Thursday, June 19, 2008

न करूंगा अन्याय कविता से

मुझ पर भी कोई कहे कविता,
चाहा था मैंने भी।
पर योग्य न समझा लोगो ने,
मुझ में भी तो धड़कन है,
और तड़पता प्रेम,
फिर क्यों मुझसे ही रूठे सब कवि,
बस यही सोच उद्विग्न बहुत था,
ह्रदय कह उठा भीतर से,
बस बहुत हुआ, अब कलम उठा लो..............

पंक्ति-पंक्ति पर मैंने अपना रोष निकाला
दिल में भरा गुबार था, सब कह डाला,
फिर मुझको ये बोध हुआ,
मुझसे भी अपराध हुआ।

"कुछ" कहने के प्रयास में,
जाने क्या क्या कह डाला।

अनगढ़ हूँ पर फिर भी,
मैं रहा निरंतर जूझ,
शायद बड़ी यही थी चूक,

कुछ "अनमोल रतन" काव्य के
मेरे मार्ग-दीप,
बने प्रेरणा स्रोत,
पर ना मिल पायी वो प्रतिभा मुझको,
न ही शब्दकोष।

अपने काव्य का स्तर जान,
जब हुआ सत्य से परिचय
अब और न करूंगा अन्याय कविता से,
लिया है अन्तिम निर्णय।

इस बाज़ार में शोर बहुत है......

भीड़ ज्यादा हो तो बेचारे बछडे,
मेढ़े के भाव भी नही चढ़ पाते,

सोचता हूँ मैं भी दूकान समेट लूँ...........
इस बाज़ार में शोर बहुत है।

Saturday, June 14, 2008

साढे पाँच फुट की दीमक

दीमक, पीली, रत्ती भर की भी नही,
लकड़ी चुगते देखता था,
बच्चा हुआ करता था..........

कुछ वैसा ही अब देखा,
जब संवेदनशील आँखें खुली हैं,
साढे पाँच फुट की दीमक.......

सफ़ेद खद्दरधारी दीमकों की,
इम्पोर्टेड कारें,
इन्ही आंखो के आगे से गुज़रती हैं....

काले जेहन वाले सफेदपोश,
भ्रष्ट सोच और धूर्त आँखें,
दिन भर उद्घाटन यहाँ वहाँ,
फिर इन्तिहाई काली रातें......

हर कोने में मेरे देश को खोखला करतीं,
इन दीमकों के आका,
पार्लिआमेंट में मिलते हैं सिलसिलेवार,

तय करते हैं, की कैसे देश को, मिल बाँट कर खाना है और,
पेंशन, सरकारी भत्ता बढाना है और...........

इनकी नई पौध गरीबों की कमाई पर,
विदेश जाया करती है,
नई तरकीबें सीख कर,
पुश्तैनी धंधे में में लग जाया करती है.............

इन दीमकों ने,
हिन्दुस्तान के दिल में,
जमा रखा है अड्डा.......
और एक फिक्र नें मेरे दिल में...........

ना जाने कल,
मेरे भूखे हिन्दुस्तान का,
ये क्या हाल करेंगे,
बेच कर अपनी ही माँ,
माइक्रोसाफ्ट को मालामाल करेंगे..........

काश मैं हर बेईमान नेता की,
मौत की वज़ह बन सकता,

भले ही आप मुझे आतंकवादी ठहरा देते,
आजाद देश का गुलाम क्रांतिकारी,
होने की सज़ा देते.....

Friday, June 13, 2008

किसने की ?...........

घर तो सबने सजाया,
जेहन को प्यार के
एहसास से सजाने की कोशिश किसने की?.........

बात चुभती थी दिल में,
मैं चुभ जाने दी............
कि अपनी राह का पत्थर
तो सभी हटाते हैं,
सड़क का पत्थर........
हटाने कि कोशिश किसने की?.............

ईश्वर की रचना में भी निकाल दे कमी,
वो फितरत इंसान की,
उसी नज़र की कसौटी पर,
ख़ुद को आजमाने की कोशिश किसने की?................

मेरी हर बात पे बजती है ताली,
हर लाइन पे वाह वाह,
मेरी खता बताने कि कोशिश किसने की?..........

यूँ ही ढकी रहने दो........

कालोनी के बगल में, कूड़े का ढेर...
जिस पर उगा था कोई पेड़,
एक दिन नज़र पड़ी,
करीब जा कर देखा, गुलाब था............

चीथडों, प्लास्टिक और,
सब्जी के छिलकों से ढका...
ना जाने क्या दिल में आया........
तो एक प्लास्टिक को,
हटाने की कोशिश की....

उसने हलके से हिल कर॥
एक काँटा चुभा दिया, शिकायत की, शायद..........
जैसे कह रहा था.........

मैं गरीब, बेसहारा, "माँ" हूँ।
यूँ ही ढकी रहने दो,
दामन में कुछ कुछ गुल छुपा रखे हैं,
दुनिया की नज़र में उजागर ना हो,
तो बेहतर......

वरना ये मेरी बेटियाँ, मेरे बेटे,
किसी शाह के हरम की क़नीज़,
या शहजादी का खिलौना बन जायेंगे....
कहीं क़दमों तले बिछ जायेंगे......

अपनी ऊँगली सहलाता मैं,
कमरे पे चला आया,
कल गुज़रा था उधर से,
तो उस माँ की लाश पड़ी देखि.........

उसके बेटे, बेटियों को लूट ले गए थे,
जो ख़ुद को कहते हैं,

इंसान,

मैं कहूं तो सभ्य "पशु"................

यूँ समझते हैं....

दोआबा की सर्दियां,
नवम्बर की वो धुंद,
जिन्होंने नही देखी,
वो यहाँ, गर्द-ओ-गुबार को,
सुहाना मौसम कहते हैं.....

पैसा मेरी खातिर यहाँ...
मसाइल-ओ-ज़द्दोज़हद है,
वो मरहम समझते हैं......

रात पार्टी थी, लोधी गार्डन में,
बीयर जमी है, घास पर,
शबनम समझते हैं..............

यहाँ अंग्रेज़ी, फ्रेंच,
बोलते हैं फर्राटेदार,
इंसानियत की बोली,
कुछ कम समझते हैं.....

चीजों से दिल लगा बैठे हैं,
पर क्या हमसफ़र को भी,
कभी हमदम समझते हैं............

पहाड़ सा शहर

कंक्रीट के पहाड़ सा शहर,
जिसमे धँसे हैं, कुछ गिने चुने दरख्त....
इसी पहाड़ पर रेंगते हैं,
कुछ मशीने, कुछ इंसान
जहाँ इंसानों के दिल........
पत्थर से भी सख्त

रईसों की कोठिआं,
उनकी तस्वीर-ऐ-रुतबा हैं,
गरीब फुटपाथ पे सोता है,
गरीबी को ले कर ख़ुद से खफा है....

क्या रईस क्या मुफलिस,
सब की पेशानी पे लकीरें हैं,
कुछ की एक नंबर की कमाई,
कुछ की दो नंबर की तदबीरें हैं.....

ये होटल ताज जो बना है..
ज़र्रा ज़र्रा जुड़कर,
मुझे ठिगना कहता है,
पैसा है अब दूसरा खुदा,
एहसास दिलाता है.....

कंक्रीट के इसी जंगल में अपने जैसी...
बस एक और जिन्दगी तलाशता हूँ शाम-ओ-सहर...
दो साल से प्यासा रखे है,
ये मुर्दा शहर,
कंक्रीट के पहाड़ सा शहर...........

Wednesday, June 11, 2008

बेघरों की रात

अपना घर छोड़ कर गावं से शहर आए दो मजदूर दोस्तों
की एक रात तिरपाल की छत तले कुछ यूँ गुज़रती है................

चूर चूर हुआ जाता है बदन
गारा चूना ढो ढो कर गुज़रे हैं
जो सहर-ओ-दिन

दिहाड़ी है हाथ में
तो ख़ुद खाएं या
बीमार बच्चे के लिए बचाएँ
चल आज फिर आटा घोल ले यार
पेट भर जाए
नींद तो आ ही जाए

फटी तिरपाल की छत को
शब ढले आशिकी सूझी है
हवा संग अठखेलियाँ करे तो करे
क्यों हम मजदूरों की नींद हराम करती है

फटी कमीज़ की जेब में एक फोटो पड़ा है
निकाल दे यार
कभी मेले गया था, बा-कुनबा

याद कर लूँ अपनी जवानी
और आज फिर से एक बार दिल जला ले यार
मैं देख लूँ बेटे को..........यहाँ अँधेरा बहुत है.................

Tuesday, June 10, 2008

हालात यूँ ही बदलते रहे........
तो किस्मत एक रोज़ उलझ ही पड़ेगी,
पिघलता रहेगा दिल बर्फ बन बन कर,
और इस गुज़रते वक्त को.......
पल पल अपनी जवानी देता हूँ मैं...

घुटनों पे झुकती हैं, आरजुएँ
दो पल और जिंदगी मांगती हैं...
अपने अश्क पिला देता हूँ....
फिर टूटे हुए ख़्वाबों की,
ख़ुद को निशानी देता हूँ मैं.....

जानता हूँ कि कट ही जायेंगे कल....
फिर भी दरख्तों को पानी देता हूँ मैं,
जिंदगी मांगती है मुझसे तो.....
हर रोज़ नई कहानी देता हूँ मैं............