Tuesday, January 29, 2008

असर

आंसू गिरा गिरा के रगड़ा पलको से,
हथेलियों से,
न जाने कैसे खीचीं ज़ालिम ने,
लकीरें थीं की मिटी ही नही.

Sunday, January 20, 2008

बहार जाने को है.................

छाया भी मुरझाई सी है,
हर पत्ती कुम्हलाई सी है।

अँधेरा बढ़ गया है,
यौवन एक पीढ़ी और चढ़ गया है।

ज़र्द पत्तियां अब ठिठुरने लगी हैं,
शाखों से बिछुड़ने लगी हैं।

अब कहाँ बागों में बहार होगी,
हाँ! हवा में जरूर, नेज़े की धार होगी,

हर फूल पे खामोशी बा-असर हो गयी है,
शायद चमन को,
पतझड़ आने की खबर हो गई है।

ये खिजां गुलिस्तां में सूनापन लिख जायेगी,
हर शाख़ पे तन्हाई बैठ के,
रोती दिख जायेगी।

अब ये मंज़र फिर सूने हुआ करेंगे,
किसी नयी बहार की दुआ करेंगे............

परिवर्तन

चेहरे पर झुर्रियों ने डेरा डाला,
मस्तिष्क में विचारों ने रुप बदला,
बालों के साथ बातें भी पक सी गयीं,
नज़र में सोंधी सी महक समाने लगी,
कमर भी आख़िर आकार बढाने लगी।

बच्चे अब बच्चे लगने लगे हैं,
कुछ ज्याद ही अच्छे लगने लगे हैं।

वर्तमान को भविष्य और अतीत एक साथ दिखने लगे हैं,

सोच में आशा निराशा की खिचडी पकने लगी है,
उँगलियाँ कीमती पन्नों को अलग रखने लगी हैं।

घडी से क्षण बस टपके ही जाते हैं,
हर पल जी लेने का संदेश दिए जाते हैं,
अपनी अहमियत टिक टिक से बताते हैं।

एकाकीपन का रुप ले कर कोई और आया है,
शायद जीवंन का दूसरा दौर आया है....................

Friday, January 18, 2008

कुछ नाम दे दो

मैंने माना, मौत ही सच है,
एक यही शै, जिन्दगी की आज़माइश है,
भला और क्या जिन्दगी है,
फ़क़त तमन्नाओ की नुमाइश है,
कर सके तो करें यकीं,
दोस्तों ये शेर मेरी ही पैदाइश है..........

शायद

शायद ग़म-ओ-रंज का वक़्त गुज़र गया है,
क्योंकि आंखों का दर्द,
हलक से हो कर,
दिल में उतर गया है.........

लिपि का अमृत

तो फिर एक दिन मुझे,
एहसास हो ही गया,
चला, मैं लौट चला..............

गंतव्य पहुँचा तो कब्रें देखीं,
हज़ारों चिताएँ,
कुछ अधबनी, अधजली
कुछ, बस राख़ के ढेर.........

तभी एक और चिता बनने लगी;

इस बार रोक लिया,
उस विचार को दफ़न होने से,
लिपि का अमृत दे कर.........

कुछ अधजले भी,
उठने की कोशिश करने लगे........

सहारा दिया, संभाला ,
अब मेरे साथ हैं.............

अब अक्सर, "विचारों के कब्रिस्तान" से,
कुछ को जिंदा लौटा कर लाता हूँ,

खुद को इसी तरह जिंदा रख पाता हूँ,
विचारों को लिपि दे कर बचाता हूँ.............

Thursday, January 17, 2008

कविता का संसार

सुख दुःख भरा मन में,
भावनाएं बना और छलका,
फिर स्याही बना और बिखरा,
छींटे अक्षर बने,
पन्नों पे असर छोड़ चले,

विचारों ने रेखाएं खींचीं,
तो मनस्थिति की ज्यामिति उभरी.........

हर पद्य का अपना स्वभाव,
किसी न किसी का संबल बनता,
यूँ लचीला की,
हर क्षण रुप बदले,
पारखी की दृष्टि के समानांतर.........

रचनाएं खंगालते लोग,
खुद को ढूँढ कर निकालते लोग........

आमने सामने बैठ,
कुछ पहेलियाँ बुनते,
कुछ मौन हो, सुनते......

प्रकृति जैसा अनंत विस्तार,
विचित्र, सम्मोहक, लुभावना,

कविता का संसार..................

Wednesday, January 16, 2008

अंततः

कुछ नयी कोपलें,
कितनी प्राकृतिक और हरीतिम,
पुरानी शाखों से..............
आगे निकल कर....

हदें तोड़ कर ठिठोली करतीं,
हवा के संग,
जैसे कोई अल्हड़ किशोरी,
जैसे जुलूस में आगे चलते बच्चे।

कुछ और हरी पत्तियां,
पर गहराई लिए,
अपने रंग में,
समेटे अँधेरे को,
खुद को सीमित करतीं,
दुबकती, छुपती..........
जैसे कोशिश हर नजर से बचने की।

शायद अनुभवों का परिणाम,
कई मौसम देखे हैं,
जिनका वसंत भी जा चुका।

अब अन्तिम सत्य की प्रतीक्षा.........

नयी कोपलों को विस्तार चाहिए,
स्थान तो सीमित ही है,
जो पुराने हुए उन्हें जाना होगा......
थके हारे बुजुर्गों जैसा.........

Saturday, January 12, 2008

आधुनिक उपाय

कुछ चेहरे पर और कुछ चरित्र पर,
दाग उभरने लगे,

कुछ ज्यादा तो न किया था,
बस इतना,
की एक रोज़ मैं अपने लिए सोचने लगा,

जैसे दुनिया ही पलट गयी,
रिश्तों में, अपने पराये की
एक रेखा दिख पड़ी,

संग और तंज़ एक साथ बरसे,
खुद को मेरा साया कहने वाला,
चला गया, तन्हा छोड़ कर,

एक और दाग लगा कर,

उलझनों में घिर कर बैठा था,
एक शरारती बच्चा पूछ बैठा,
क्यो क्या हुआ अंकल?

शब्द थे, कि बस बह ही गए,
मैं बोल उठा........दाग लगे हैं बेटा मुझ में,

वो जवाब दे गया मुझे...................
मेरे सवालों का........

बोला.....

अंकल



सर्फ़ एक्सल हैं न............

मैं भी


"जैसा आप ठीक समझो"
मुझे कोफ्त थी,
इन लफ्जों से,
आज मैं भी कहने लगा..........

कहता था! मैं क्यों सहूँ?
फिर जहाँ भर को सहते देखा,
और जख्म सहने लगा...
बस मैं भी समय में बहने लगा......

चलो अब हार भी जाओ,
मेरे ही भीतर से कोई कहने लगा,
समय के बहाव में छोड़ दो सब
और फिर मैं बहने लगा.........

महफिल में मुस्कुराने की,
सख्त हिदायत मिली थी मुझे,
तो मुस्कुराता था,
पर तन्हाई में गुमसुम रहने लगा......
और समय में बहने लगा........

Thursday, January 10, 2008

आ भी जा.....

सूरज को कभी बे रौनक न देखा,
चाँद को तनहा नही,
फिर ये उजाला क्यों अँधेरे की पलकों से खेला
क्यों मेरी रात इतनी अकेली,
क्यों आसमां पे चाँद अकेला,

जो कल तक मेरी ख़ुशी में ही थी तेरी ख़ुशी.....
तो क्या वजह तेरी बेरुखी की.....

जिन पे हम मिल कर कुर्बान हुए,
वो नजारे कहाँ गए........
चाँद को तन्हा छोड़
सितारे कहाँ गए.....

आ भी जा
कहीं ऐसा न हो के......
जिंदगी ही ग़ज़ल हो जाये
मेरा वजूद, मेरा आज,
तेरे लिए, गुजरा हुआ कल हो जाये..........

किस्मत.....


हैरत की हद हो जाती है,
क्या से क्या नजर आता है,
आजकल सुबह सवेरे चाँद,
छत पर उतर आता है.....

हंगामखेज़ एक और बात सुनिए,
हमारे दिल को कुछ यूँ राहतें हैं,
जमाना भर चाहता है जिन्हें,
वो टूट कर हमें चाहते हैं..........

कुछ नया पकना है.......

स्मृति पात्र मैला हो चला,
तो एक दिन,
विस्मृति के नखरों से खुरचने लगा.....

भूत की घटनाएं,
पपडी बन निकलने लगीं...

एक सूखा सा विश्वास,
चटक कर टूटा,
अलग हो गया...

पुराना प्रेम कोई, जंग लगा,
आज न रहा पात्र में....

गलती पिघलती बासी भावनाओं को,
अलग होना पड़ा,
पात्र को साफ होना पड़ा.......

कुछ नया पकना है.............

मैं समंदर हूँ.............


रोज रोज चले आते हैं तूफा मुझ तक,
तो क्या कुसूर उनका,
गुनहगार तो मैं............
समंदर हूँ......

शौक क्या, और क्या मजबूरी,
गहराइयों में तो उतरना ही था,
तो अब मैं.....
समंदर हूँ..........

लहरें भी दिखें और,
जुम्बिश भी न हो,
तो गहरा हूँ अब....
मैं समंदर हूँ.............

एक कतरे तक की जगह न थी,
अब सूरज भी बुझते हैं मुझमे,
मैं अब समंदर हूँ............

कोई तो कश्ती साहिल पे आएगी,
कुछ तो मोती उगेंगे,
तो बस मैं........
समंदर हूँ.........

मुंदी आंखें है,
गोया बर्फ की पतली चादर,
इनके नीचे और बहुत अंदर
में समंदर हूँ...!!!

संभल के पांव रखना,
डूब जाना न कहीं,
बड़ा शोख सा मंज़र हूँ,

थाह न पाओगे,
मेरे इश्क़ की,
इतना गहरा गया हूँ,
के अब समंदर हूँ,

सिर्फ मुस्कुराहट ही,
रूबरू होगी अब,
हद-ऐ-दर्द समेटे
कलंदर हूँ,

हो डूबने का शौक,
तो समा जाओ बाहों में,
पुरकशिश बा-जान, अंदर हूँ,
मैं समंदर हूँ...!!!

ज़माने भर के और अपने,
अश्क पी कर,
कड़वा हूँ, खारा हूँ...........
अब समंदर हूँ.............

गहरा हूँ, दर्द हूँ, पर अपने ही अन्दर हूँ..................
मैं समंदर हूँ.............

यूँ होता है


भावनाओं के ज्वार आते हैं,
सब जल थल करने,
कुछ पन्नों पर उतर जाते हैं,
कहानी बन कर,
कुछ पुराने रिश्ते तोड़ जाते हैं,
सुनामी बन कर!

Thursday, January 3, 2008

ईश्वर और ऊर्जा

जब भी कभी धर्म, धार्मिकता, ईश्वर, अलौकिकता, पर बहस होती है तो इसका कोई अंत नही होता लेकिन यदि वैज्ञानिक प्रमाणों एवं परिकल्पनाओं को व्यवस्थित क्रम में रखें तो कुछ यक्ष प्रश्नों के उत्तर स्वयमेव मिल जाते हैं। इसके लिए धर्मान्धता से थोडी देर के लिए छुटकारा पाना होगा। डार्विन, लैमार्क, और ओपैरिन के सिद्धांतों को पढ़ चुके लोग जानते हैं कि किस प्रकार रासायनिक संश्लेषण से पहले जीवन का उद्भव और फिर जीवन के निरंतर विकास से वर्तमान प्रकृति का जन्म हुआ। मानव का विकास बंदरों से माना जाता है। जीवाश्म प्रमाणों पर विश्वास करें तो यह प्रक्रिया कई करोड़ साल पहले शुरू हुई फिर लगभग दस लाख साल पहले प्राचीन वानर वंश का अभ्युदय हुआ। वानर वंश के सदस्यों में विकास कि प्रक्रिया भिन्न हो चली तो कई प्रकार की मानव जातियाँ विश्व भर में विकसित होने लगीं। इन्ही दस लाख सालों के दौरान धर्म एवं ईश्वर जैसे विचारों कि उत्पत्ति भी हुई। जब मानव मस्तिष्क विकसित हुआ तो जिज्ञासा ने प्रबल रुप धारण कर लिया। अन्य जीवों से श्रेष्ठ मानव सितारों, दिन-रात, बाढ़-सूखा, सर्दी-गरमी, को अलग तरह से देखने लगा। कल्पना और भय का एक मिश्रित प्रभाव उसे सदैव विस्मित करता रहा, लेकिन जंगली तो वो अभी भी था, और पूर्ण मानव न हो कर पशु लक्षण भी अभी बाक़ी थे।
इसी समय हर युग की तरह कुछ अधिक बुद्धिमान मानव हर सभ्यता में विकसित होने लगे जिनको मानवता कि समझ आने लगी, जो प्रकृति के गूढ़ रहस्य तो नही समझ पाए परन्तु सभ्यता की आवश्यकताओं को अवश्य समझने लगे। इन प्रबुद्ध आदिमानवों में एक प्राकृतिक प्रेरणा बलवती होने लगी जो बाद में मानवता और अंततः विकृत हो कर धार्मिकता बन गयी। कबीलों का निर्माण होने लगा , भाषा विकसित नही हुई लेकिन बात समझने के लिए सांकेतिक भाषा का प्रयोग होने लगा। इसी समय आवश्यक था कि एक ऐसे भय कि रचना हो जो मनुष्य को मानव बनाए, प्रकृति की रहस्यमई अन्तःप्रेरना ने मानव मस्तिष्क पर विचित्र प्रभाव डाला, जंतुओं के समान मानव मन में प्राकृतिक घटनाओं का भय समाया। आदिमानव ने सोचा कि कुछ तो है जो प्रकृति का संचालन करता है, और इस प्रश्न का उत्तर जब उसे सदियों तक नही मिला तो ईश्वर नामक एक वैचारिक भय और उत्पन्न हुआ, जिसे समझा न जा सका, हर उस घटना को इस विचार से जोड़ दिया गया। यह भी प्राकृतिक प्रेरणा है कि भय कि अवस्था में मानव में समर्पण का भाव उत्पन्न होता है। मानव ने अनदेखे, अनजाने, अनसुलझे उस वैचारिक रहस्य को सब कुछ समर्पित करना शुरू कर दिया, रुधिर से पुष्प तक सब कुछ, जो उसकी आदिचेतना ने उसे सुझाया। यही प्रथम धार्मिक समर्पण था। जनसंख्या बढ़ी, भाषा विकसित हुई, प्रबुद्ध आदिमानवों का विकास तीव्र हुआ उनमें वार्तालाप हुआ तो ईश्वरीय वैचारिकता के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई। कर्म-काण्ड एवं अनुष्ठान भी प्रारंभ हुए। विचार विस्तृत हुए। अज्ञानी मानव में स्मृति ने इस भय का और विस्तार किया। कथाओं के जन्म लेने के साथ ईश्वर एवं धर्म के विचार को प्रमाणित करने की दिशा में भी प्रयास प्रारंभ हो गए।

मेरे विचार से धर्म एक डंडा है जो मनुष्य नामक जंगली पशु को मानव बनाता है और इस डंडे के संचालन के लिए ईश्वर नामक अकल्पनीय विचार की रचना हुई है।

समाज का एक वर्ग वर्तमान में मानवता की रक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है जिसे पंडित, मौलाना, या पादरी के रुप में देखा जाता है. ईश्वर नामक अप्रतिम भय की गूढ़ता एवं रहस्य को बरकरार रखना इनकी जिम्मेदारी है ताकि धार्मिक डंडे से मनुष्य नामक जंगली पशु को मानवता कि राह दिखाई जा सके।
एक यक्ष प्रश्न पुनः उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर एक विचार है तो प्रकृति का संचालन कौन करता है? इस प्रश्न का उत्तर है "ऊर्जा"। हर धर्म एक दिव्यशक्ति, नूर या सुपरनेचुरल गलो की बात करता है, जो अप्रत्यक्ष रुप से ऊर्जा ही है। विज्ञान जिस प्रकार प्रिकृति से संबंधित है उसी प्रकार धर्म ईश्वर से संबंधित है, जब विज्ञान अपनी निर्धारित सीमा से बाहर जाने लगता है तो प्रकृति उस पर पुनः नियंत्रण स्थापित करती है, उसी प्रकार ईश्वर धर्म की पुनर्स्थापना करता है जब वह विकृत होने लगता है। विज्ञान भले ही ऊर्जा के कुछ रुप निर्धारित कर दे लेकिन कुछ रुप विज्ञान की समझ से परे रह जाते हैं, और शायद वही रुप अलौकिक, प्राकृतिक घटनाओं का संचालन करते हैं। रुप भले ही कितने हों, ईश्वर आख़िर एक है और प्रकार भले ही कितने हों ऊर्जा भी एक ही है। न ही ईश्वर उत्पन्न होता और न ही मरता है जैसे ऊर्जा। आदिब्रम्ह और आदिऊर्जा दोनो समान रहस्य हैं। ये रहस्य मानव कि समझ से परे हैं। मैं सिक्के का एक पहलू ऊर्जा को और दूसरा ब्रम्ह को मानता हूँ। लौकिक और अलौकिक जगत कि समस्त क्रियाएँ इसी ऊर्जा से संचालित होती हैं, यहाँ तक कि विचार भी! विचार दरअसल रासायनिक प्रक्रिया हैं और इनके संचालन के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, या हम यह कहें कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नही हिलता तो बात एक ही है।

फिर भी एक प्रश्न ईश्वर कि सत्ता को बल प्रदान करता है कि यदि ऊर्जा ही प्रकृति का संचालन कर भी रही है तो इसकी आवश्यकता क्या है? यदि ऊर्जा का रूपांतरण होता भी है तो क्यों? असीमित विस्तार के ब्रम्हांड का निर्माण हुआ तो क्यों अब तक अनेकों विद्वानों से मिल कर भी इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त नही हुआ और जिसे उत्तर के रुप में परिभाषित न कर सके, मानव उसे ईश्वर कहने का पूर्णतयः हक़दार है।

यदि ऊर्जा ने पदार्थ का रुप धारण कर के अनंत ब्रम्हांड में विस्तार प्राप्त कर भी लिया हैं तो क्यो, ईश्वर ने प्रकृति की रचना कि भी है तो क्यों? यही प्रश्न हैं जो ईश्वर को ईश्वर का महत्व प्रदान करते हैं, और ऊर्जा से भिन्नता भी।

इन्ही प्रश्नों ने मुझे और सारे विश्व को सम्मोहन कि अवस्था में रखा हुआ है, मुझे भी परमज्ञान की खोज है और मैं भी इन प्रश्नों से छुटकारा पाना चाहता हूँ, वह भी यदि संभव हुआ तो..........................