जीवनसाथी से बिछड़ने के बारे में पूर्वाभास होना आम बात है, मैंने एक प्रेमी के मन में उस समय उमड़ते प्रश्नों को समझने की चेष्टा की..............
बाहर भी तम्, और भीतर भी,
घना फैला अन्धकार दूर तक,
आशाओं का दीपक ले, चलता हूँ............
डगमगाता, ठोकर खाता............
तुम्हे पता है...............?
मेरे लिए सबसे बड़ा भय क्या है...............?
यही अन्धकार।
मेरा मन, मेरा बालमन, भयाक्रांत है,
इतना सहमा की रोता भी नही,
इतना भय कि,मानस सोता भी नही.............
यह भयानुभूति भौतिक ही है,
सांसारिक है,
मैं जानता हूँ, संबंधो का परिणाम है............
विश्वासघात ने उपजा है अन्धकार,
जन्मदाता हैं वो,
जो कभी थे मेरे अपने............
किया मेरे विश्वास को छिन्न-भिन्न,
पर फिर भी जीवन पुकारता है,
कहीं रौशनी दिखती है,
तुम आते दीखते हो.............
पर कुछ और भी है, तुम्हारे साथ,
मेरे भय को साथ लिए चले आते हो............
एक परछाई भी है न तुम्हारे साथ,
उसी भय का अंश,
मुझे आहात विश्वास का स्मरण हो आया है.......
क्या मेरे विश्वास और भय का,
फिर द्वंद होना है.................?
1 comment:
बहतु सुन्दरता से आपने भय और विशवास के द्वंद में फंसे मन की स्थिति उकेरी है अपनी कविता के ज़रिये...
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