दर्द-ऐ-दिल खुद को,
बयां करने का तरीका था,
इक हादसे का सबूत है,
मेरी हर नज़्म...।
जब भी ज़ख़्मी हुआ,
इक ग़ज़ल पैदा हुई.....।
उस का मुझ से,
हर रोज़ उलझ जाना,
मेरी नज़्मो का,
असल माज़ी है,
इक मेरी गलतियों का,
सरोकार उस से भी है,
कुदरत भी मुझ से,
मज़े लेती है.....।
तुम गली से भी गुजरो,
तो ढिंढोरा पिट जाता है,
नामाकूल शहर को,
कोई काम नही क्या.....?
तेरी सरपरस्ती में,
गुज़ारी है मैंने,
तमाम उम्र अपनी,
जा तू भी आराम कर,
मुझे भी थोडा सा,
मैं हो जाने दे....।
तूने लगा रखे थे,
खुशिओं के अम्बार,
मुझे थोडा सा,
गम भी गुनगुनाने दे.........।
मैं क्या जानू,
इश्क है क्या...?
बस तेरी बात मानता हूँ,
तुझे याद करता हूँ....!
ये दुनिया न जाने क्यों,
मुझे दीवाना कहती है......?
उलझनों को,
कुछ यूं सुलझाया गया....!
कुछ से कर लिया किनारा,
कुछ को फिर दोहराया गया.....!
तुम्हारी पनाहों में,
गुजरी है, शहाना जिंदगी....!
अब मुझे आज़ाद करो,
कहो, कि तुम,
न बंदिश हो कोई,
न मैं ही कैद में हूँ...!
अब इश्क बाकी नहीं,
बस आवारगी ही आवारगी है....!
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