संसार की दुर्दशा और मानव कि स्वार्थपरता देख कर एक दिन मेरा ह्रदय पालनहार से ये सारे प्रश्न कर बैठा..............
ऐसा नही की मेरी विनती न सुनते होगे,
समझते भी हो,
चाह कर भी दे नही पाते,
ज्ञात है मुझे..............
पर यह विश्वास आहत होने लगा है,
जब से मैंने जाना,
कि मानव ने सीख ली है,
पशुओं कि संस्कृति,
परभक्षी और भक्ष्य का नाता.........
हे! जगतपिता क्या संसार पर आपका,
अब कोई नियंत्रण नही,
क्या दुर्दैव दिन, और इनकी उष्णता,
यूँ ही बढती जायेगी.........
हे! परमपिता, मैं असमंजस और चिंता में घिरा हूँ,
आपकी दी हुई प्रतिभा कि बोली लगाने को,
आतुर है, आपका ये संसार............
किसी निधिवान के चरणों कि भेंट कर दूँ,
तो जीवन की काया पलट जाए.........
पर यह आकांक्षा तो आप से है,
परमपिता, कम से कम ये तो कहो,
कितना शेष है, इस भौतिक जगत में.........?
अब आपका............?
या हर लिया है मानव ने अधिकार,
वंशजों ने जैसे साम्राज्य किसी वृद्ध सम्राट का...................?
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