Friday, June 13, 2008

यूँ ही ढकी रहने दो........

कालोनी के बगल में, कूड़े का ढेर...
जिस पर उगा था कोई पेड़,
एक दिन नज़र पड़ी,
करीब जा कर देखा, गुलाब था............

चीथडों, प्लास्टिक और,
सब्जी के छिलकों से ढका...
ना जाने क्या दिल में आया........
तो एक प्लास्टिक को,
हटाने की कोशिश की....

उसने हलके से हिल कर॥
एक काँटा चुभा दिया, शिकायत की, शायद..........
जैसे कह रहा था.........

मैं गरीब, बेसहारा, "माँ" हूँ।
यूँ ही ढकी रहने दो,
दामन में कुछ कुछ गुल छुपा रखे हैं,
दुनिया की नज़र में उजागर ना हो,
तो बेहतर......

वरना ये मेरी बेटियाँ, मेरे बेटे,
किसी शाह के हरम की क़नीज़,
या शहजादी का खिलौना बन जायेंगे....
कहीं क़दमों तले बिछ जायेंगे......

अपनी ऊँगली सहलाता मैं,
कमरे पे चला आया,
कल गुज़रा था उधर से,
तो उस माँ की लाश पड़ी देखि.........

उसके बेटे, बेटियों को लूट ले गए थे,
जो ख़ुद को कहते हैं,

इंसान,

मैं कहूं तो सभ्य "पशु"................

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