Friday, June 13, 2008

पहाड़ सा शहर

कंक्रीट के पहाड़ सा शहर,
जिसमे धँसे हैं, कुछ गिने चुने दरख्त....
इसी पहाड़ पर रेंगते हैं,
कुछ मशीने, कुछ इंसान
जहाँ इंसानों के दिल........
पत्थर से भी सख्त

रईसों की कोठिआं,
उनकी तस्वीर-ऐ-रुतबा हैं,
गरीब फुटपाथ पे सोता है,
गरीबी को ले कर ख़ुद से खफा है....

क्या रईस क्या मुफलिस,
सब की पेशानी पे लकीरें हैं,
कुछ की एक नंबर की कमाई,
कुछ की दो नंबर की तदबीरें हैं.....

ये होटल ताज जो बना है..
ज़र्रा ज़र्रा जुड़कर,
मुझे ठिगना कहता है,
पैसा है अब दूसरा खुदा,
एहसास दिलाता है.....

कंक्रीट के इसी जंगल में अपने जैसी...
बस एक और जिन्दगी तलाशता हूँ शाम-ओ-सहर...
दो साल से प्यासा रखे है,
ये मुर्दा शहर,
कंक्रीट के पहाड़ सा शहर...........

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