दुकाने खुली हैं……
सौदागरों से मिलते हैं…
पहचान लोगे वो दूकान....
आर्थिक कड़ाही में,
उबाल कर राजनीति का,
मुलम्मा चढ़ा कर,
चौथे स्तम्भ की लकड़ी से बने
तख्ते पर रखा हो...।
लालच के साथ
गड्डमड्ड कर के
स्वार्थ का तमाशा नहीं बनाया जाता
पोस्टमार्टम हो रहा हो
तुम उनके ही ग्राहक हो...
इस से निर्लिप्त आगे बढ़ना।
गुदड़ी बनी बुढ़िया को,
व्यापारिक कौव्वे
तिल तिल नोचते दिखें।
एक बुढ्ढा आदमी
बंजर आँखों से उम्मीद के बादलों की
झूठी कहानी सुनाता हो
व्यवस्था की तरह
वह भी अव्यवस्थित हो चूका है
जहाँ देसी विदेसी नथों का
बाज़ार होगा।
लुभाएंगी......
वो खुद बहकाये जाने की
शिकायत करती देखी गयी हैं अक्सर..।
आटा भर लेना सामने रखे बोरे में से
जिसमे से पसीने और लहू की
सड़ांध तुम्हारे नथुनों को
चीर देने का माद्दा रखती हो...।
अपनी कोख में समेट कर
महसूस करना
किसी गाँव में सूखा पड़ा खेत
और एक किसान की
ठंडी फ़िज़ूल पड़ी देह की गर्मी...।
उस लाश से....
काले से पत्थर को ठोकर मार
रास्ते से दूर हटा देना
खुल कर कुपोषित
चमार के लड़के में बदल जाए
उस लाल पानी के फव्वारे को देख
जो एक हिन्दू की गर्दन से निकल
मुसलमान की
गर्दन में समा रहा हो..
न रहा अब।
मन भर एहसान करना
रत्ती भर इंसान ले आना...।