Tuesday, June 16, 2009

तम्मनाएं.............

बुझी बुझी सी शाम में,
यादों की सूखी लकडियाँ,
छिड़का करता हूँ.........

इस उम्मीद में,
की कोई तो लौ उठेगी.....

कुछ तो रौशनी होगी,
थोड़ा तो बदन तपेगा.........
और कोई तो एहसास बचेगा..........

कमबख्त ये सर्दी,
जिन्दगी बुझाने में लगी है.......

तुम आओ, तो बदन पे,
कुछ तम्मनाएं सेंक लूँ..........

तुम्हे जी भर,
बस एक नज़र देख लूँ........

क्या पता, जिस्म की ये अंगीठी,
दुबारा जले न जले.......

और मुझे शिकवा रह जाए..........

क्यों न मैंने आग दे दी,
अपने अरमानों को............

आग............

कुछ चमकीले से बदन,
कुछ रेशमी सी बाहें.....
मेरा दिल जला देती हैं........

जुनूनी बना देती हैं,
मेरा चैन-ओ-सुकून छीन,
बेदर्द सज़ा देती हैं...............

सुर्ख रेशमी होठों के प्याले,
छलकते हैं, रोज़ मेरे आगे........
लुभाते हैं, बुलाते हैं.......

छलावा मान के,
बचता आया अब तक............

पर तुमसे मिलकर,
ख़ुद पे काबू नही.........

वो बे परदा रातें कुछ,
कुछ बे पैरहन दिन.......


मेरे जेहन को मथते रहते हैं,
मेरी तमन्नाओं को,
और तीखा बना कर...............

अब बदन की,
गीली सी लकड़ी से..........

धुंआ उठने लगा है,
भीतर कुछ सुलगने लगा है...........

इस से पहले,
की आग कुछ ज्यादा ही,
सुलग जाए..........

क्यों न एक और,
बेपर्दा रात हो जाए.........

Monday, June 15, 2009

कीडा..............

नफरतों की नई शक्ल, नया ज़ज्बा है, पर दुश्मन वही पुराना शहर है.........


शराबी है ये शहर,
मैंने देखा है........

लुढ़के से कुछ जिस्म,
डगमगाते कुछ कदम.......

घर का रास्ता पूछते,
मिन्नतें करते,
गिडगिडाते, वाइज़ के आगे........

घर का रास्ता पूछते........

फिर होश में होने का दिखावा,
वो सारी कवायदें,
सारी हरकतें, बेवकूफाना.......

ख़ुद को दगा देते,
शराबियों का शहर......

कीडों का शहर,
नालियों का शहर........

दगाओं का, बेईमानियों का,
इंसानों के आसामियों का शहर.........

नफरत हो चली है,
चिकनी सड़कों से.......

जो रोज़ भुला देती हैं,
की मैं, कच्ची धूल भरी.......

पर सोंधी महक वाली......
पगडंडियों का मुसाफिर....................

यहाँ नाली का कीडा हूँ.............

दो पल सुकून के लिए..................

दिल की खलिश जब पूरे शबाब पे निकलती है तो लफ्जों का तरन्नुम बदल जाया करता है तल्खी में, दौर-ऐ-तन्हाई का बयान-ऐ-दर्द-ऐ-दिल यूँ हुआ.........


जेहन में रेंगते,
अतीत के कुछ पल,
कीडों की मानिंद,
बाहर निकल रहे हैं............

एक सस्ता सा कलम,
कीडों को उठा उठा कर,
रख रहा है, कागज़ पे........

सालों से ये कीडे,
मुझे कुतर रहे हैं.....

मेरे भीतर का सब कुछ.........

कुछ बासी गन्दी यादों में,
पलते रहे ये घुन....

जिन्हें बस कुछ साल लगे हैं,
मुझे खोखला करने में,
थोड़ा थोड़ा, रत्ती रत्ती.........

और हर रात मार देती है मुझे,
पड़ा रहता हूँ किसी ठंडी लाश के जैसा.......

ख्यालों के बूढे, डरावने,
गिद्ध रोज़ नोचते हैं,
मेरे जिंदा जेहन को............

कुछ काली परछाइयां,
कुतरती हैं हर रात मुझे..........

मैं हर रात के आगे,
दोजानू हो के, गिडगिडाता हूँ,
सारी रात.........

बस दो पल सुकून के लिए..................

Wednesday, June 10, 2009

खाली हाथ नही आया............

मैंने तीन महीने समंदर किनारे गुजारे, अब जब वापस लौट आया हूँ तो सोचता हूँ क्या खोया क्या पाया.......इस उधेड़बुन ने कब कविता का रूप ले लिया पता ही नही चला.........



भरे समंदर को छू कर,
क्या खाली लौट रहा हूँ मैं.........

लहरों ने टकरा कर पैरों से,
सोख लिया था कुछ........

नंगे पाँव रेत पे चलते चलते,
न जाने क्या गिरा दिया था..........

शायद...........मेरे भीतर का डर.........

सीपियों की खनक ने,
कुछ इशारा तो दिया था.........

फिर भी खो जाने दिया.........
सागर किनारे मुस्कुराता हुआ,
मैं आगे बढ़ गया............

अजीब है,
खोया है.....फिर भी खुश हूँ..........

खोने पाने के एहसास से,
उबर कर मैं बस बढ़ता रहा.........

जज्ब करता रहा, समंदर को,
कभी बुलबुलों को,
कभी रेत को छू कर............

नदी बन कर,
सारी वितृष्णा बहा दी...........

सारे उद्विग्न पल दे दिए,
अथाह विस्तार को..........

विकृत प्रकृति के अंश दे दिए,
विस्तृत प्रकृति को..........

शुद्ध, स्वस्थ विचारों को,
संजो कर.......

धुली धुली स्मृतियों को समेटे,
सागर सा स्थिर हूँ.......

गहराई ले के लौट आया हूँ.........
सुकून है कि खाली हाथ नही आया...............

Saturday, June 6, 2009

'शोना' मैं हूँ न..........

मेरा दौर-ऐ-गर्दिश,
और हाथ थाम लिया,
आकर तुमने................

अपने पेशानी की सलवटों को,
तुम्हारी मुस्कुराहटों में घोल कर,
हवा में उडाता रहा, बरसों बरस.........
उन मुश्किलों में भी,
मुस्कुराता रहा...................

कुछ छोटी छोटी बातों पे,
मेरा फिक्रमंद हो जाना,
और तुम्हारा मुझसे भी ज्यादा,
सिर्फ़ मेरे लिए...........

गले लगा कर,
वो कह देना.........
'शोना मैं हूँ न'........
इक इक पल में,
सौ सौ, जिंदगियां देता रहा है मुझे............

तुम्हारे काँधे सर रख के,
मैंने कितने ही दर्द बहाए हैं............
ये सारे दर्द यूँ तो,
अश्क बन कर निकले थे............
पर कभी सितारे बने तो कभी फूल,
कभी चमके तो कभी मुस्कुरा दिए.....

फोन पर मेरे,
खांसने की एक आवाज़ से,
तुम्हारा परेशां हो जाना,
सच कहूं तो जीने की,
वजह बना जाता है.........

नही जानता कि, जीना क्या है.......
पर जानता हूँ, कि सिर्फ़ तेरे लिए,
जीना क्या है............

अक्सर सोचता रह जाता हूँ,
कि कैसे जान जाते हो,
कब दिल भरा है और जेब खाली............

इन मीलों के फासले के बाद भी,
कैसे मेरी आंखों की नमी,
दिख जाती है तुम्हे............

कैसे सुन लेते हो, वो भी,
जो मैं ख़ुद से भी नही कह पाता...............

मेरी जिन्दगी को,
किनारे मिलने लगे हैं..............
सिमटने लगी है दुनिया,
सिर्फ़ तुम तक...........
तो कहो मैं क्या करू,
तुमने ही किया है ये सब......

तुम्हारे गेसुओं की खुशबू,
कहती है, हर रात मुझसे.........
'शोना' मेरे बिना मत जीना..............

तो कहो क्यों न मैं वादा कर लूँ............

और कह दूँ.........
'जानू' ये वादा कभी नही टूटेगा..................

Friday, June 5, 2009

विद्रोह.......

आक्रोश, (वो भी निजी दिनचर्या और व्यवसाय के मध्य हुए द्वंद से उत्पन्न) मुझे रोज़ खिन्न कर देता है..............परिणिति तो प्रारब्ध की व्यवस्था है..............मैं माध्यम ही हूँ.....पर बोध है मुझे हर स्थिति के परिवर्तन का...............यह सारा विश्लेषण कविता का रूप ले कर चला आया.............



अब तो बस, घर से दफ्तर,
दफ्तर से घर का सफर.......
यही मेरा अपना समय है,
जब मैं ख़ुद को ढूँढा करता हूँ...............

विषय तलाशा करता हूँ,
जिसे दर्पण बना कर,
ख़ुद को देख सकूं,
देख सकूं, कि मैं अब क्या हो गया हूँ.................

कभी राह चलते हर शख्स में,
ख़ुद को देखता हूँ............
उसके अक्स में,
हैरान, परेशान, जूझते हुए.....
कभी खिलखिलाते कभी टूटते हुए.......

घरो में, आफिस में, चुन दी गयीं......
जिन्दा जिंदगियां.......
जिनमें से कुछ रजामंद,
हँसते हुए, इस सज़ा के लिए..........

वातानुकूलित दीवारों से,
सट कर जीती ये जिन्दगी......
मेरे लहू की गर्मी को सोखे लेती है,
जाने क्या बैर इन दीवारों को,
मेरी ऊष्मा से..............

अपने अंतस के मर जाने का,
विचार मारता है,
रोज थोड़ा थोड़ा....................

किसी और में सुलगे न जले,
कोई भी न चाहे जीना,
भले न कोई साथ चले.......

मुझमे विद्रोह सुलग उठा है,
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आन्दोलन को.............
बस समझाना है अपने मन को........

कुटिल अर्थव्यवस्था ,
अपनी माँ राजनीति से मिल कर,
मुझे और क्यों छले.........?

क्यों न उगे विचारों का सूरज,
क्यों न भावनाओं का कारोबार चले...............