Thursday, December 18, 2008

साठ लाख भूखे बच्चे..........

मैंने जिन्दगी को करीब से देखने की कोशिश की, आम इंसान की नज़र से अपने वतन 'हिन्दुस्तान' को देखा, परेशानियां देखीं, बुराइयां देखीं, अव्यवस्था देखी और फिर इनका हल जानने की कोशिश की....

जहाँ हर रोज़ साठ लाख,
भूखे हैं बच्चे,
वहाँ टनों दूध पीते,
पत्थर के भगवान्........

इस सबके जिम्मेवार,
कुछ मुट्ठी भर इंसान......

जहाँ सरकारी दफ्तरों के आगे चढ़ती,
बेरोजगारों की बलि, और
आत्महत्या कर लेते,
हर साल बीस हज़ार नौजवान.........

इक दस्तखत के बदले, जहाँ एक बाबू...
कभी उतार लेता आबरू,
या आधी जिन्दगी की कमाई,
और उस पर भी जताता एहसान.........

नैतिकता और भ्रष्टाचार के,
इस कुरुक्षेत्र में,
पतित ही कर्ण, और अर्जुन भी वही
उन्ही के हाथों खडग, उन्ही के हाथ तीर-कमान...........

जहाँ हर मोहल्ले में, औरतों लड़कियों पे फब्तियां,
न बस ट्रेन में, बुजुर्गों को सम्मान.....
जहाँ हरिजनों को साठ साल में भी,
न मिला सबके जैसा अधिकार समान............

तो प्रश्न उठता है.......क्या सचमुच "मेरा भारत महान"?

चलो प्रश्न का उत्तर ढूंढें,
उठें, आगे बढ़ें,
अधिकार और सम्मान के लिए.......

न्याय के लिए करें प्रयोग अपने अधिकार और RTI,
जाने संविधान को,
और करें विश्वास का आह्व्हान.......
सच में बनाएं भारत महान............


एक कवि और जागरूक नागरिक होने के नाते, मैं भारतवर्ष के सामजिक उत्थान को अपना कर्तव्य और अधिकार समझता हूँ, मैं हर सम्भव प्रयास करता हूँ संविधान को समझने और अपने मौलिक अधिकारों के प्रयोग का.............क्या आप करते हैं?

मेरी पुत्रियाँ......

मेरे कुछ शुभचिंतक मुझसे कहा करते हैं कि मेरी कविता का भावार्थ जटिल है, मैं लंबे समय तक इस बारे में विचार करता रहा, इसी दौरान कुछ पंक्तियाँ भी अस्तित्व में आ गयीं और इन्होने भी एक जटिल (या सरल मैं नही जानता) कविता का रूप ले लिया, साथ ही मुझे कविता से अपने सम्बन्ध का पता भी चला, मैं पिता हूँ, अपनी रचनाओं का........

पुत्री कहूं तो सर्वथा उचित,
मैं जन्मदाता जो हूँ......
और वो मेरी रचना......

प्रकृति को पुत्रियों के स्वभाव में.....
उडेला करता हूँ....
कभी कभी मैं भी,
शब्दों के साथ खेला करता हूँ.........

हर एक की तरह, यह खेल भी,
रचयिता ने रचाया है,
कि मैंने भी,
रचयिता होने का सुख पाया है.........

इच्छानुसार तोडा है, मरोड़ा है,
बहुत कुछ घटाया और जोड़ा है.....

कुछ में भावों का अतिरेक है,
कुछ को पकाया है, तार्किकता कि धूप में,
कुछ वुत्पन्न हो कर निखरी हैं, नैसर्गिक रूप में.............

न जाने क्यों, मेरी स्वाभाविक जटिलता,
मेरी रचनाओं में है,
वही जो मेरे संकल्प में है,
मेरी कल्पनाओं में है...........

रचनाओं पर है एक विचित्र आवरण,
न जाने क्या है कारण,
शब्दकोष, या व्याकरण.......

मुझे यह बोध है, क्योंकि मुझे भी शुष्क लगती हैं,
शिथिल लगती हैं,
आम इंसान बन कर देखता हूँ तो,
मुझे भी जटिल लगती हैं............


भावार्थ Meaning, अस्तित्व Existance, सर्वथा Exactly, अतिरेक Extreme, व्युत्पन्न Derivative,
नैसर्गिक Natural, आवरण Envalop, Cover, Protection, शब्दकोष Dictionary, व्याकरण Grammer, बोध Realization, शुष्क Dry.

Tuesday, December 9, 2008

आज निशब्द अँधेरा है............

रूचि के विपरीत जाना पड़ता है, व्यवसाय को अपनाते हुए जब कविता से सम्बन्ध क्षीण होने लगा तो इस भाव ने भी कविता का रूप ले लिया, आप के समक्ष प्रस्तुत है..........

मेरे चेतन में, शब्दों के जुगनू चमका करते थे.......
आज निशब्द अँधेरा है,
धरातल बौधिक चिंतन का ही है,
पर भौतिकता का व्यापार फैला है...........

आवश्यकताओं ने सोख ली है,
मेरी वैचारिक ऊष्मा,
अलंकारों का गुंजन, प्रायः निष्प्राण है........

सर्वथा आवश्यक बालबोध अब भी जीवित है कहीं,
पर अब, अप्रयोज्य हो चला है.......

बस यही जान कर, रहता हूँ मौन,
के सुन तो कोई भी लेगा,
पर पीड़ा समझेगा कौन...........

मेरी यह पीड़ा और अंतस का विश्लेषण,
ले जाता है, कारण की खोज में........

पर यह मंथन अधिक समय नही लेता,
मेरी खोज को मिलता है, पूर्णविराम......
तीन शब्दों पर, "यही दुनिया है"..........

यह मेरी पीड़ा का पूर्णविराम नही बन पाता.........

बढ़ जाता है, संताप और,
होता है, पश्चाताप और.......

इस अनुत्क्रमणीय अवस्था का,
मेरे पास कोई हल नही,
आज इतना शुष्क है शब्दकोष,
की आँखें भी सजल नही.............

अस्पष्ट सी इस कविता जैसा,
अस्पष्ट सा ही एक असंतोष है।

बीते दो बरस में मुझे बस यही अवगुन लगा है,
लेखनी के चंदन में प्रश्नवाचक घुन लगा है..........

सबसे बड़ा भय.................

जीवनसाथी से बिछड़ने के बारे में पूर्वाभास होना आम बात है, मैंने एक प्रेमी के मन में उस समय उमड़ते प्रश्नों को समझने की चेष्टा की..............

बाहर भी तम्, और भीतर भी,

घना फैला अन्धकार दूर तक,

आशाओं का दीपक ले, चलता हूँ............

डगमगाता, ठोकर खाता............

तुम्हे पता है...............?

मेरे लिए सबसे बड़ा भय क्या है...............?

यही अन्धकार।

मेरा मन, मेरा बालमन, भयाक्रांत है,

इतना सहमा की रोता भी नही,

इतना भय कि,मानस सोता भी नही.............

यह भयानुभूति भौतिक ही है,

सांसारिक है,

मैं जानता हूँ, संबंधो का परिणाम है............

विश्वासघात ने उपजा है अन्धकार,

जन्मदाता हैं वो,

जो कभी थे मेरे अपने............

किया मेरे विश्वास को छिन्न-भिन्न,

पर फिर भी जीवन पुकारता है,

कहीं रौशनी दिखती है,

तुम आते दीखते हो.............

पर कुछ और भी है, तुम्हारे साथ,

मेरे भय को साथ लिए चले आते हो............

एक परछाई भी है न तुम्हारे साथ,

उसी भय का अंश,

मुझे आहात विश्वास का स्मरण हो आया है.......

क्या मेरे विश्वास और भय का,

फिर द्वंद होना है.................?

कहाँ मिलेगा शोर मुझे, कहाँ मिलेगी ये भीड़..........

कभी कभी सिर्फ़ एक इंसान पूरे जीवन का उद्देश्य बन जाता है, उसके न मिल पाने पर शायद यही हश्र होता है.........

चला जाता हूँ, कभी स्टेशन,
कभी चांदनी चौक, कनाट प्लेस, या इंडिया गेट.........
फिर खड़े हो कर भीड़ में,
चाहता हूँ,
की आवाजें कुछ और तेज़ हो जाएँ.............

कुछ देर ही सही,
बसों के हार्न, या ट्रेन की आवाज़,
छीन ले, सुनने की ताक़त मुझसे........

शायद तब न सुन पाऊँ,
अपने भीतर के सन्नाटे का शोर.............
शायद तब ही, मेरे भीतर की खामोशी,
चुप हो जाए, कुछ देर............

सदमा तो ये सोच कर है,
की रात बीतेगी कैसे,
जब के नींद को बैर मुझसे,
बाहर से ले कर भीतर तक,
खामोशियाँ डराएँगी मुझे..........
एक पल में सौ बार, सताएंगी मुझे...........

कहाँ मिलेगा शोर मुझे, कहाँ मिलेगी ये भीड़..........

मिलेंगे तो बस रात, बेचैनी, सन्नाटा, सूनापन, अकेलापन, तन्हाई....................

पालनहार से ये सारे प्रश्न......................

संसार की दुर्दशा और मानव कि स्वार्थपरता देख कर एक दिन मेरा ह्रदय पालनहार से ये सारे प्रश्न कर बैठा..............


ऐसा नही की मेरी विनती न सुनते होगे,
समझते भी हो,
चाह कर भी दे नही पाते,
ज्ञात है मुझे..............

पर यह विश्वास आहत होने लगा है,
जब से मैंने जाना,
कि मानव ने सीख ली है,
पशुओं कि संस्कृति,
परभक्षी और भक्ष्य का नाता.........

हे! जगतपिता क्या संसार पर आपका,
अब कोई नियंत्रण नही,
क्या दुर्दैव दिन, और इनकी उष्णता,
यूँ ही बढती जायेगी.........

हे! परमपिता, मैं असमंजस और चिंता में घिरा हूँ,
आपकी दी हुई प्रतिभा कि बोली लगाने को,
आतुर है, आपका ये संसार............

किसी निधिवान के चरणों कि भेंट कर दूँ,
तो जीवन की काया पलट जाए.........

पर यह आकांक्षा तो आप से है,
परमपिता, कम से कम ये तो कहो,
कितना शेष है, इस भौतिक जगत में.........?
अब आपका............?

या हर लिया है मानव ने अधिकार,
वंशजों ने जैसे साम्राज्य किसी वृद्ध सम्राट का...................?

सवालों का ये सिलसिला..............

जब कभी एक ही इंसान किसी के लिए पूरी दुनिया हो जाए

और फिर वो बेवजह उस से जुदा हो जाए तो सवालों का ये सिलसिला दिल में आए...............

तुम सुनतीं तो कहता मैं,

समझती तो इशारा देता,

पर इतनी अजनबी क्यों हुई जाती हो,

मैं बिखरने लगा हूँ,

क्या तुमने दामन छुडाया है...............?

ये काली रात मुझे सोने नही देती,

क्या तुम्हे किसी और का ख्वाब आया है.............?

पिघलने लगा हूँ, जलने लगा हूँ,

क्या शीशा-ऐ-दिल की ओर,

तुमने भी पत्थर उठाया है..........?

ख़ुद को आज कारवां से,

जुदा पाता हूँ मैं,

क्या किसी और को तुमने हमसफ़र बनाया है............?

बस उस इल्म की तस्दीक़ कर दो,

जिस से ख़ुद को मेरे प्यार से महरूम किया,

ये तो कहो दिल से मुझे भुलाने का,

कौन सा तरीका आजमाया है..............?

हाल-ऐ-दिल बताऊँ किसे, यार ने घर ही बदल डाला,

एक ज़रूरी ख़त उस के पते से लौट कर आया है...............

कोई फाँस चुभी हैं, मन में.................

मनुष्य सभी से अपेक्षाएं रखता हैं, जिनके पूरे न होने पर उसे संताप होता हैं, यह उसकी अपनी उत्पन्न की हुई समस्या होती हैं, कभी कभी इसके लिए वह ईश्वर तक कोई दोषी ठहरा देता हैं।

मेरी यह कविता उसी आवेग का विश्लेषण हैं..........

शब्दों का एक अविरल प्रवाह,
अवचेतन में,
एक फाँस चुभी है, तर्जनी में,
और एक मन में..................

विचित्र हैं पर सत्य यही,
कल सुख देती थी, आज पीड़ा......
कदापि यही भाग्य,
यही प्रारब्ध की क्रीडा.........

समय बीता तो बन गई,
अंश अस्तित्व का........
आधा भाग जीवन का,
आधा व्यक्तित्व का..........

साथी बनी थी, आकुलता बन कर,
आज शत्रु सद्रश, व्याकुलता बन कर..........

प्रेम, ईर्ष्या, मोह के आवेगों में बहता,
नवरूप को खोजता.......

वर्षों की पीड़ा मन में,
और मन की पीड़ा वर्तनी में.......
एक फाँस चुभी हैं, तर्जनी में........

शीश अब भी झुके, समक्ष ईश के,
थोडी वितृष्णा ह्रदय में,
पूरी श्रृद्धा नमन में,
पर कोई फाँस चुभी हैं, मन में.................