दूसरों की राह पे चला नही,
पर मैं भी तो कोई भला नही..........
गैरों के हाथ में देख,
खूबसूरत हाथ,
क्या कभी मेरा दिल जला नही...........?
मेरे पास बस इतने ही लफ्ज़,
बस इतनी ही बातें,
कुछ उजले दिन, कुछ अँधेरी रातें.......
शायद तुम मेरे साथ हो,
तो फिर तन्हाई क्यों है.........?
यूँ साथ हो के, जुदा जुदा हो........
मेरे साथ ये परछाई क्यों है.........?
क्यों रात भर नींद नही आती मुझे,
क्यों रात रात भर मैं करवटें बदलता हूँ,
कभी तकिया बदलता हूँ,
कभी उसकी सलवटें बदलता हूँ................!
जब कुछ भी पेश-ऐ-नज़र नही होता,
तब भी मेरी निगाहों ने,
तुझे देखा है............
अंधे यकीन को लिए जिए जाता हूँ,
इक बिरहमन ने कहा था,
मेरे हाथ में तेरे नाम की रेखा है................
Sunday, May 31, 2009
Wednesday, May 27, 2009
युग्म...........
बस रुकी तो....डिवाइडर पर लगे पेड़ों पे,
नज़र पड़ ही गई,
लोहे के तारों की बाड़ में घिरे,
नन्हे से पौधे को देखा
सुकुमार, कोमल, सुंदर........
और जंग लगे लोहे का संरक्षण..........
युग्म विचित्र सा लगा.......
मुझे विचारमग्न देख,
बाड़ को हँसी आ गई,
जैसे पापा हँसते थे.................
मैंने कारण पुछा तो,
एक मुस्कराहट का,
प्रत्युत्तर मिला...........
बस चल दी तो,
शरारती नन्हे पौधे ने,
शुभविदा कहा..................
पाँच साल बाद फिर बस रुकी है,
ठीक वहीँ,
पर दृश्य में सिरे से परिवर्तन है..........
बाड़ जर्जर हो चली है............
और यौवन था उस पौधे पर..........
पौधे ने अभिवादन किया,
मैंने विश्लेषण कर लिए स्थिति के........
परीक्षण किया युग्म का........
युवा पौधे की शाखों ने,
बाड़ की रिक्तियों से निकल कर,
उसे थाम रखा था.......पूरी मजबूती से......
युग्म में मुझे,
पिता पुत्र का रिश्ता दिख गया........
बस फिर चल दी है,
पौधे का शालीन सा अभिवादन आया है,
जर्जर बाड़ को,
थामे रखने का वादा किया है उसने.................
नज़र पड़ ही गई,
लोहे के तारों की बाड़ में घिरे,
नन्हे से पौधे को देखा
सुकुमार, कोमल, सुंदर........
और जंग लगे लोहे का संरक्षण..........
युग्म विचित्र सा लगा.......
मुझे विचारमग्न देख,
बाड़ को हँसी आ गई,
जैसे पापा हँसते थे.................
मैंने कारण पुछा तो,
एक मुस्कराहट का,
प्रत्युत्तर मिला...........
बस चल दी तो,
शरारती नन्हे पौधे ने,
शुभविदा कहा..................
पाँच साल बाद फिर बस रुकी है,
ठीक वहीँ,
पर दृश्य में सिरे से परिवर्तन है..........
बाड़ जर्जर हो चली है............
और यौवन था उस पौधे पर..........
पौधे ने अभिवादन किया,
मैंने विश्लेषण कर लिए स्थिति के........
परीक्षण किया युग्म का........
युवा पौधे की शाखों ने,
बाड़ की रिक्तियों से निकल कर,
उसे थाम रखा था.......पूरी मजबूती से......
युग्म में मुझे,
पिता पुत्र का रिश्ता दिख गया........
बस फिर चल दी है,
पौधे का शालीन सा अभिवादन आया है,
जर्जर बाड़ को,
थामे रखने का वादा किया है उसने.................
समझोगे कभी................?
यूँ आधी रातों को उठ जाना,
तुम्हे भुलाने की कोशिशें करना,
कोहरे से ढकी सड़कों पे,
भागना बदहवास............
क्या समझोगे कभी..............?
कभी भीड़ के बीच खड़े हो कर,
कभी पानी की धार के नीचे,
कभी पी कर बेहिसाब,
कभी मन्दिर-ओ-मजार के पीछे..........
तेरी दिल तोड़ने वाली बातों को,
भुलाने की वो कोशिशें............
काश ये दर्द तुम भी जानो............?
तुम्हे क्या पता,
कितना बदला था,
मैंने ख़ुद को, बस तुम्हारे लिए.......
अब हर बात कहने से पहले,
सोचते और बस सोचते रहना........
चुप रहना भी सीख लिया मैंने............
क्या तुम्हे महसूस हुआ कभी.....................?
आईने के आगे खड़ा हो कर देखूं,
वो पुराना अक्स नही दिखता,
ये तो कोई और है,
जिसे बनाया है तुमने,
और फिर मैंने.........मिल कर..........
हैरान भी हूँ, परेशान भी,
के जीना तो है मुझे..........
पर हर रोज़ मरते हुए...................
तुम्हे भुलाने की कोशिशें करना,
कोहरे से ढकी सड़कों पे,
भागना बदहवास............
क्या समझोगे कभी..............?
कभी भीड़ के बीच खड़े हो कर,
कभी पानी की धार के नीचे,
कभी पी कर बेहिसाब,
कभी मन्दिर-ओ-मजार के पीछे..........
तेरी दिल तोड़ने वाली बातों को,
भुलाने की वो कोशिशें............
काश ये दर्द तुम भी जानो............?
तुम्हे क्या पता,
कितना बदला था,
मैंने ख़ुद को, बस तुम्हारे लिए.......
अब हर बात कहने से पहले,
सोचते और बस सोचते रहना........
चुप रहना भी सीख लिया मैंने............
क्या तुम्हे महसूस हुआ कभी.....................?
आईने के आगे खड़ा हो कर देखूं,
वो पुराना अक्स नही दिखता,
ये तो कोई और है,
जिसे बनाया है तुमने,
और फिर मैंने.........मिल कर..........
हैरान भी हूँ, परेशान भी,
के जीना तो है मुझे..........
पर हर रोज़ मरते हुए...................
यूँ भी हो...........
ख्यालों में अपने,
एक सफ़्हा मैं यूँ भी लिखूं.........
के दो पल को तू मैं हो जा,
और मैं तू हो सकूं...........
अलमस्त फुर्सत से,
मैं भी पहचान निकालूँ,
दिल के सारे,
दबे अरमान निकालूँ.........
हसरतों के माथे,
पसीने की बूंदे न हों.........
न पेशानी पे सलवटें.........
एक रात कोई ऐसी भी गुज़रे,
नशा हो तेरा बेहिसाब,
फिर देर-ओ-सहर तक न उतरे...............
कभी चाँद यूँ भी हो रोशन,
के भरी दोपहर तक न उतरे.............
एक सफ़्हा मैं यूँ भी लिखूं.........
के दो पल को तू मैं हो जा,
और मैं तू हो सकूं...........
अलमस्त फुर्सत से,
मैं भी पहचान निकालूँ,
दिल के सारे,
दबे अरमान निकालूँ.........
हसरतों के माथे,
पसीने की बूंदे न हों.........
न पेशानी पे सलवटें.........
एक रात कोई ऐसी भी गुज़रे,
नशा हो तेरा बेहिसाब,
फिर देर-ओ-सहर तक न उतरे...............
कभी चाँद यूँ भी हो रोशन,
के भरी दोपहर तक न उतरे.............
तुमने आवाज़ दी थी.........
बारिशें भाती न थीं,
बूँदें दिल में आरजू जगाती न थीं,
सुबह आ के जगा जाती थी,
रात जाते जाते,
रुला जाती थी...............
कोई अपना भी है ज़माने में,
ये एहसास कहाँ था,
सुकून तो था दुनिया भर में,
पर मेरे पास कहाँ था..............
उठते गिरते कदम लिए जाते थे,
नामालूम मंजिलों की ओर,
गुमसुम तन्हाई चलती थी संग संग,
मुझे डराती थी और...............
तुम्हे देखती थी,
मेरी हसरत भरी निगाह हर रोज़,
तमन्ना तरस जाती थी,
सरे-राह हर रोज़...........
उन दिनों जब मैं ख़ुद से,
खफा खफा था,
तुमने आवाज़ दी थी,
एक रोज़ मुझे रोका था..........
पूछा था.............
क्यों ख़ुद पे सितम करते हो?...........
दोस्तों से,
राज़-ऐ-दिल कहने से डरते हो?............
बस यूँ ही देखता रह गया था,
तेरी आंखों के फरेब को,
तड़प कर पूछा था,
दिल ने उसी पल
दोस्त कहते हो..........
पर क्या आंखों की जुबां समझते हो?..............
दिल तो कह गया,
पर मैं न कह सका,
ज़माने से था,
तुम से था,
ख़ुद से भी मैं खफा खफा था...............
हाँ पर आज भी याद है मुझे,
तुमने पीछे से आवाज़ दी थी,
मुझे रोका था..........................
बूँदें दिल में आरजू जगाती न थीं,
सुबह आ के जगा जाती थी,
रात जाते जाते,
रुला जाती थी...............
कोई अपना भी है ज़माने में,
ये एहसास कहाँ था,
सुकून तो था दुनिया भर में,
पर मेरे पास कहाँ था..............
उठते गिरते कदम लिए जाते थे,
नामालूम मंजिलों की ओर,
गुमसुम तन्हाई चलती थी संग संग,
मुझे डराती थी और...............
तुम्हे देखती थी,
मेरी हसरत भरी निगाह हर रोज़,
तमन्ना तरस जाती थी,
सरे-राह हर रोज़...........
उन दिनों जब मैं ख़ुद से,
खफा खफा था,
तुमने आवाज़ दी थी,
एक रोज़ मुझे रोका था..........
पूछा था.............
क्यों ख़ुद पे सितम करते हो?...........
दोस्तों से,
राज़-ऐ-दिल कहने से डरते हो?............
बस यूँ ही देखता रह गया था,
तेरी आंखों के फरेब को,
तड़प कर पूछा था,
दिल ने उसी पल
दोस्त कहते हो..........
पर क्या आंखों की जुबां समझते हो?..............
दिल तो कह गया,
पर मैं न कह सका,
ज़माने से था,
तुम से था,
ख़ुद से भी मैं खफा खफा था...............
हाँ पर आज भी याद है मुझे,
तुमने पीछे से आवाज़ दी थी,
मुझे रोका था..........................
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