Friday, April 16, 2010

यूं एक सिरे के रिश्ते पे,
यकीं किसको हैं..........

कहने को तो सबकी अपनी अपनी,
पर सच में सरजमीं किसको हैं................

तुम उसके हो चले आखिर,
ये खुशफहमी किसको हैं............

Wednesday, April 14, 2010

एक और घाटी........

हम तो दरिया हैं..........
हमें अपना हुनर मालूम हैं........

तुम कहते न थकते थे........

मुझसे हो कर बहते रहे,
अपना हुनर दिखाते रहे.........

हर उस तूफानी बारिश को,
महसूस किया मैंने.............

जब तुम मेरे अस्तित्व में,
अचानक आ जाने वाली,
बाढ़ जैसे आते रहे, जाते रहे..........

कितने ही ख्वाबो के दरख़्त,
तुम्हारी उग्र धारा को,
समर्पित कर दिए...........

तुम हर बार..........
एक नए आवेग को ले कर,
उफनते, गरजते आते रहे..........

सहमी हुई वादी जैसा,
मैं बस देखता रहा........
कुछ और दरख्तों को,
फना होते...............

कितनी ही घाटियों को,
जन्म दिया हैं तुम्हारे,
उग्र आवेगों ने.........

मेरे अस्तित्व की,
ज्यामिति को नाप जोख कर,
यूं बेडौल किया हैं........
कि पथरीली घाटी में,
उर्वरता दुर्लभ ही हैं...............

बेमौत मारा जाए,
ये सोच, नया कुछ.....

मै उगने नहीं देता,
पुराने तुम रहने नहीं देते............

ये बंजर वीरान घाटियाँ,
हर शाम तुम्हे याद करती हैं...........

अपने अँधेरे सन्नाटे को.........
कम्बल बना कर,
खुद से लपेटे उदास पड़े पड़े......

फिर से किसी उग्र आवेग के,
आगमन की प्रतीक्षा में..........

के तुम आओगे,
एक और दरख़्त को ले जाने,
एक और घाटी को, जन्म देने..............

Thursday, April 1, 2010

पतन.............

लोग कहते हैं,
मैं दिन ब दिन......!

गिरता जा रहा हूँ,
मेरा पतन हो रहा हैं........!

क्या कहू.......?

यही की......

एक रोज़ बेदर्दी से.....

तुमने मेरे कदमो तले,
ज़मीन निकल दी थी.....

I hate you,
I dont want to see you again.....

याद हैं न............?

मैं अपराधी हूँ...........?

बताओ.............?

गिरू न तो क्या करू....?

गूँज................

जब तोड़ देते हो,
विश्वास एक दूजे का.....!

भूल जाते हो धरम, ईमान,
अपना पराया...........!

बहा देते हो खून,
पानी की तरह........

क्या तब भी एहसास नहीं होता?

सर्वश्रेष्ठ कृति होने का..........!

संवेदना का प्रदर्शन जब,
तुम्हारे लिए.......
सबसे सुगम हैं........!

क्यों तब भी विश्व-रचना का,
कारण समझने का,
प्रयास नहीं करते.........?

शुक्र हैं, मुझे तंत्रिका तंत्र,
नहीं दिया, दयावान ने............!

एक बूढ़े बरगद की,
मूक वाणी........!

एक बधिर पाखंडी से,
टकरा टकरा कर गूँज रही थी..........!

ढेरी फोड़.......

ढेरी फोड़, खेल था......

बचपन में,
कंकडों की मीनार बना.....

दूर से गेंद मार फोड़ देते थे,
हम यार दोस्त...........

मीनार पत्थरों की थी,
गेंद कपडे की.............

खेल अब भी वही हैं.......

पर शब्दों की बनी गेंद,
तुम्हारे हाथ हैं.............

मीनार की जगह मैं,
कई सालों से खड़ा होता हूँ.........

तोड़ते हो...........संवार देते हो........
फिर तोड़ते हो.......फिर संवार देते हो..........

हमारा खेल, सांझ ढले.....
चुक जाया करता था...........

तुम्हारा कब तक चलेगा............?

अहमियत.............

तुम्हारी कोई अहमियत नहीं,
तुम कह कर क्या चले गए..........

कमबख्त ये लफ्ज़ 'अहमियत'
बड़ा अहम् हो गया हैं........

हर शै की अहमियत तलाशता,
फिरता हूँ कुछ रोज़ से............

कोकून....

क्यों देख लेते हो वो,
जो न कभी था, न होगा......?

क्यों सुन लेते हो वो आवाजें,
जो कभी जन्मी ही नहीं........?

क्यों तिलांजलि देते हो,
अपनी इच्छाओं की....?

जानता हूँ............!

अभिनय की ऊचाईयां पायी हैं......!

ख्यालों और बद्ख्यालों के,
रेशमी धागों से,
बुन रहे हो ये जो,
अपनी खुद की क़ैद............!

डरता हूँ...........!
दम न घोंट दे तुम्हारा....!

तुम्हारा ये स्वरचित कोकून.........


क्या यकीं हैं तुम्हे....?
की एक रोज़ तितली बन कर,
निकल ही आओगे............!

फूलों को उनकी अहमियत बताने........!

तुम्हारा एक सुनहरी,
रेशमी धागा मुझसे भी जुड़ा हैं,
और एक गुलाब मेरे पास भी हैं..............!

कोकून से बाहर निकलोगे,
तो याद आ ही जायेगा......!

तुम नारियल हो गई हो,

पवित्र, पावन, श्वेत हृदय,
शुष्क, सूनेपन में क़ैद कर....

तुम नारियल हो गई हो............