Wednesday, March 9, 2016

वर्ण व्यवस्था और उच्च सामजिक रक्तचाप भाग 1

काफी उच्च रक्तचाप की शिकायत थी बहुत दिनों से, आखिरकार आज सुबह अस्पताल जा रहा था। किराए के घर से निकलते ही एक व्यक्ति को देखा जिसकी एक आँख खराब थी। बचपन में परिवार वालों की कही हुई बात कौंध गयी, "आज का दिन खराब"। विज्ञान से जुड़ा हूँ साथ ही दर्शन, अध्यात्म और संस्कृति का भी गहन अध्ययन किया है और जानता था की बकवास विचार है इसलिए सर झटक कर इस विचार को दिमाग से निकाल दिया। पूरे रास्ते दिमाग में ख्यालों की गुत्थमगुत्था चलती रही। दरअसल मिथकों को भारत में परवरिश के साथ बच्चों के मष्तिस्क में इतना गहरे बिठा दिया जाता है की उम्र भर वो उस मिथक की छाया में ही जीते हैं।

क्यों की शिक्षा का स्तर अभी भी 80 प्रतिशत जनता के मिथकों को तोड़ने के लिए प्रभावशाली रूप में नहीं आया है ज्यादातर लोग जीवन भर ऐसे हज़ारों देशव्यापी मिथकों को हमेशा सच ही मानते रहते हैं। और कुछ हो न हो पर इन मिथकों पर अपने अटूट विश्वास के चलते लोग न सिर्फ अपने कई आवश्यक कार्यो को बीच में छोड़ देते हैं या बंद कर देते हैं बल्कि बेचारे कई आंशिक द्रष्टिबाधित लोगों को असहज स्थिति का सामना करना पड़ता है। कुछ जो अन्धविश्वास की पराकाष्ठा पर हैं वो बेचारे पीड़ित व्यक्तियों को दंड भी दे डालते हैं। पहले से ही पीड़ित एक व्यक्ति को यह सुन कर कदापि अच्छा नही लगेगा की ईश्वर अथवा प्रकृति प्रद्दत्त समस्या का जिम्मेदार उस व्यक्ति को माना जा रहा है और उसे उस स्थिति का दंड दिया जा रहा है जिसमें उसका कोई हाथ नहीं है।

मेरी परवरिश गाँव में हुई जहाँ अंधविश्वास का ये आलम था की न सिर्फ ईश्वर बल्कि भूत प्रेत के भौतिक स्वरूपों को सहज रूप से सभी ने स्वीकार कर लिया था। वर्ष में 30 से अधिक ऐसे त्यौहार मनाये जाते थे जो मिथकों को मात्र भ्रम और अफवाह से कहीं अधिक आगे ले जाकर विश्वास में और उसके बाद अन्धविश्वास में परिवर्तित करते रहे हैं। भारत का 5 हज़ार वर्षों से अधिक पुराना इतिहास इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। धर्मांध वर्ग की उलटी सीधी कल्पनाओं को दृढ करने में अफवाहों ने सबसे अहम् भूमिका निभायी है। यह भी विडम्बना है की कई ऐसे लोग जो नास्तिक हैं, ज्योतिष पर अटूट विश्वास रखते हैं जबकि ज्योतिष धर्म का परिउत्पाद ही है उस से अधिक कुछ नहीं।

भारत में मिथकों ने अतीत के कुछ सबसे बड़े व्यवसायों को बहुत ही प्रभावी रूप से स्थापित करने में कोई कसर नही छोड़ी जिनमे से पंडिताई जिसमे सारे कर्मकाण्ड, जन्म से झाड़फूंक, ज्योतिष और आयुर्वेद प्रमुख हैं। निस्संदेह आयुर्वेद को स्थापित और प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति साबित करने में भारतीयों ने कोई कोर कसर न छोड़ते हुए हर एड़ी छोटी का जोर लगाया है। आयुर्वेद का नाम मैंने इस लिए लिया क्योंकि इसकी विश्वसनीयता भारत के अतिरिक्त किसी अन्य देश में प्रमाणित नहीं है इसके अतिरिक्त आयुर्वेद की दवाओ के परिशोधन की प्रक्रिया भी सन्देहास्पद है जिस से मिली दवाओं की प्रभावशीलता भी अभी तक प्रमाणित नही हुई है।

प्रमाणों के अभाव में स्पष्टतः और विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता की ज्योतिष-पंडिताई और सुनारों के सिंडिकेट का अभ्युदय कब हुआ परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य का निष्पक्ष विश्लेषण यह साफ़ कर देता है की इन तीनो व्यवसायों में गूढ़ सम्बन्ध हैं। पंडित समस्याओं को मिथकों और काल्पनिक देवी देवताओं से जोड़ कर भौतिक परेशानियो का कारण अलौकिक बता देते हैं (वर्तमान में कुछ मीडिया चैनल श्री यंत्र, लक्ष्मी यंत्र, यिन यान यंत्र और ना जाने क्या क्या बेच कर लाखों का मुनाफा भी कमा रहे हैं बल्कि अन्धविश्वास को बढ़ावा भी दे रहे हैं)। इसी बीच ज्योतिष-पंडित हवन, पूजा पाठ और दूसरे कर्मकांडों के दौरान अच्छा खास व्यवसाय कर लेते हैं। आकस्मिक और बड़ी समस्याओं पर पंडितों, ओझाओं और बाबाओ की तो कमाई देखते ही बनती है। वर्षों से स्थापित बाबाओं ने तो बाकायदा अपने चिकित्सालय भी खोल लिए हैं। कोई गुलाब की पंखुड़ी से गुर्दे, यकृत, पित्त थैली की शल्य चिकित्सा कर रहा है तो कोई मछली के मुह में विचित्र पीली दवाई रख कर जिन्दा मछली मरीजों को खिला रहा है।

लोग हैं की हज़ारों की तादाद में लाइन लगा कर खड़े हुए हैं। खैर ये तो जो है सो है कुछ ऐसे भी बाबा हैं जो भूत प्रेत (जो प्रायः मानसिक बीमारी होती है) भगाने के नाम पर महिलाओं युवतियों को लात घूंसों से पीटते हैं, लाल मिर्च को धूनी पर डाल उसका जहरीला धुंआ मरीज़ को जबरदस्ती सूंघने पर मजबूर करते हैं। जितना मौका मिले और संभव हो ये बाबा-ओझा-गुरु आर्थिक शोषण करते हैं। इन सारी प्रताड़नाओं के बदले समाज के तरफ से इनको मिलने वाले पुरुस्कारों में मांस मदिरा, धन, सोना चांदी आदि बहुत कुछ होता है। कुछ मामलों में देखा गया है की अन्धविश्वास से ओतप्रोत माता पिता ने अपनी 14-15 वर्ष की पुत्री या पुत्र को बाबा के हवाले कर दिया जो महीनो उसका शारीरिक शोषण करता रहा। आज भी पूरे देश के ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सामान्य हैं। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, बंगाल में ऐसी घटनाएं किसी दिन अखबार में न छपें ऐसा कम ही होता है। ऐसा भी नहीं की शहर के लोग इस प्रकार

लंबे समय से आर्थिक सामजिक समस्याओं से जूझ रहे लोग ज्योतिषियों की शरण में चले जाते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है की ज्योतिषी के पास जाने को सलाह इनको या तो किसी निकट संबंधी या फिर किसी पंडित ओझा या बाबा से ही मिली होती है। निकट संबंधी भी ऐसे जो छद्म भावना में जी रहे होते हैं की ज्योतिष द्वारा पूर्व में सुझाये गए किसी उपाय के कारण उनको समस्या से छुटकारा मिल गया है जबकि ये नित्तान्त उनके अपने निजी प्रयासों के कारण हुआ होता है। ज्योतिषी के पास पहुचे लोग प्रायः धनी वर्ग से होते हैं जिनकी शिक्षा में अधिकांशतः विज्ञान का समावेश बाकी रह गया होता है। इसी कमी के चलते वो लंबे समय से चलीआ रही भौतिक समस्याओं को (अपनी कल्पनाओं से) निराधार कारणों से जोड़ने लगते हैं। इनमे शनि एवं मंगल जैसे दूरस्थ ग्रहों को भी लपेट लिया जाता है। लाखों किलोमीटर दूर ऐसे गृह जिनका गुरुत्वाकर्षण तक पृथ्वी को प्रभावित नहीं कर पाता वहां पृथ्वीवासी (अधिकाँश भारतीय) ये सोचते हैं की ग्रहों की दशा उनके जीवन को प्रभावित कर रही है।

ग्रहों से जुड़े मिथक के आडम्बर को हज़ारों सालों में इतना बड़ा कर दिया गया की अनपढ़ या अल्पशिक्षित वर्ग इसी आडम्बर को (अविकसित विज्ञान के समय में) सत्य मानने लगा। समाज में सदैव तीन वर्ग होते हैं। पहले को आप भोला मासूम अशिक्षित या मूर्ख कुछ भी कह लें दूसरा समझदार जो प्रायः शिक्षित भी होता है तीसरा चालाक। तीसरा चालाक वर्ग सदैव पहले भोले वर्ग का शोषण करता है और मौका मिलने पर दुसरे समझदार वर्ग को भी पहले वर्ग में होने का अनुभव करा देता है।

हज़ारो वर्षों की किसी भी मिश्रित संस्कृति में ऐसे मिथकों का अभ्युदय अवश्य होता है जो वहां के समाज के इन तीनो समाज वर्गों पर तीक्ष्ण प्रभाव डालते हैं। भारतवर्ष इसी परंपरा का द्योतक है। मनु (यदि काल्पनिक व्यक्तिव नहीं है तो) से चली परंपरा जब अमर्त्य सेन और कैलाश सत्यार्थी तक आती है तो कुछ ऐसा ही परिद्रश्य उपस्थित होता है। यह एक ब्रम्हांडीय सत्य है की महान संस्कृतियों के सम्पूर्ण जीवन में एक सिरे पर मिथक और दुसरे पर विज्ञान खड़ा होता हैं और दोनों सिरों के मध्य मिथकों से विज्ञान की पूरी कहानी होती है। मनुष्य की विचारधारा जैसे जैसे धर्म से विज्ञान की और खिसकती है वह उत्परिवर्तन के सिद्धान्त को सार्थक करता जाता है। ध्यान देने योग्य बात है की उत्परिवर्तन सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होता है और विचारधारा में परिवर्तन भी मानसिक उत्परिवर्तन का ही एक प्रकार है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

मैं पुनः ज्योतिष के मिथकों पर आता हूँ। न सिर्फ हिन्दू बल्कि हर धर्म में सितारों, ग्रहों, सूर्य और अन्य खगोलीय अवयवों का महिमामंडन किया गया है। प्रारम्भ में ये महिमामंडन केवल सर्वशक्तिमान के प्रति मानव के समर्पण का द्योतक था परंतु बाद में धीरे धीरे मानव ने इसमें व्यवसाय भी ढूंढ लिया।

सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति, बुध जैसे ग्रहों की शान्ति के लिए रत्नों को उनके साथ जोड़ दिया गया। एक तरफ रत्नों की चमक लोगों को लुभाती रही दूसरी तरफ ग्रहों का खड़ा किया गया आडम्बर लोगों को डराता रहा इस डर और लोभ ने मिथक सम्बन्ध को इतना दृढ कर दिया की आज बड़े से बड़े व्यवसायी से लेकर वैज्ञानिक तक के हाथ में मूंगे, मोती और नीलम की अंगूठी देखी जा सकती है।

ज्योतिषियों ने मानव के मनोविज्ञान का भलीभाँति न सिर्फ अध्ययन किया बल्कि उसे अपने व्यवसाय में भरपूर इस्तेमाल भी किया। आशा और उम्मीद जैसी सकारात्मक और सार्थक भावना को रत्नों और ग्रहों की माला में पिरो कर  इन्होंने हज़ारों सालो तक अपने लिए सभी साधनो की उपलब्धता सुनिश्चित की। चेहरे और जेब को पढ़ लेने की अद्भुत कला में पारंगत हो चुके ये महाशातिर मनोवैज्ञानिक सामने वाले की मनोस्थिति और आर्थिक क्षमता के अनुसार यथासंभव शोषण करने में सदैव सफल रहते हैं।

ना जाने कब और कैसे परंतु वैष्णव आर्यो के भारत में आने के उपरान्त संभवतः 5000 वर्ष पूर्व वैदिक काल की शुरुआत में धार्मिक कर्मकांडों ने संपूर्ण भारत को शिकंजे में जकड़ना शुरू कर दिया संभवतः इस से पूर्व शैव सम्प्रदाय के दक्षिण भारतीय मूलनिवासियों में कर्मकाण्ड के पाखण्ड इतने बड़े तौर पर नहीं थे। यद्यपि थे परंतु केवल शैव भौतिकी पर आधारित मंदिरों की स्थापना एवं शैव धर्म विधियां ही प्रचलन में थीं। संभवतः आर्यों की सभ्यता को तुलनात्मक स्तर पर रख कर  बाद में शैव एवं वैष्णव विचारधाराओं को आपस में जोड़ने के लिए बहुत सी मिथक कथाओं को जन्म दे दिया गया। यह प्रयास दरअसल शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में होने वाले आपसी झगड़ों को रोकने के लिए किया गया होगा। मिथक कथाओं में अवतार के सिद्धांत, पूर्व अवतारों के बाद के अवतारों से शनैः शनैः सम्बद्ध कर दिए गए शायद यही कारण है की वर्तमान में आम हिन्दू परिवार न सिर्फ शैव और वैष्णव सम्प्रदाय में विभेद न करते हुए दोनों सम्प्रदायों की पूजा अर्चना की रीति को मानते हैं बल्कि विष्णु और शिव दोनों की एक साथ उपासना करते हैं। शैव और वैष्णव सम्प्रदाय के एक होने का सबसे अधिक फायदा मूलनिवासियों और आर्यों दोनों के मठाधीशों को एकसाथ मिला। जैसे जैसे आर्य धर्म के रीति रिवाजों की पैठ मूलनिवासियों में बढ़ने लगी मूलनिवासियों को अपना फायदा इनमें दिखने लगा। मूलनिवासियों की स्वीकारोक्ति के पश्चात आर्यों को भी धार्मिक सम्बद्धता के महत्त्व और  होने के उपरान्त उभयनिष्ठ रीति रिवाजों को दोनों संप्रदायों के मठाधीशों ने बहुत बड़े स्तर पर ले जा कर स्थापित कर दिया।

वैसे तो उपर्युक्त कही गयी सभी बातों का कोई ऐतिहासिक प्रमाण प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है लेकिन अशोक के पूर्व, उसके अपने काल एवं उसके बाद के शिलालेखो। भित्ति पर उलब्ध जानकारी, एवं अन्य ऐतिहासिक वर्णनों को यदि आधार माना जाए तो पूर्णतयः न सही आंशिक रूप से ही जातिवादी  विचारधाराओं में गूढ़ त्रुटियाँ उजागर होती दिखती हैं।

शिक्षा व्यवस्था में खामियां और एक जाति विशेष के लिए शिक्षा की उपलब्धता ने पिछले कई हज़ार साल के समयकाल में जातिगत विभेदन को सुनिश्चित कर दिया। शिक्षा की असंतुलित असममित और पक्षपाती व्यवस्था ने लगातार सामाजिक वर्गों को धीरे धीरे इस प्रकार विभाजित किया कि केवल एक वर्ग को ही शिक्षा का अधिकारी माना जाने लगा। वैश्य समाज को शिक्षा की उपलब्धता इसलिए संभव हो सकी क्योंकि वह अपेक्षाकृत न केवल धनी था बल्कि शिक्षित समाज को झुकाने लायक मानसिक दृष्टिकोण उनके व्यवसाय से होते हुए उनकी आनुवंशिकता में भी समिलित होता गया। धन, बौद्धिक उच्च सामर्थ्य एवं व्यापारिक कुशलता ने वैश्य समाज को उतनी हानि नहीं होने दी जितनी इन कारणों की अनुपस्थिति में संभव थी।

सवर्ण शब्द के अभ्युदय के पीछे किंचित उपर्युक्त परिस्थिति संभावित है।