बोलती बहुत है,
ख़ामोश भी बहुत है....
ख़ुशी है बेपनाह,
फिर तन्हाई को तेरा,
अफ़सोस भी बहुत है....
ज़िंदगी,
बड़ा एहसान मानती है तेरा,
पर ये फरामोश भी बहुत है...
हाँ,
हारी भी है बाज़ी-ऐ -रूह,
पर बचा जोश भी बहुत है...
लड़खड़ाई है, बाद फुरकत,
अब दगाओं का, होश भी बहुत है......
उधर,
पाकीज़गी भी दिल की बेहिसाब,
मुब्तिला गुनाहों में भी इधर बहुत है.....
इधर
मचलती है वही आरज़ू दामन में,
तेरे रूबरू जो सरगोश बहुत है....
पेशानी पे,
कालिख बन भी लगी है,
किस्मत सफेदपोश भी बहुत है...
अंतस,
आलम है लम्हो का, बेतरतीब,
इधर दर्द-रोज़ बहुत है....