Wednesday, August 29, 2012

और तुम......!

कभी थकान भरी निराशा को,
साथ लेकर,
हदों के पार जाने की कोशिश ......!

ये जो तुम मिलती हो मुझसे,
शाम की उदास लहरों की तरह ......!
 जैसे सहला रहे हो,
ज़ख्मो को आहिस्ता ....!

कभी जहां भर की ख़ुशी को,
खुद में समेटे,
जोश से लबरेज़,
लिपट जाती हो मुझसे ........!

मुझे झरने पे उछलती,
पानी की बूंदे याद आती हैं,

जब भी कभी तुम आती हो,
सर्द एहसास बन कर ...........!

बैठ जाती हो कभी यूं चुप हो कर,
कि समेट लेती हो शाम की,
सारी लाली  अपने आँचल में ..........!
और मेरा अस्तित्व,
रंगहीन लगता है मुझे ........!

देखो तुम ही तो,
सारा संसार हो ..........!

मेरे तुम्हारे रिश्ते जैसा..............!

,
देखो तुम फिर याद आ रहे हो,
मुझसे मत कहना,
कि लिखा मत करो .......!

खुद ब खुद छलकती है, स्याही,
भीगते हैं, कागज़ .......!

मुझे वैसे भी,
रंगीन कागजों को,
सिरहाने रख सोने की,
आदत ही कहाँ है .......?

जला ही देता था,
पर तुम .........!
संजो संजो रखते रहे ......!

ये  पेन तुमने ही पिरोया है,
उँगलियों में मेरी,
अब जुदा करते बनता नहीं ........!

यूं तो अरसा गुज़र गया,
पर जब तब,
बरबस खींच देता है, अक्स,
ये नामुराद न जाने कैसे कैसे,
सादगी से लिपटे सफ़ेद पन्नो पे ......!


तुम जब भी,
मुझे झूठा कहतीं,
मैं मन ही मन सोचता ....!

यार तुम से तो कभी नहीं कहता ...........!

ये कमबख्त पेन,
पुरानी सब सच्चाईयाँ खोल रहा है,

इस नज़्म में भी ढीला है कुछ,
अब ..........!
मेरे तुम्हारे रिश्ते जैसा ............!

बस ये सवाल रह गया है.....

तुम्हारे पीछे यादो ने,
मुझे तंग कर रखा हैं........

तुम जाओ,
ये खुद खुद चली जायंगी.....


बेतरतीब कमरा,
रोज़ पूछता हैं,
तुम कब रही हो.....


दूध अब भी गरम कर देता हूँ,
हर शाम, ये सोचते हुए,
सुबह तुम्हे चाय पीनी होगी.......


तुम उस दिन झगड़ते हुए,
कमीज़ के सब बटन तोड़ गई थी.....

हर रोज़ लगाने बैठता हूँ,
फिर बैठा ही रह जाता हूँ.......
एक जंग मेरे भीतर शुरू हो जाती है.....


रात अचानक नींद से जाग,
तुम्हारा नंबर मिला दिया..........
पहुच से बाहर था......

कौन कहता है,
फ़ोन ने दूरी मिटा दी है.............

क्यों चले गए हो,
सब यही पूछ रहे हैं.....
तुम्हारे बाद, बस ये सवाल रह गया है.....

पहेली...........!

जब भी.......
यथार्थ की सीमा से परे,
ले जाते हो ........!

तुम तो निराकार हो कर,
रम जाते हो,
सृष्टि में ..........!

परन्तु मेरे भौतिक अस्तित्व पर,
लग जाता है प्रश्नचिन्ह,
 मैं अपनी संवेदना को,
कौतुहल में पिरो कर,
जपता हूँ, कुछ अनसुलझे से शब्द ........!

फिर तन्द्रा भंग होने के साथ ही,
उग्र आवेग में बह जाता है,
सारा विश्वास, और ........!

एक क्रान्ति जन्म लेती है,
जिसे तुम्हारी सृष्टि,
अवज्ञा, नास्तिकता,
और ना जाने क्या क्या कहती है,

मैं उस क्रान्ति का,
अंतरिम भाग बन कर भी,
उद्विग्न रहता हूँ ..........!

भ्रम बढ़ता जाता है,
पल प्रतिपल,

अब सुलझा दो इसे,
ये पहेली पीड़ा देने लगी है ..........!

पानी के साथ...........!

गर्मियों की उमस भरी दोपहर में,
उकताया हुआ,
खुद पे थोडा गुस्साया हुआ,

शहर की बदनाम गलियों से,
गुज़रा मजबूरन ............!

फिर एक कार को रुकते,
और एक लड़की को,
उस से उतरते देखा .......!

मैं बढ़ गया,
पान की इक दूकान की ओर,
नज़र चुरा कर ......!

और लड़की मेरी ओर ......!


पानी की एक बोतल,
बुझा रही थी प्यास, बढ़ रही थी लड़की मेरी तरफ,


खाली बोतल फेकने से पहले,
उसने टोका मुझे,
ऐ बाबू  ............!


जैसे वो कार वाला कमीना,
फेक गया है मुझे,
तुम मत फेको इसे ..........!