम।

जब भी झुक के हौले से,
मेरी जबीं पे तुमने,
होंठो से नज़रें उतारी थी।

मेरी इक अंगड़ाई,
चकनाचूर हुई...!

खेंच के पहलू में,
वो मोहब्बतों का दम भरना,
अब चुटकुले सा लगता है।

छत पे बिस्तर लगाना,
अब कोफ़्त है......!

वक्त पहले
दौर-ए-रुसवाइयों में भी....!

एक दफा लगा था बिस्तर,
फ़क़त इक बूँद छींटे की,
शरारत की थी बेचारी बदली ने...!

तुम्हे अब तक
बारिश से नफरत है....!

सरहद से....!

चूड़ियो के टूटने की,
कुछ शोर की,
रोने कराहने की,
आवाजें आई हैं...!

शायद फौजी के घर
चिट्ठी आई है..!

दो दिनों से मरघट की,
उदासी है गली में...!

उधर भी जरूर गई होगी..!
सरहद से फिर इस बार,
कई घरों में मिटटी आई है....!

इक जोड़ी बुज़ुर्ग आँखों में,
बस सवाल हैं...!

क्या हर सुख का,
हक बस तुम्हारा,
जान देने की कसम
सिर्फ मेरे कुनबे ने उठाई है...?

सरहद से....!
कई घरों में मिटटी आई है।

Sunday, August 18, 2013

हिजाब तले चीखें..!


तुमने लगायी थी आग,
तुमको ही बुझानी होगी
किसी की लगाई....!
अब कोई और नही बुझाता...!

बड़ी बेसब्र है,
पल पल में आती जाती है,
कमबख्त साँस को,
कुछ और नहीं आता....?

तुम जो थे,
न जाने क्या बेचैनी थी,
बड़ा सुकून आता था
अब और नही आता...!

दीवारे टटोल के आज भी,
पहुचा हूँ जानिब-ए क़िबला,
रास्ता अभी भी,
कोई और नही बताता...!

सबके ज़ख्मो पे,
तेरी नेमत का,
मरहम भी क्या मुकम्मल था....!

खुद का हमदर्द,
जब से बन पड़े हैं सब
किसी की चोट तेरे यहाँ अब,
कोई और नही सहलाता...!

इतनी नफरत-ओ-रंजिश,
देख कर भी,
न धड़का दिल इक बार....!

अपने गुनाहों में,
मुब्तिला शख्स को,
खौफ-ए-खुदा,
अब और नही डराता....!

सीना ठोक खुद को,
कहने वालो फ़रिश्ता....!
मैंने देखी है हकीकत,
तुम्हारी ड्योढ़ीयों के पार.....!

चाहो तो कह लो बुज़दिल,
जब से,
पाक वतन में सुनी हैं,
हिजाब तले चीखें.....!

अंतस अब उस ओर,
और नहीं जाता...!

मूर्खता के चिरायु पर्याय...!


लो बुझा दो साँसों का दीपक,
यदि तुम्हे प्रकाश मिले.....!

मैं आखिर करूँगा भी क्या,
नश्वरता का पर्याय बनना ही,
अंततः मेरा भाग्य....!

तो निस्संदेह, निरंकुश हो,
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं में,
मुझे आहूत करो....!

यदि हो सके तो मेरे प्राण ले,
अपनी ईर्ष्या के कुटज को,
सिंचित प्रफ्फुल्लित करो...!

अकारण ही मैं भयग्रस्त रहा,
अब तो स्वयं समर्पित हूँ.....।

अनाधिकार पर लोभ,
और समय व्यर्थ करना,
अब और क्यों हो....?

क्यों न तुम्हे भी ज्ञात हो..?

कि मेरा वर्तमान,
तुम्हारा भी भविष्य है.....!

यदि तुम्हारी मूर्खता,
मेरे धैर्य से अधिक,
प्राणवती हुई....!

तो निस्संदेह शूरवीर बन,
आत्मसंतोष का गान करोगे...!

अन्यथा सत्य से परिचय,
हुआ ही समझो...!

ग्लानि बस इतनी ही है,
की तुम मानव हो,
और....!

मूर्खता के चिरायु पर्याय।

Monday, June 24, 2013

मैं निकला था घर से...!

ये हादसा क्या हो गया...?

माँ से बात करने का,
लहज़ा भी लचकने लगा,
मैं तालिब-ऐ-इल्म,
निकला था घर से......!

हसरत-ओ-ख्वाहिश,
कब की गुज़र चुकी...!

फ़क़त पैरहन बाकी,
जुम्बिश-ओ-गोश्त पर,
मैं जिंदा जिस्म,
निकला था घर से...!

एहसास था, रूह थी,
मोहब्बत-ओ-जज़्बात,
मैं सही किस्म,
निकला था घर से....!

जिसने छुपाये रखा,
हर नज़र से महफूज़,
टूटा माँ का तिलिस्म,
निकला था घर से....!

रिश्तों की झीनी,
चादरों पे....!

जमी है वक्ती धूल...!
अरसा हुआ अब तो,
कुछ याद अपनों की
हो चली है मद्धिम...!

मैं निकला था घर से...!

क्यों.....?

सोचता हूँ,

फिर और सोचता हूँ,
अजीब अजीब सी बातें....?

हाँ सब सामान्य लोग,
यही कहते हैं.....!

तो फिर और सोचता हूँ,
सिलसिलेवार.....!
सोचना ही पड़ता है।

अपने अस्तित्व और,
मेरे लिए....
तुम्हारी दीवानगी के बारे में!

धर्म की भंगुरता,
और लोगों के....
इस पर दृढ विश्वास पर।

पानी में रंग क्यों नहीं,
होता तो क्या पीते हम इसे,
इतनी ही सहजता से.....?

सोचता हूँ...

क्या दिल भी सोचता है?
या सिर्फ दिमाग..?

मय की मदहोशी थी खुशगवार,
या तुम्हारा प्यार...?

लोग मर जाते हैं....क्यों?

न मरते तो....?

अच्छा ही है..!
वरना हर रोज़ मरना पड़ता!

लो एक और शाम,
बेहूदगी से क़त्ल हो गयी!

सामने ही आईने में,
ख्यालों से गुत्थमगुत्था,
मेरी शक्ल हो गई....?

लो अब फिर से,
मैं सोचता हूँ.....!

Tuesday, June 18, 2013

ब्रांड....!

होठों के दरम्यां बेतहाशा,
भींच के तुझे...

जब भी शिद्दत से.
जज़्ब किया है.....

तो लगा है कि,
पूरी हो रही है,
हर चाहत,
हर अधूरी ख्वाहिश.....!

और हर दफा,
तेरे रुखसार पे,
आगे बढ़ चुकी सुर्खी,
मदहोश करती गई....!

जुनून-ओ-दुश्मनी,
भी निभा ली....
हर रंजिश चुका दी....!

आज फिर..!
एक सिगरेट,
जूतों तले बुझा दी....!

मगर मेरी जान,
इश्क के मानिंद...!

मैंने तुझसे भी,
वफ़ा निभाई है....!

न प्यार बदल पाया..!
न अपना ब्रांड...!

Monday, June 17, 2013

शर्मिंदा.......!

पहली बार जाना था,
बात कूट शब्दों में भी,
हो सकती है......!
जब सिखाया वो पहली तुम थीं.....!

गलीज़ सी जिंदगी के,
कुछ बरस, हथेली पे धरे,
पुर्जा पुर्जा झलक की खातिर,
हफ़्तों राहों पे रहा मैं,
और....!
वो दूसरी तुम थीं....!

मज़हबाना दायरे,
मुझे पेश कर,
जो महीनो सुरमा बहाया,
वो ख्वाबनशी तुम थीं..!

चाहतों में सौंप देना सब,
सिखाया तुमने,
पर तुम्हारा शीशा-ए-दिल.......
तोडना न जाने कब आया.......?

अपने टुकड़ों पे बिलखती,
तुम याद हो मुझे.....!

मेरी भूख को तुम से,
बेहतर भला कौन समझा होगा,
वो सैंडविच.........
अब तक याद हैं मुझे.........


बातें हैं, गलीज़ जिन्दगी है,
दायरे हैं, टुकड़े हैं.........
भूख अब भी है,
बस तुम नहीं हो............


बिना दीवारों का एक कमरा,
मैं घेरे बैठा हूँ................!
शर्मिंदा.....!

तुम्हारे लिए.....हमारे लिए....!

ये वाद.....!

मुझे न जचे,

न जचेंगे......!

क्यों......?
क्योकि मेरे लिए नहीं थे।

लूथर बस लूथर था।
पूरा अमेरिका तो नहीं....?

गोर्की भी गोर्की ही था।
पूरा सोवियत तो नहीं...?

और माओ..?

छोडो जाने दो.....!

मैं......?
मैं तो हिन्दोस्तान हूँ!

बासी विचार मेरे लिए?
मत थोपो न....?

इण्डिया जगत गुरु रहा है।
सुन कर, कह कर।
तालियाँ पीटने के सिवा भी,
बहुत कुछ बाकी है।

अपना वाद रचो।

चाहो तो संतुलन वाद कहो,
या सर्व वाद......?

तुम्हारा अंकुरण,
मुझे...जीवन देगा।

तो.......?

नया दो! मेरे मुताबिक। मेरे लिए!

तुम्हारे लिए....!
हमारे लिए.....!

जियो मियाँ..............!

तिनका तिनका मिलती है,
संजो संजो के रखता हूँ,
मुश्किलों के सहरा में जिंदगी,
शबनम की बूंद लगती है..........

कतरा कतरा मिले हो,
जब भी मिले हो,
कभी ऐंठे से, बड़े रूठे से,
जून की खुश्की,
तुम्हारे अल्फाजों से टपकती है......

तुम्हारे तंज़.....
दोयम सी मेरी अहमियत में,
चार चाँद लगा देते हैं....

मैं फिर सोचता हूँ,
ख़ुदकुशी आसां होती है की मुश्किल.....

कुछ कमीने दोस्त,
बरक्स मुझे साँसों के तारों में,
कुछ महीनो के लिए बाँध,
रफूचक्कर हो जाते हैं...

मैं फिर सोचता हूँ..........
ख़ुदकुशी की बातें............

खुद को ज़ाहिराना मज़बूत,
दिखाने की झूठी कोशिशे,
मेरी शामों को तोड़,
चूल्हे में झोंक देती हैं.............

मैं फिर ख़ुदकुशी के,
ख़याल पकाने लगता हूँ.........

अचानक कोई जाग कर,
भीतर ही चीखता है............
जियो मियां....
जिन्दगी बड़ी कीमती है........!

तो फिलहाल....
मेरे माथे भी,

मजबूरी का धब्बा लगा है........

Sunday, May 19, 2013

एक बच्चा अभी भी भूखा है....!

आयतें बेचता फिरता है,
बता काफिर तू है कि मैं...?

गीता की बोली लगा कर,
किस हक़ से,
मुझे अधर्मी कहता है.....?

अगर इतने ही धार्मिक हो,
तो अब तो यीशु को,
सूली से उतार दो.....।

दो हज़ार सालों का दर्द,
यीशु ही समझे होंगे...!

धर्म धर्म, मज़हब मज़हब,
न चिल्लाओ.....!

कभी इंसान भी बनो...!

गणेश जी नहीं हैं प्यासे, न भूखे,
हाँ, 100 करोड़ बच्चों का,
पेट भर सको तो भर दो.....!

रहने दो.....!

ये तुम्हारे बस का नही!

हाँ अगर तुमने यीशु, गणेश,
या साहिब-ए-आलम को,
बोलने दिया होता.....!

तो कहते,
जाओ उसका पेट भरो,

एक बच्चा अभी भी भूखा है.....!

Saturday, May 18, 2013

मैं खरीददार नहीं.....।

तेरी दूकान मुबारक,
तेरे सौदे मुबारक तुझे,

माना की हमदम है तू,
झूठा है, मुझे ऐतबार नही,

मजहब का धंधा है तेरा,
पर मैं खरीददार नही....।

Thursday, May 16, 2013

जिंदगी.....!

रौशनी लबरेज़ कुछ,
कुछ परछाइयों के दिन...!

सुलगती शामे,
धुंधलके सवेरे कुछ,
सतरंगी मिलन की दोपहर कोई,
कुछ तन्हाइयों के दिन.....!

मुहब्बतों के झीने परदे कुछ,
कभी इश्क तार तार,
वफाओं की खुशबुएं कभी,
कभी रुसवाईयों के दिन...!

रौशनी लबरेज़ कुछ,
कुछ परछाइयों के दिन...!

मेरा तुझसे लिपटना कभी,
कभी खफ़ा खफ़ा होना,
उदासियों के दिन,
कुछ अंगड़ाईयों के दिन.....!

कुछ तेरे दामन के लम्हे,
कुछ मेरे वजूद के पल छिन....!

अब समझ रहा हूँ,
जिंदगी क्या थी...!

बस "तेरे" कुछ दिन
और "मेरे" कुछ दिन....!

Sunday, April 28, 2013

मेरे अपने.......।

जब भी दूरियां सालती हैं,
मेरे अपनो को,
मेरी आवारगी याद आती है......!

मुझे जानने वाले,
परिंदों की फितरत बेहतर जानते हैं.......।

नसीहत.....!


कब तक वफ़ा करेंगे,
कब दगा देंगे....!

अंदाजा भी मत लगाना,
थोड़े से परहेज़ की,
नसीहत दी है....!

माँ ने कहा है,
खूबसूरत चेहरों की,
सीरत दिखाई नहीं देती....।

मुझे बा-वजह यकीन है,
आखिर माँ है........।

Saturday, April 27, 2013

मुत्फर्रिक आशार

दर्द-ऐ-दिल खुद को,
बयां करने का तरीका था,

इक हादसे का सबूत है,
मेरी हर नज़्म...।

जब भी ज़ख़्मी हुआ,
इक ग़ज़ल पैदा हुई.....।


उस का मुझ से,
हर रोज़ उलझ जाना,

मेरी नज़्मो का,
असल माज़ी है,

इक मेरी गलतियों का,
सरोकार उस से भी है,

कुदरत भी मुझ से,
मज़े लेती है.....।


तुम गली से भी गुजरो,
तो ढिंढोरा पिट जाता है,

नामाकूल शहर को,
कोई काम नही क्या.....?



तेरी सरपरस्ती में,
गुज़ारी है मैंने,
तमाम उम्र अपनी,

जा तू भी आराम कर,
मुझे भी थोडा सा,
मैं हो जाने दे....।

तूने लगा रखे थे,
खुशिओं के अम्बार,
मुझे थोडा सा,
गम भी गुनगुनाने दे.........।


मैं क्या जानू,
इश्क है क्या...?
बस तेरी बात मानता हूँ,
तुझे याद करता हूँ....!

ये दुनिया न जाने क्यों,
मुझे दीवाना कहती है......?


उलझनों को,
कुछ यूं सुलझाया गया....!

कुछ से कर लिया किनारा,
कुछ को फिर दोहराया गया.....!


तुम्हारी पनाहों में,
गुजरी है, शहाना जिंदगी....!

अब मुझे आज़ाद करो,
कहो, कि तुम,
न बंदिश हो कोई,
न मैं ही कैद में हूँ...!

अब इश्क बाकी नहीं,
बस आवारगी ही आवारगी है....!