मनुष्य सभी से अपेक्षाएं रखता हैं, जिनके पूरे न होने पर उसे संताप होता हैं, यह उसकी अपनी उत्पन्न की हुई समस्या होती हैं, कभी कभी इसके लिए वह ईश्वर तक कोई दोषी ठहरा देता हैं।
मेरी यह कविता उसी आवेग का विश्लेषण हैं..........
शब्दों का एक अविरल प्रवाह,
अवचेतन में,
एक फाँस चुभी है, तर्जनी में,
और एक मन में..................
विचित्र हैं पर सत्य यही,
कल सुख देती थी, आज पीड़ा......
कदापि यही भाग्य,
यही प्रारब्ध की क्रीडा.........
समय बीता तो बन गई,
अंश अस्तित्व का........
आधा भाग जीवन का,
आधा व्यक्तित्व का..........
साथी बनी थी, आकुलता बन कर,
आज शत्रु सद्रश, व्याकुलता बन कर..........
प्रेम, ईर्ष्या, मोह के आवेगों में बहता,
नवरूप को खोजता.......
वर्षों की पीड़ा मन में,
और मन की पीड़ा वर्तनी में.......
एक फाँस चुभी हैं, तर्जनी में........
शीश अब भी झुके, समक्ष ईश के,
थोडी वितृष्णा ह्रदय में,
पूरी श्रृद्धा नमन में,
पर कोई फाँस चुभी हैं, मन में.................
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