जब भी दूरियां सालती हैं,
मेरे अपनो को,
मेरी आवारगी याद आती है......!
मुझे जानने वाले,
परिंदों की फितरत बेहतर जानते हैं.......।
जब भी दूरियां सालती हैं,
मेरे अपनो को,
मेरी आवारगी याद आती है......!
मुझे जानने वाले,
परिंदों की फितरत बेहतर जानते हैं.......।
कब तक वफ़ा करेंगे,
कब दगा देंगे....!
अंदाजा भी मत लगाना,
थोड़े से परहेज़ की,
नसीहत दी है....!
माँ ने कहा है,
खूबसूरत चेहरों की,
सीरत दिखाई नहीं देती....।
मुझे बा-वजह यकीन है,
आखिर माँ है........।
दर्द-ऐ-दिल खुद को,
बयां करने का तरीका था,
इक हादसे का सबूत है,
मेरी हर नज़्म...।
जब भी ज़ख़्मी हुआ,
इक ग़ज़ल पैदा हुई.....।
उस का मुझ से,
हर रोज़ उलझ जाना,
मेरी नज़्मो का,
असल माज़ी है,
इक मेरी गलतियों का,
सरोकार उस से भी है,
कुदरत भी मुझ से,
मज़े लेती है.....।
तुम गली से भी गुजरो,
तो ढिंढोरा पिट जाता है,
नामाकूल शहर को,
कोई काम नही क्या.....?
तेरी सरपरस्ती में,
गुज़ारी है मैंने,
तमाम उम्र अपनी,
जा तू भी आराम कर,
मुझे भी थोडा सा,
मैं हो जाने दे....।
तूने लगा रखे थे,
खुशिओं के अम्बार,
मुझे थोडा सा,
गम भी गुनगुनाने दे.........।
मैं क्या जानू,
इश्क है क्या...?
बस तेरी बात मानता हूँ,
तुझे याद करता हूँ....!
ये दुनिया न जाने क्यों,
मुझे दीवाना कहती है......?
उलझनों को,
कुछ यूं सुलझाया गया....!
कुछ से कर लिया किनारा,
कुछ को फिर दोहराया गया.....!
तुम्हारी पनाहों में,
गुजरी है, शहाना जिंदगी....!
अब मुझे आज़ाद करो,
कहो, कि तुम,
न बंदिश हो कोई,
न मैं ही कैद में हूँ...!
अब इश्क बाकी नहीं,
बस आवारगी ही आवारगी है....!
तुम से छुप के,
हो जाती थी,
बाज़ दफा मयनोशी..।
सामने देख कभी तुम्हे,
फेक दिया करता था,
सिगरेट.....।
गोया मुहब्बत न थी,
हौव्वा था....।
अब सुबह से शाम तक,
सुरूर ही सुरूर है..।
तुम्हे याद करता हूँ,
तो हथेली पे ही,
बुझाता हूँ सिगरेट....!
बड़ा आराम आता है,
हकीम कहते हैं,
चँद रोज़ है जिंदगी बची,
न तो खुल्लम खुल्ला,
जामनोशी पे है काबू..।
न सिगरेट ही गिरती है,
हाथ से, छटपटा कर...।
हमारे हौव्वे के जनाज़े,
कब के उठ चुके.......!
जो तेरा भरोसा था,
पीछे खड़ा,
फौलाद था मेरा सीना...।
आज तेरे बिना, मात रूबरू है,
और ये मुश्किल, तेरे भरोसे से,
बड़ी है शायद....।
फिर आज की रात,
नम है, सर्द है,
रिश्तों की वादियों में,
गफलतों की बर्फ,
पड़ी है शायद....।
कतरा कतरा बह रहे हैं,
वजूद-ओ-चश्म-ऐ-नम तेरे मेरे,
जिंदगी एक मर्तबा फिर,
दोराहे पे,
खड़ी है शायद....।
अजब सी बुनियाद पे,
खड़ी थी हमारे,
रिश्ते की दीवार...।
झटका तो लगा है कोई,
टूटने की आवाज़ आई है,
गिर पड़ी है शायद....।
दोस्तों में मसरूफ कभी,
लड़की का इंतज़ार,
एक लड़का करता रहा...।
तो कभी काम में उलझे,
लड़के की राह,
एक लड़की देखती रही..!
चिंदी चिंदी वक़्त गुज़रता रहा..!
थोड़ी सी गर्मी बढ़ती रही,
न जाने क्या सुलगता रहा..!
क्यों करू मैं फोन,
उसको ही फ़िक्र नही..!
जाना था बाहर,
बताने में हर्ज़ क्या था...?
लड़का एक हाथ में फ़ोन,
दूसरे में सिगरेट ले कर,
सोचता रहा...।
दो घंटे हो चुके,
एक फ़ोन भी नही किया जाता,
उसको मेरी फ़िक्र ही कहाँ अब?
कर लेता तो,
घिस नहीं जाता....!
रेस्त्रा में अकेली बैठी,
लड़की सोचती रही.....।
कुछ ऐसे ही और,
हालातों से रूबरू हो,
हर पल थोडा और दूर,
होते रहे....!
अब वो आलम है,
कि वजह नही कोई...!
न पास आ पाने की,
न खुद को,
न उसको, समझाने की..।
कि आखिर ये दूरियां,
कब दरम्यान सिमट आयीं...!
एक ही बिस्तर पे,
दो चेहरे, आँखे मूँद,
सोने का बहाना कर रहे हैं....!
झूठ ही झूठ है,
धोखा ही धोखा है,
कुछ सोच कर मैंने भी,
अपने दिल को रोका है...।
तकलीफ-ओ-दर्द है,
लम्बी तन्हाई है...!
कुछ खुद किया है,
मेरी कुछ ये हालत,
दुनिया ने बनाई है...!
जिस से निभाना था,
जन्मो जनम का रिश्ता,
हर वो अपनी शै, पराई है।
चुके नही हो तुम भी,
जब भी मिला है मौका,
बेवफाई पूरी निभाई है...!
अब उड़ाता नही हूँ,
मज़ाक पीरों फ़कीरो का,
दिल दुनिया में क्यों नही लगाना,
आखिर बात समझ आई है....।
न जाने मैं हूँ कौन,
तुम हो क्या,
न जाने ये उलझने है क्यों,
न जाने कैसी ये खुदाई है...।
जब भी लगता है,
बात समझ आ गई,
जीने का सलीका आया,
और क्यों जीना है,
ये पता चल गया...।
दस्तक नई रुसवाई की,
फिर से दर पे आई है..।
न जाने मैं हूँ कौन,
तुम हो क्या,
न जाने ये उलझने हैं क्यों?
न जाने कैसी ये खुदाई है.....?
चौंक गया हूँ,
यहाँ भी हैं......
वही इमारतें.....कंक्रीट के दरख़्त।
उतनी बुलंद तो नहीं,
पर उतनी ही बेजान।
और उतना ही,
खून पीने वाली...।
इन दरख्तों में,
अजीब सा रिश्ता है...।
मेरे कमरे को भी,
आ कर घेरे खड़े हैं....।
बेजान दीवारों में,
इक दरवाज़ा दोनों ओर,
बराबर खुलता है.....।
कमरे में बस यही है,
दिल लगाने लायक....।
दो अलग दुनियाओं के दरम्यान,
मेरा बराबर का साझीदार...।
और इक पहाड़ी,
छत की फुनगी से,
बहुत दूर नज़र आती है.
पत्थर पाने को
कोख खोद डाली है उसकी।
तो बच के भागी है,
शहरी दरिंदो से....।
भला ऐसे शहरों में,
मासूमो की बिसात क्या होगी......?