कभी कभी सिर्फ़ एक इंसान पूरे जीवन का उद्देश्य बन जाता है, उसके न मिल पाने पर शायद यही हश्र होता है.........
चला जाता हूँ, कभी स्टेशन,
कभी चांदनी चौक, कनाट प्लेस, या इंडिया गेट.........
फिर खड़े हो कर भीड़ में,
चाहता हूँ,
की आवाजें कुछ और तेज़ हो जाएँ.............
कुछ देर ही सही,
बसों के हार्न, या ट्रेन की आवाज़,
छीन ले, सुनने की ताक़त मुझसे........
शायद तब न सुन पाऊँ,
अपने भीतर के सन्नाटे का शोर.............
शायद तब ही, मेरे भीतर की खामोशी,
चुप हो जाए, कुछ देर............
सदमा तो ये सोच कर है,
की रात बीतेगी कैसे,
जब के नींद को बैर मुझसे,
बाहर से ले कर भीतर तक,
खामोशियाँ डराएँगी मुझे..........
एक पल में सौ बार, सताएंगी मुझे...........
कहाँ मिलेगा शोर मुझे, कहाँ मिलेगी ये भीड़..........
मिलेंगे तो बस रात, बेचैनी, सन्नाटा, सूनापन, अकेलापन, तन्हाई....................
1 comment:
hmm... भीतर का सूनापन और खालिपन्न बाहरी जतनों से नहीं भरा जा सकता..... सुंदर रचना.....
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