Thursday, July 23, 2009

ख़ुद को अकेला न लिखो..............

मेरे कुछ संवेदनशील यार दोस्त अपना अकेलापन मेरे साथ बाँट लिया करते हैं और कभी कभी इसी बात पर मैं उनकी चुटकी भी ले लिया करता हूँ...........ऐसे ही एक मौके पर एक कविता भी अस्तित्व में आ गई.........


खुशबू बन,
महकने का जज्बा ढूंढते,
दीवानों का टोटा है.............

खेल के मैदान छोटे,
घर छोटे,
कमबख्त इस शहर का,
दिल भी छोटा है........

रोज़ी छीनते शिकारियों के,
हुजूम यहाँ,
कुछ रोटी भी छीन लेते.....
कुछ मासूमो के जिस्मो से,
बोटी भी छीन लेते..........

सड़कों की नालियों में,
कीडों के मानिंद.........
बजबजाते लोग........

अलसाते निकलते सुबह,
दिन भर की परेशानियों में,
लिपटे सने घर आते लोग.......

मुर्गी, चूजे जैसा इंसान यहाँ,
दडबों जैसे घर,
जिस्मो से अटी सड़कें,
गलियों में,
बाढ़ से उफनते सर.........

इतनी भीड़ है शहर में,
कि दम घुटता है..........

कमबख्त अब कोई शायर,
ख़ुद को अकेला न लिखे.............

Sunday, July 19, 2009

आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

अपनी दबी ढकी उम्मीदों, तम्मनाओं को हम अकेले में उलट पुलट कर देखते रहते हैं, कुछ खुशी दे जाती हैं और कुछ दर्द। कभी कभी कोई ऐसी तम्मना भी टकरा जाती है दुबारा हमसे, जो रुला जाया करती है...............और एहसास भी दिला जाती, कि दिल से इन्हे हम कभी नही निकाल पाते हैं ...............

बस अभी साफ़ ही तो किया था.........?
की ये एक पपडी फिर निकलने लगी,

यादों के घाव फिर रिसने लगे,
मैंने कितना ही सुखाया,

धो मांज के रखा, चेतन को,
पर कहीं अवचेतन की दरारों में........

लगी जंग अब फ़ैल कर, रिस कर,
आ रही है, बाहर...........

अशुद्ध हो जाए मन फिर से,
ऐसी आकांक्षा नही,

और ये रिस रहे ज़ख्म,
उन अधूरी इच्छाओं की जड़ें ही तो हैं,

जिन्हें उखाड़ फेकने की,
कोशिश की थी कभी.............
बिल्कुल दूब के स्वभाव वाली........

हर सावन में हरी हो जाती हैं,
और संग में हर घाव भी,

इतने आते जाते मौसम,
सुखा न सके......

कितने ही शीत और ताप
सह कर जीवित हैं,
ये इच्छाएं, नासूर बन कर.......

अब तक तो मर जाना था इन्हे.........

कदापि मैंने ही आश्रय दे रखा हो ?
कहीं सींचता तो नही रहता ?

बरसों से सोच रहा हूँ.........
आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

Sunday, July 5, 2009

सुई.........

वर्तमान में मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता, मेरे अंतस में खलबली मचाये रहती है.......मैं सोचता रहता हूँ की क्या खो गया है............शायद एक सुई की आवश्यकता है जो मानवता के वस्त्र दे कर सभ्य पशु मनुष्य को मानव बना सके...........


मानवता की खोज में कुछ पथिक,
भूसे के ढेर में, सुई ढूंढते हैं.......

ये जिज्ञासा न जाने कहाँ से आई है,
बड़ी प्रबल है,
न जाने कहाँ ले जायेगी.......

फाउन्टेन पेन से,
मोबाइल फोन तक का विकास.......
पथिकों ने सब देखा....

सभ्यताएं भी कुछ मिटती हुई.......

आतंक और व्यवसायिकता ने,
गढ़ दी है, दोस्ती की नई परिभाषा......

पथिक फिर भी ढूंढते हैं,
इस परिभाषा में, मानवता का तार........

पूरा विश्व देखना होगा,
पूरा ढेर छानना होगा,
शायद सुई मिल सके.......
शायद सभ्यता के वस्त्र फिर सिल सकें........

मानवता की सुई खोई हुई है,

धर्म की दुकाने खोली गई,
सिर्फ़ ये सुई बेचने के लिए,
पर अब यहाँ,
भेदभाव बिकता है,
घृणा सबसे सस्ती वस्तु है,
इस दूकान में.........

पथिकों को आगे जाना है......
मनुष्य को वस्त्र देने हैं.....
सुई बिना तो सम्भव नही.......

विदेशी राजदूत और समझौते,
समझौते पे हस्ताक्षर......
उनका कलम उसी, सुई जैसा दीखता है......

बस दो पल........

पथिकों को समझौते पर सुई नही मिली......

मानव मनुष्य बन रहा है........
उसे नग्नता का आनंद अच्छा लगता है,
और नग्नता का आनंद अच्छा लगता है,
क्या मनुष्य को वस्त्र नही चाहिए.........?

तो क्या पथिक अब न चलें,
सुई की खोज का क्या होगा.......?

बुद्ध, महावीर, गांधी,
पथिक ही तो थे,
उन्हें तो सुई मिल गई थी,
मानवता के वस्त्र पहने थे,
तो चित्रों में नग्न-अर्धनग्न क्यों.......?

नेत्रों का दोष है,
सभ्यता के वस्त्र किसे दिखे अब तक ........?

पथिक बुद्ध या गाँधी नही,
पर सुई तो चाहिए.......
अपने वस्त्र सीने हैं........
उसे भी सभ्य होना है........

पथिक को प्रेम का धागा भी चाहिए......?

एक और खोज.......
सीमित जीवन, अंतहीन खोज.....

वस्त्र अधूरे रह गए,
पथिक को चिर विश्राम करना पड़ा......

सभ्यता की नग्नता,
चिरजीवी....
मनुष्य की पशुता चिरजीवी.......

कुछ और पथिकों को,
ढूंढनी होगी,
मानवता की सुई,
मनुष्य को वस्त्र देने हैं,

नग्न रह कर प्रकृति का रोष,
असहनीय, अन्त्य.......
न सह सकेगा मनुष्य
वस्त्र तो पहनने ही होंगे।

वायु से भी आवश्यक,
मानवता के वस्त्र,
और एक सुई, जो चुभती नही,
सबसे अधिक महत्वपूर्ण.............

दुर्घटना

किसी घटना के लिए क्या कारण उत्तरदायी है......कभी कभी पता नही चलता पर बाद में हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं........वो एक घटना ही हमें अपना और समाज का पूरा प्रतिबिम्ब दिखा देती है........



मैं, ऑटो पे सवार,
जा रहा था, अपने अस्थाई निवास,
ब्रेक और हार्न की,
मिली जुली आवाजों ने,
भंग कर दी तंद्रा,
विचारों ने छोड़ दिया,
कुछ पल के लिए.........

एक विचार न माना,
बोल ही उठा....
क्रासिंग होगी शायद.........

रुका हुआ ऑटो थोड़ा सरका,
फिर रुक गया.......

कुछ जुबाने कह रही थीं,
एक्सीडेंट हुआ है........

मेरी उत्सुकता ने सर बाहर निकाला.....
स्वाभाविक, मानवीय......

दूर तक गाड़ियों की कतारें....
पुलिस के सायरन की आवाज़.......

एक बार फिर देर से..........

डंडा फटकारता एक सिपाही.......

भीड़ छंटी तो एक ढेर दिख गया.......

तुडे मुडे से अंग,
जैसे सिलवटी रेशम......

नए जूते से बंधा एक पैर.....

अधरंगी लाल सफ़ेद चादर से,
बाहर झांकता हुआ.........

और हर दर्शक जूते पे अफ़सोस करता हुआ....

थोडी ही दूर,
उतनी ही टूटी पड़ी,
एक मोटरबाइक.......

कुछ और अफ़सोस,
गलों से निकल, सड़क पर फैल गए.......

सुना तेज़ जा रहा था,
ट्रक से टकरा गया........

कोई बोला, ट्रैफिक भी तो हैवी है........
हाँ..........सिग्नल भी ख़राब है........
प्रशासन ही मुर्दा है साला..........

बात मुख्यमंत्री पर आ गई......
मुर्दाबाद के नारे,
न जाने कब गाड़ियों के बीच आ गए.......

फिर सब ठीक हो गया.......
पुलिस आ गई थी न.........

सुबह अखबार ने बताया.......
वो ट्रक,
वो सिग्नल,
वो ट्रैफिक,
वो प्रशासन
सब बाइज्ज़त बरी हो गए.........
पता चला शराब दोषी थी......
बाइक वाले में छुपी थी.......

फरार हो गई, बह गई,
लाइसेंसी दुकानों में छुप गई,
अंग्रेज़ी और देशी का रूप धर कर.......

मैं सोचता रह गया.....
ये दुर्घटना कल नही हुई थी.....
उस दिन हुई थी जब,
मदिरा का अविष्कार हुआ था........

Saturday, July 4, 2009

ये कैसा न्याय...............?

कई पाठक सामिष भोजन करते होंगे, यह कविता कोई उपदेश नही क्योंकि हो सकता है विचार न ज़मे, कभी मैं भी सामिष का शौकीन था पर अब शाकाहारी हूँ, इस घटना के बाद से ही एक जीव की जान न लेने का प्रण कर लिया..............


कुछ कड़वी यादों को स्टेशन पर छोड़ कर,
लौट रहा था,
वक्त रेंग रहा था, सांप जैसा........

सड़क किनारे, ठेले को घेरे खड़े लोग,
एक कुत्ता, और दूर एक बिल्ली भी.........

ठेले के पास कटे पंजों.....
खून सने पंखों का ढेर......

कुत्ता और बिल्ली दोनों अधीर,
कुछ टुकडों की प्रतीक्षा में,
जो बस गिरने ही वाले थे...........

मैंने ठेले को देखा,
कुछ रुई के ढेर, सिमटे, डरे सहमे.......

वही..........

ब्रीड वाली मुर्गी.........

शायद भविष्य जानते थे अपना,
तभी तो टाँगे छुपा रखी थी.......

डरे हुए बच्चे की तरह.........

एक आवाज़ सुनी.........मांस काटने जैसी...........
लगा वो हथियार मेरी गर्दन पे चला है.........
मैंने आँखें मूँद ली......नज़र चुरा ली.........

पर उस आवाज़ ने अनसुना कर दिया मेरा विरोध,
आ कर कानों से टकरा ही गई.......

एक चीख़ जो निकल ही नही पाई,
उस रुई के ढेर की तो ज़बान ही नही थी.......?
तो चीखा कौन.....?

मेरा मन...........?

ढेर ने किसी को पुकारा...........आओ बचा लो मुझे.......!
क्या मुझे...........?

शायद मैंने सुना था.......
पर वो भीड़ क्यों न सुन पाई जो घेरे खड़ी थी,
उस ठेले को.........?

मैं मुह मोड़ कर चल दिया............
ढेर बोला.........मुझे ज़बान नही मिली.....
वरना चीखता पुकारता.......

ईश्वर को.............

जो उतना ही मेरा है,
जितना मनुष्य का..........

पर ढेर पुकार न सका,
सर्वशक्तिमान को,

होता.........

तो सुनता न..............

उसकी घुटी हुई चीख़............

दोष तो रुई के ढेर का ही है,
उसने छुपा रखा है कुछ सुर्ख.....
अपने भीतर.........

गोश्त............

जो इंसान को..........

नही.....! मनुष्य को.......

कुछ ज्यादा ही पसंद है....?
या शायद शौक है..........?

बिल्ली, कुत्ते की प्रतीक्षा समाप्त.....!
कुछ फड़फड़ाया, फिर शांत.........

रुई का ढेर या मेरा अंतस..........
एक एहसास जिसे लिख नही पाया,
बस वितृष्णा के साथ सुना और महसूस किया........?

एक असफल चीख़, दो थरथराते पंजे,
एक कटा गला, और परों पे बहता सुर्ख लहू........

रुई के ढेर रंगीन होने लगे,
उनके उतारते कपड़े.....वो दो हाथ.......

लगा मेरे ही हैं...........!
कारण भी तो मैं था............?

चेहरे पे विजय भाव,
जैसे कसाई ने जीत ली जंग,
अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़
मुर्गियों को हलाल कर के..........!

कुछ पर और गिरे,
कुछ अतड़ियां और निकलीं........

हलाल चिकन तैयार था.........

किसी मनुष्य की जिव्हा का स्वाद बढ़ाने को,
एक जानवर दूसरे का भोजन बन जाने को........

प्राकृतिक होता तो दोष ईश्वर की ऋचा में था,
पर ये कैसा न्याय...............?

एक का पेट भरे, स्वाद आए,
दूसरे की जान जाए..................?