Wednesday, July 30, 2008

और अधूरी है एक कविता..........


कठिन है, आज भी.............
तुम्हे शब्दों की सीमा में बाँध पाना,

कभी कभी प्रयास करता रहता हूँ...........
निरर्थक रहते हैं,
कदाचित सम्भव होता..............
विश्व भी तुमसे परिचित होता।
मेरा विश्व.........

आज फिर कविता को उकसाया.......
आगे बढे, बाँध ले तुम्हे,
पर इसके शब्दों का बाहुपाश छोटा है.............
फिर से आज.......
फिर न बाँध सकी, आज........
और अधूरी है, एक कविता...................


निरर्थक = meaning less, कदाचित = perheps, gosh, उकसाया = encouraged, बाहुपाश = arm grip

Monday, July 14, 2008

कोई नही..................

कहने को तो सब हैं,
सुनने को कोई नही......

धागे बिखरे हैं दोस्ती के,
रिश्ते बुनने को कोई नही............

सब आते हैं, शब्दों के मोती बिखेर चले जाते हैं,
पर बीनने को कोई नही...........

इस आसमान पे चाँद बन, चमकना हैं सब ने,
पर सितारे भी गिनने को कोई नही.................

सुनो तो मिल लो मुझसे, वरना करना क्या,
बस यूँ ही मिलने को कोई नही................

कांटे बन चुभ कर एहसास दिलाएं दर्द का सब,
बिखरने को फूल बन महकने को कोई नही.................

कहने को तो सब हैं पर सच में अपना कोई नही……….

Saturday, July 12, 2008

विजयश्री कामना............

विजय कामना तो आदि विचार, जीवन परिवृत्त,
सांसारिक परिचालन का आवश्यक निमित्त............

यही मेरी भी प्रेरणा, यही पीड़ा भी,
कभी गतिरोध बन जाती,
कभी मनोरंजक क्रीडा भी................

"विजयश्री कामना" भी,
बड़ा अप्रत्याशित व्यवहार करती है,
कभी हृदयशूल बन जाती,
कभी औषधि बन उपचार करती है.....................

थक जाऊं तो उत्साह देती,
विचारों, योजनाओं का प्रवाह देती,
प्रतिज्ञा बन जाती, अनुरोध बन जाती है,
कभी संबंधों का गतिरोध हो जाती है............

विजय कामना के, और जीव कामना के वश,
युगों से रची बसी, जीव के अंतस
यह "कामना विजयश्री"...............

Friday, July 11, 2008

वो तीन साल की बच्ची........

सब बच्चों के संग, पर थोडी से अलग,

वो फूल सी बच्ची, कुम्हलाई सी..............
गंदे कपडों में लिपटी,

एक फटा बैग कंधे पे टांग,
सड़क किनारे खड़ी रहती है,

और मैं बालकनी में उसी वक़्त.............


सिलसिला हफ्तों चलता रहा,

मैं उस से यूँ ही रोज़ मिलता रहा............


बस आती, बच्चे चले जाते,

पर उसे अकेला छोड़ कर.......................

न जाने बच्चों को या बस को,
देर तक हाथ हिला, विदा करती रहती..........
फिर थके से कदम उसे घर खींच ले जाते.............


बस जाने के बाद, उसके मुड़ने से पहले,

एक रोज़ मैं उसके पीछे खड़ा था.......

घूमी तो गाल थपथपाए, शरारती आँखे मुस्कुरा दीं............

बोली गुड मार्निंग अंकल,
मैंने नाम पुछा, बोली 'शबनम'.....

स्कूल नही गई, मैंने पुछा, तो सर झुका लिया उसने,

एक राज़ दिल में और एक आंसू आँख में छुपा लिया उसने........

फिर हौले से सर उठाया, बोली लड़की हूँ न.........

लड़की स्कूल नही जाती.......


और पापा, जूते सिलते हैं, तो पढने को पैसे नही हैं.....

कुम्हलाई सी वो तीन साल की बच्ची,

अब सिर्फ़ मुस्कुराती है,

रोज़ मेरे पास पढने आती है............

Thursday, July 10, 2008

विशिष्ट बच्चा

हाथ छू कर कैसे खुश हो जाना,

ये मैंने उसी से जाना........
सीढियों पे घंटों मेरी प्रतीक्षा,
दूर से देख कर बुलाने की कोशिश,
वो बोल नही सकता,
पर आँखें सब कहती हैं,

जी भर बातें करना चाहता है,
सीधा नही उठा सकता पर,

हाथ मिलाना चाहता है,

अपनी पतली कमजोर टांगों को,
इरादे की ताकत दे कर,
ख़ुद को खड़ा कर लेता है ख़ुद ही,
दीवार से ज्यादा उसकी हिम्मत है सख्त,
तो सहारा देती है.........

मेरे हाथ को पकड़, अस्पष्ट शब्दों में,
सारी खुशी, स्पष्ट कर देता है..........
प्यार के सिवा कुछ और न दे सका मैं उसे,

मेरी कालोनी में एक "विशिष्ट बच्चा" रहता है...........

वह हिन्दी है...............

संग संग चली जाती थी,
बरसों का मेरा साथ,
कुछ दिनों से उसे उदास देखा करता हूँ.......

कहती है, सब को बड़ा अभिमान था,
मैं न निभा सकी, न चल सकी,
समय के साथ..........
मेरा भी यौवन जाता सा लगता है........!

ये परिवर्तन तो सार्वभौम है,
बस इतना ही कह सका, उस दिन.......

प्रकृति अनुरूप सरल शब्द कह
धीरे धीरे चली गई.........
फिर मिली एक दिन,
बोली.......
मेरी सौतने आधुनिक हैं,
और मेरी भावना शायद थोडी जटिल.......

तो क्या समाज और मेरा प्रेम
कम होने का यह कारण उचित है........

प्रत्युत्तर में शब्दों का अभाव था,
मैं मौन रह गया, फिर से एक दिन...........

मेरी अधर-प्रिया थी,
अब भी कभी कभी, मिलती है अधरों पर.........
पर अधरों का साथ छोड़,
मेरी लेखनी की सहभागिनी है...........
वह हिन्दी है...............

प्रकृतिपालक/प्रक्रतिहंता

न ताप आतप ही रोक सका,
न वृष्टि से विनाश,
न सार्थक हो सके
न सफल मानव प्रयास.......

प्रकृति तो अप्रतिम, अतुलनीय,
मानव काया कोमल, कमनीय.......

मूढ़ है मानव, युगों से मदांध,
न समझा प्रकृति से,
ईश्वर का अप्रत्यक्ष सम्बन्ध.......

धर्म रटा तो सही, पर समझा नही,
समझता तो वट अब भी पूजे जाते...
तुलसी, कुलमाता......
पीपल, कुलदेव कहलाते.........

प्रकृतिपालक ने रची प्रकृति,
उत्तरदायित्व मिला मानव को.........
भाव मिले, विशेष अंग मिले,
जीवन के विशिष्ट रंग मिले,
पर न समझ सका उदारता, परमपिता की........

प्रकृतिहन्ता बन होड़ लेने चला,
सर्वशक्तिमान से,
दृष्टिविहीन मूढ़ खड़ा है तन कर,
बड़े अभिमान से..........

प्रकृति का दोष क्या, जो नष्ट हो,
मानव की यह इच्छा है,
प्रलय, परमात्मा की सेविका को,
आदेश मात्र की प्रतीक्षा है..............

समय है अभी भी,
मानव भूल सुधार ले........
घर-बाहर, मन-मस्तिष्क बुहार ले.........

Friday, July 4, 2008

एक तमन्ना ऐसी भी.................!

बस अभी अभी तो,

वो बहला कर गए हैं,

और फिर मन उदास हो चला,

दिन भर उनकी प्रीत संग रही,

फिर उनके बिन दिन ढला............

ओ बदलियों, न छेडो अभी,

अभी भरा भरा है मन,

अभी न सुलगा आग ह्रदय की,

ठहर जा ऐ पगली पवन.........

सपनो का घर मुझे बनाने दे,

साहिल तू ही रोक ले लहरें, दो पल

बस उन को आ जाने दे...........

एक और मिलन हो जाने दो, ऐ सूनी वादियों,

मैं सौंप दूँगा ख़ुद ही, तुम्हे ख़ुद को,

फिर मिल जाऊँगा मैं, ज़र्रे ज़र्रे में,

बेहिचक समंदर की बाहों में उतर जाऊंगा............

बस ह्रदय ही मेरा..............!


संगिनी कहूं, या संग नही कहूं,

उचित है कुछ भी न कहूं............


अपेक्षा ही तो है, हम दोनों के मध्य,


सारी समस्या का मूल, बस यही एक तथ्य...........

फिर सत्यवदन का पुरूस्कार मिला,

संसार भर से तिरस्कार मिला,

अब बोलने से पहले, सौ बार सोचता हूँ मैं,

स्वयं को, स्वयं से भी सत्य कहने से रोकता हूँ मैं.............

जब से मन के संबंधों पे धूल जमी है,

हम दोनों की आंखों में नमी है.........

न मैं कहता हूँ, कुछ, न ही वो.......

पर दोनों की आंखों में प्रश्न होते हैं,

फिर यूँ समझाते हैं एक दूजे को,

की साथ बैठ कर रोते हैं,

सारा जहाँ जब एक तरफ़

हो कर मुझे परखता है,

बस ह्रदय ही मेरा,

मुझे समझता है...................

Wednesday, July 2, 2008

न जाने कौन बदला..............?

खोने की फ़िक्र न थी, न पाने की......

बस कर दिया जो दिल ने कहा।

शीशे सा साफ़ जेहन,

माया से अछूता एक मन।

पर दुनिया विपरीत खड़ी थी,

मेरे समक्ष हमेशा समस्यायें बड़ी थीं।

कुछ यूँ था के....................

जो दिल में था, वो होठों पे था।

और उन दिनों मैं मुश्किलों में था।

फिर दुनिया बदली,

और मैंने अपने तरीके................

आँखें मूँद लीं,

होठ सी लिए,

अव्यवस्था पर आपत्ति न की...............

कड़वे घूँट पी लिए.........

अब दिल में हजारों राज़ छुपा रखे हैं,

अपने कई रूप बना रखे हैं।

हर इंसान से मिलता हूँ, जैसे "वो" चाहे............

बोलता हूँ, "वो" जो दुनिया सुनना चाहे...........

दुनियादारी आ गई मुझे भी।

तो सपनो सा सजा रखा है।

अब उसी दुनिया ने पलकों पे बिठा रखा है.....................