Tuesday, December 8, 2009

वफ़ा की वो बू………..

हमे कर के किर्चा किर्चा…..
टुकड़े टुकड़े............

वो सोने चले जाते हैं....!

उनको नींद जाती है.....?

ये बात हमको समझ नही आती.....!

यू तो अब तक ये गुल--मोब्बत है,
पर अब इस से वफ़ा की वो बू नही आती........!

Thursday, November 5, 2009

न हम उन्हें जान कहते है..........

मिटा के अरमां,
उजाड़ गया आशियाँ,
इसे ही तो तूफ़ान कहते हैं..........

एक तूफ़ान आया,
और चला गया

न अब वो हमें शोना कहते हैं......
न हम उन्हें जान कहते है..........

लडाइयां.......

ह्रदय से अंतर्द्वंद ही,
हरा देता हैं मुझे...........

यूँ तो कितने ही किले,
फतह किए मैंने...........

वो मेरे हर्फ़ क्या समझेगा..........

कहते हैं लोग.....
गूँज सन्नाटे की है,
आवाज़ सबसे तेज़..............

तो इक सवाल उठ गया दिल में........

जो मेरी चुप्पी न समझा,
वो मेरे हर्फ़ क्या समझेगा..........

अजीब है मयकदा मेरा.......!

इस से बढ़ कर,
और क्या मुफलिसी होगी......?
की आज बिक जाने को,
राज़ी हूँ मैं.........

किस्मत से चुक गया हूँ,
मयस्सर नही,
दस्त-ऐ-खाक भी,
बस ईमान से,
थोड़ा बाकी हूँ मैं...........

अजीब है मयकदा मेरा.......!
ख़ुद मैं ही ग़म, मय भी मैं,
पैमाना भी ख़ुद, और जाम मैं,
जामनोश ख़ुद, ख़ुद साकी हूँ मैं..........

टूटा था बिखरता था.........!
तो कौन दस्त आगे बढ़ा.......?
छुपाते छुपाते, इक अश्क छलका,
यूँ बदनाम हो गया........
कि ज़ज्बाती हूँ मैं...............

जीत न सका, हालात से,
न उनसे.......
पर ख़ुद को ख़त्म कर देने को,
काफ़ी हूँ मैं........

उनसे तो मौत बेहतर,
जब छोड़ चले सब, तो पुचकारती है,
कहती हैं.................
आ तुझे गले लगाती हूँ मैं............

नई शुरुआत...........

यूँ निचोड़ ली,
जिस्म से जान उसने...
जाते जाते कह गया......
ये आखिरी मुलाकात थी...

इधर जो रही थी,
जनाजे की इब्तेदा......
उधर.......
जोड़े और मेहंदी की बात थी.......

हम उस पल को ही,
जिन्दगी मान जीते रहे.......
जो उसके लिए,
आम सी इक बरसात थी.......

इन्तहा सितम की,
हमने तब जानी, जब वो बोला,
गर बेपनाह मोहब्बत की,
तुने क्या नई बात की...........

आख़िर लगा ही लिया,
मौत को गले,
इस तरह हमने,
नई जिंदगी की शुरुआत की..........

Wednesday, November 4, 2009

ऐ गर्दिश अब तो......

किसी महफिल में,
रुसवा न करा दे तू मुझे.....

बस यही सोच कर,
मैं कभी, दिल की न सुन सका.....

ऐ गर्दिश अब तो तरस खा मुझ पर........

कमबख्त तू.....!
मेरी धडकनों से भी,
ज्यादा चाहती है क्या मुझे.......?

जुदा हो भी जा अब......!

जीने दे सुकून के कुछ पल,
कुछ रोज़ को तो मेरा,
साथ छोड़ दे...........!

इक रूह बची है आखिरी,
इसे तो बेचने को,
मजबूर न कर............

तू बेहया है,
तो मैं......!
शर्मिंदा रहता हूँ..........!

चंद टूटी दीवारों में,
छुपा रहता हूँ..........

कहीं यार लोग,
न दे दें, आवाज़ महफिल के लिए.....

आज पी ली, तो कल पिलानी होगी.......

इस दाना-ऐ-ख़ाक को भी,
महफिल की रवायत निभानी होगी.......

बोझ.....

जरूरी नही कि हर कविता कि भूमिका तैयार की ही जा सके, कुछ कवितायें जीवन का दर्पण होती हैं, या घटनाओं का प्रतिरूप.......

प्रतिरूप..............?

हाँ ये कविता भी प्रतिरूप ही तो है.............!


सोचा था मिल कर,
जिन्दगी की कहानी लिखेंगे.......

तुम आरम्भ हो जाना,
हम अंत हो जायेंगे..........

उस दिन कुछ उम्मीदों को
जन्म दे कर गए थे तुम.......

वो उम्मीदें हैं कि
जवान हो चली हैं.......

पूछती हैं, माँ कहाँ है........

क्या कहूं..............?
यही............?

कि यही सवाल मैं ख़ुद से पूछा करता हूँ.......?

बहला दिया करता हूँ.......
कोई झूठी कहानी सुनाता हूँ,
कोई बहाना बना दिया करता हूँ.....

पर तम्मनाएं..........!
तुम्हारी ही सयानी बेटियाँ हैं......!
तुम जैसी ही कुशाग्र.......!

पकड़ लिया करती हैं....!
मेरा हर झूठ...!

और अब कुछ तो,
कहानियों का अंत भी पूछने लगी हैं.......!

एक रोज़ हमारी एक बेटी,
सबसे छोटी तमन्ना.....
खेल खेल में........

एक रिश्ते का नाज़ुक धागा......
ले आई मेरे पास.......

पूछ बैठी, सबसे जटिल प्रश्न.........!
ये क्या है........?

मैं स्तब्ध भी था, चिंतित भी,
उसे भी जवाब देना था, ख़ुद को भी...

क्या कहता उसे.......
ये वही धागा था.......

जिसका आरम्भ तुम थे,
अंत हम........

मुझे याद दिला गया......

तुम्हारा यूँ चले जाना......
इतनी बेटियों का बोझ,
मुझ अकेले को दे कर......

समझ गया हूँ,
ये बोझ क्या होता है........

लौट आने की,
सांत्वना भी न दे कर गए......

और वो धागा......
जो जोड़ता था,
आरम्भ को अंत से........

अब छूटने लगा है......
मैं कमजोर होने लगा हूँ...........

Thursday, October 29, 2009

इक गुजारिश है.........

एक पत्ता टूट कर,
शोर मचाता चला जाता है,
तेज़ बहती हवा के संग.....
खुश, इठलाता..........

सोचता.........
फिर कोई नया उग ही आएगा,
ये डालियाँ, यूँ ही,
वीरान तो न रहेंगी.......

पर ये निशाँ छोड़ गया है जो,
सवाल बन माथे पे लगा है........

कल को लोगों के सवालों का,
सबब बन जाएगा......

जुदा हो के भी,
कितना जुदा हो पायेगा,

रंग बदल कर हो जाएगा पीला,
पर क्या पहचान बदल पायेगा....

उसको जिद है, तन्हा रहने की.......

कोई जा कर कह दे,
दरख्त से टूट कर पत्ते,
ज्यादा जिया नही करते..........

बाद मरने के भी दुनिया,
पहचान लिया करती है.......

एक गुजारिश है,
एक पतझड़ और साथ गुजार ले.......

मुझे फ़िक्र है तेरी बहुत.............

Thursday, September 24, 2009

प्रश्न और विडम्बनाएं..........

ख़ुद से मेरे प्रश्न और उनसे जुड़ी विडम्बनाएं मेरा पीछा नही छोड़ रही हैं.......इसी क्रम में एक कविता ने और जन्म ले लिया.....

कोई छंद लिखूं कैसे,
कैसे एक और मुक्तक लिखूं...........
कैसे स्वयं की परिभाषा लिखू...............?

दर्पण की मुझसे विरक्ति लिखूं,
या आहत ह्रदय की कहानी लिखूं॥?
कैसे टूट गई एक आशा लिखूं.............?

स्वयं से स्वयं का विद्रोह,
और समर्थन कभी,
या ह्रदय है कितना प्यासा लिखूं..........?

उडेल कर रख दूँ ख़ुद को,
की रिसने दूँ पीड़ा थोडी थोडी,
या घाव लगा है, ज़रा सा लिखूं..........?

माना की झूठा है अंतस कभी कभी,
पर सिर्फ़ मुझसे ही न,
धूल सना या जंग लगा,
या सच्चा सोना खरा सा लिखूं..........?

विडम्बना तो ये भी एक,
की तुम लिख रहे हो मेरी कहानी,
मैं लिखूं भी तो क्या लिखूं............?

Thursday, September 17, 2009

ऐसा क्यों है.............?

मेरे जेहन में सवालों का एक सिलसिला कुछ रोज़ से दरिया बना हुआ है.............


एहसान कर दिया,
मेरे फलक पे आ के,
पर मेरा चाँद, आधा क्यों है.......?

कब गुरेज़ था सहने से मुझे,
पर ये तो बता,
मेरे ही हिस्से, दर्द ज्यादा क्यों है.........?

जिन्दगी किए जा रही है,
मुझसे वादे पे वादे,
फिर ये खुदकुशी का इरादा क्यों है...............?

कह दे की अब तू ही खुदा है मेरा,
या ये बता........
हंसाता है, फिर रुलाता क्यों है.............?

या तो हर दफा राह भूला हूँ,
या ये जहाँ ही तेरा हो गया,
जो भी मिला, हर मुसाफिर,
तेरे ही घर का पता बताता क्यों है..............?

मेरे जिस्म के बिखरे हिस्सों का,
बनाया जाता है ढेर, बाद-ऐ-कत्ल,
फिर हर कोई, ढेर पे एहसान जताता क्यों है............?

प्यार की शिद्दत,
नज़र आती है, जब आंखों में,
तो हर शख्स मुझे आजमाता क्यों है.............?

माना की क़यामत थे,
कुछ लम्हे हमारे,
पर तेरी याद की दाना आहट से भी,
मेरा हर रंग थरथराता क्यों है..................?

रौशनी देख खुश हो...............?
नाचो गाओ दोस्तों,
पर ये भी पूछो,
गौरव आख़िर अपना घर जलाता क्यों है............?

Wednesday, September 9, 2009

When Culture Emerged

That crescent moon,
of human origin...............
Rose somewhere,
in the middle of the world........!

When nature bet new bait,
and evolution penetrated,
the anthropoids,
Differentially.........!

Standing on the bank of Nile,
He bowed his head,
To the Sun,
and offered himself,
to the Nature,
with the intution...........!

Amused, Surprized moreover Wondered,
Gazing the animal flocks in day,
and stars at Night.............!
Just began to analyze,
Began to scale..............!

When one different,
Made others different..........!
Took them with,
To live with..............!
They learned feeding, to live........!
Stopped living to be fed only..........!

Somthing happening,
In and out of him,
it was emersion,
Different from feelings,
It was thought..........!
Something most infectious,
Ever existed...........!

When someone different,
Thought somethingdifferent,
Rose his hand,
Pointed towards the horizon,
to show the beauty,
of nature's creation,
to rest of the fellows...........!

Cultured emerged,
from very inside of first,
the first human.........!

क्या तुम न आओगे.........?

एक दोस्त जो जिन्दगी बन गया था, बिछड़ गया था..................और खो गया हमेशा के लिए.........याद आता है, हर उस दोपहर जो आग बन कर बरसती है मेरे सर पर और मैं एक छाँव की तलाश में भटकता रहता हूँ...........


सब कहते हैं,
के अब तुम न आओगे लौट कर........
दूर चले गए हो न,
बहुत दूर.............
तुम्हारी याद क्यों नही जाती..............?

कहते हैं,
तुम्हे जन्नत नसीब हुई होगी...........

मुझे धोखा क्यों दिया.....?
क्यों छोड़ दिया अकेला.......?
वादा किया था,
जुदा न होगे.........!

सोचता हूँ, फिर सोचता रहता हूँ.....
मैं क्यों हूँ.........?
क्यों ठहर जाया करता हूँ......!

इन सूनी गलियों में,
बंद दरवाजों से,
उलझता रहता हूँ,
इनसे मेरा रिश्ता ही क्या है.........?
सब तो तुम्हारे थे........?

क्यों मैं दीवारों पे,
हाथ लगाते चलता हूँ......?
कुछ भी नही अब,
इन मुर्दा दीवारों में.........!

हाँ कहीं कहीं, कुछ धब्बे,
खून के..........
दीवारों के संग लिपट कर
सूख चुके.......

एक चिपचिपे से धब्बे पे,
ठहर गया है हाथ.......
वहीँ जहाँ तुम खड़े थे,
टिक कर, मुझे बाहों में लिए,
जूझते अपने दर्द से.......

ये धब्बा,
क्यों नम है अब तक........
बिल्कुल तुम्हारे उस रुमाल जैसा,
जिसे तुमने बाँधा था,
मेरे कंधे पे.............

तुमने देख ली थी वो छोटी से चोट,
पर मैं न देख सका वो गोली,
जो मुझे लगी थी,
पर तुमसे हो कर.......

तुम्हारी ही बाहों में,
होश खो दिया.....

फिर तुम्हे खो दिया...........

हाथ का ज़ख्म भर चला है,
दिल का हर रोज़ हरा हो जाता है..........

वो हाथ हिंदू थे के मुसलमान,
नही पता.........
पर हथियार हर हाथ में थे..........

कौंधती हैं यादें,
अब भी उस दोपहर की......

जब तुम खड़े थे,
मेरे और हर वार के बीच,
मेरे आगे, पीछे और हर तरफ़.....
उन हाथों से बचाने के लिए...............

बचा भी लिया,
पर अब कौन बचायेगा........
जल्द ही किसी रोज़,
इस शहर में, फिर दंगा हो जाएगा.................

बाद-ऐ-हयात......

इक एहसास बाद मरने का, पुरसुकून लगता है, शायद अब तभी आराम मिले पर.......................ये कमबख्त उम्मीदें..................

ख़त्म हो गयीं,
इश्क की सब शोखियाँ,
उठ गई महफिल,
जाम क्यों छलका.......
साकी की तरफ़ से,
अब ये शरारत क्यों है............?

कत्ल कर दिए हैं,
अरमान सभी,
तो फिर किसकी है ये............
नशेमन में,
बू-ऐ-बगावत क्यों है...........?

दफ्न कर देता हूँ.........

उठ उठ के आ जाती है,
इस उम्मीद को जिन्दगी से,
इतनी सलाहत क्यों है..........?

पुरसुकून है, जेहन बाद मरने के,
पर कहीं तो खलबली मची है.........

कमबख्त इस मुर्दा जिस्म को,
इतना जीने की आदत क्यों है.............?

Sunday, September 6, 2009

ग़लतफहमी.....

हम पे भी गुजरी है, कुछ ऐसी ही,
ख्यालों से परे जा कर देखा,
तो दुनिया ही कुछ और थी...........




क्या कभी ये नही हो सकता कि किसी की आंखों को या किसी की आँखे हमें ग़लत पढ़ते रहें............कई दिन, महीनो, सालों या फिर सारी उमर..........

Sunday, August 30, 2009

शगल...........

बड़ा सुर्ख दिख रहा है लिफाफा,
ख़त खून से न लिख बैठा हो नादाँन,
हाथ कांपते हैं, खोलते हुए,
पर क्या करू,
ख़त ही मेरे नाम है........!

इस कदर नफरत हो चली,
उसे मुझसे,
की हाथ काट बैठा............
कहा करता था...........
उसके हाथों की लकीरों में,
मेरा ही नाम है...............!

मैं भी काटता रहता हूँ,
अपने हाथों अपना ही गला........
मेरा भी यही शगल,
यही अब मेरा भी काम है.............!

Friday, August 28, 2009

एक नया सुखन......

इक सुखनवर कहा करता था.....
क्या बुरा था मरना जो एक बार होता...........

और एक हम........

इस कदर है पसंद मरना....
काश ये बार बार होता...........

एक तड़प तो देख ली,
तुझसे जुदा हो कर.........

वो दर्द भी देखते,
जब कोई खंज़र,
वाकई जिगर के पार होता.........

लुत्फ़ बढ़ जाता शायद,
और एहसास-ऐ-दर्द भी,
जब तेरे ही हाथ,
वो वार होता...........

दुल्हन.......

कुछ सुबहें और शामे जिन्दगी भर याद रह जाती हैं............
एक सुबह ऐसी ही गुजरी थी.......


पत्तों पे जमी ओस,
चमकने लगी है,
रात का स्याह घूंघट,
जो हट रहा है........

हया की लाली,
नज़र आने लगी है,
खुश हैं परिंदे...........
कि दुल्हन आने को है,
फिजा में,
फैलने लगी है खुशबू

सुबह बन के हसीना,
अलसाई सी है,
उठ रही है,

अभी अंगडाई ली है...............

Saturday, August 15, 2009

This was my turn

The moment,

When your silent smile,

Convinced me……!

Kept me alive……….!

Like I will be alive forever……

Till the day you beat inside………..!

Being the pulse…….!


 

Yes, I do remember

Do you do……?

Those promises, we made….!

Holding you, in my arms…….!

In those silent moments……..!

When you locked my voice,

Within your lips…….!


 

Do you remember……?

Those commitments……….!

You made with me……!

Aggressive, passionate, almost mad……..!

Those Promises to kill,

If being apart………..!

I remember………..!

Yes I do……..!


 

OK, tell me,


 

Though you are in my arms……..!

Why do I feel distance?

Thousand miles distance…..!

Even if you hold my hand,

Walk beside me…….!

And now what……?

If I see you going,

Away, far away……….!


 

Why…..?

I feel my breath stopped……….?

Feel the pulse disappeared,

It was you…..!

Are you nowhere within me…….?

Any more……….?


 

May be…….?

You follow those promises to kill,

So you kill me…….….?

But why so slow…….?

Why made it so painful…….?


 

You have been the kind most,

Just be once,

Once again………

Kill me,

Silently, fast, unfairly….!


 

Unfairly ??????????


 

Oops…………

I had to be you……..!


 

Yes this had to be me

Because this was my turn….?

A wish in the rain

It rained

Like never before

Just wished to walk

So was out…………


 

Beauty of rain,

In its sparkling drops,

Welcomed, open heartily…..


 

Don't know why,

But I am smiling,

Walking alone,

On the lonely road………..


 

Every drop

Refreshed my face….

Perhaps not my inner……..

Because……….


 

Felt like you touched me……..

With your wet hairs…….!

Was this you………?

Raining on me………..?


 

No…………!

You were so far…….

Hundreds of miles away….

How could you touch me………..?


 

Is it just a pain,

That made me smile………

Yes I remember,

You said that day…….

Pain makes you smile………..

Was I really smiling?


 

Yes I felt again,

That salty taste again,

Taste of tears………..

Raining along with……

Creeping on my cheeks,

Again.....!

Sorry....Disobeyed you,

Can't hold any more..........

That old taste,

That returns time to time….

When I miss you……..

When this distance,

Makes me mad………


 

It rained outside,

It's raining inside,

I am all alone…….

Just wishing…….

Come back Jaan…….

I am dying…….!

Monday, August 10, 2009

Blind nights 1

Realy this was you only who made me realizing being live and tought me lession of colourfull life..............................
.....
Yes I remember,
When I was Sneezing,
You awakened all the night,
Holding my hand,
It was just cold for me,
But not for you.................
.............
Yes I do recall,
Brightness of those blind nights,
The night when,
Holding my hand,
You said straight,
Looking into my eyes,
'Shona' ham hain na................
........
Yes I miss,
Twinkles of your,
Sudden appearance,
You turned every cry of mine,
Into pleasent smiles,
Just holding my hands.............
..........
Yes I Miss,
You hold my hand,
Walked right beside me,
When I was 'Insomniac',
You made yourself also,
Just to be with me,
Desperately............
................
Yes I do remember,
All those moments,
You made me realizing,
Being a living, a human,
When you kissed me,
When you touched me..............
..................
It was night only,
That was with me,
Became Jealous of you,
Because couldn't love me,
More than you,
Left me every morning,
And you always being with me,
Always.............
....................
Yes I miss,
Your desparate calls,
Every hour,
When my loneliness,
Was to kill me...........
.................
Yes I miss,
Those Unforgettable moments
When People said me,
Psychic and abnormal.......
................
And yes still in my consious,
That limitless support,
When two hand,
Holding my hands said,
'Shona' you are just different............
................
I found myself live,
In those blind nights,
You were with me.............

Sunday, August 9, 2009

Those blind nights 2

Time has changed and you as well........................I do realize the change and my heart again scared of these blind nights............................
Moments of agony,
Those strange expression,
In you acts,
and,
When you said,
I feel sleepy.........

I felt broken,
All alone and tired.....

A question pounded inside me,
With every heartbeat,
Who was I.........?

Those sleepless nights,
When you said,
Good night,
And me too,
But half heartly........

Awakened, surprized
And waiting for your call,
In those dark nights.............

Nights, that have been,
Nightmares, time to time....

Making me realized,
That I am still.........

Five year's boy,
Scared of evermate,
Lonliness, my lonliness,
Surviving just within me.......

Though you said always,
You are mine,
But sometimes I find,
You nowhere.......

Nights when I saw my beliefs,
Dissolving, disappearing,
In my tears,
My silent moans,
Couldn't appoach you.........

I wonder,
Were you realy part of me......?

Thursday, July 23, 2009

ख़ुद को अकेला न लिखो..............

मेरे कुछ संवेदनशील यार दोस्त अपना अकेलापन मेरे साथ बाँट लिया करते हैं और कभी कभी इसी बात पर मैं उनकी चुटकी भी ले लिया करता हूँ...........ऐसे ही एक मौके पर एक कविता भी अस्तित्व में आ गई.........


खुशबू बन,
महकने का जज्बा ढूंढते,
दीवानों का टोटा है.............

खेल के मैदान छोटे,
घर छोटे,
कमबख्त इस शहर का,
दिल भी छोटा है........

रोज़ी छीनते शिकारियों के,
हुजूम यहाँ,
कुछ रोटी भी छीन लेते.....
कुछ मासूमो के जिस्मो से,
बोटी भी छीन लेते..........

सड़कों की नालियों में,
कीडों के मानिंद.........
बजबजाते लोग........

अलसाते निकलते सुबह,
दिन भर की परेशानियों में,
लिपटे सने घर आते लोग.......

मुर्गी, चूजे जैसा इंसान यहाँ,
दडबों जैसे घर,
जिस्मो से अटी सड़कें,
गलियों में,
बाढ़ से उफनते सर.........

इतनी भीड़ है शहर में,
कि दम घुटता है..........

कमबख्त अब कोई शायर,
ख़ुद को अकेला न लिखे.............

Sunday, July 19, 2009

आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

अपनी दबी ढकी उम्मीदों, तम्मनाओं को हम अकेले में उलट पुलट कर देखते रहते हैं, कुछ खुशी दे जाती हैं और कुछ दर्द। कभी कभी कोई ऐसी तम्मना भी टकरा जाती है दुबारा हमसे, जो रुला जाया करती है...............और एहसास भी दिला जाती, कि दिल से इन्हे हम कभी नही निकाल पाते हैं ...............

बस अभी साफ़ ही तो किया था.........?
की ये एक पपडी फिर निकलने लगी,

यादों के घाव फिर रिसने लगे,
मैंने कितना ही सुखाया,

धो मांज के रखा, चेतन को,
पर कहीं अवचेतन की दरारों में........

लगी जंग अब फ़ैल कर, रिस कर,
आ रही है, बाहर...........

अशुद्ध हो जाए मन फिर से,
ऐसी आकांक्षा नही,

और ये रिस रहे ज़ख्म,
उन अधूरी इच्छाओं की जड़ें ही तो हैं,

जिन्हें उखाड़ फेकने की,
कोशिश की थी कभी.............
बिल्कुल दूब के स्वभाव वाली........

हर सावन में हरी हो जाती हैं,
और संग में हर घाव भी,

इतने आते जाते मौसम,
सुखा न सके......

कितने ही शीत और ताप
सह कर जीवित हैं,
ये इच्छाएं, नासूर बन कर.......

अब तक तो मर जाना था इन्हे.........

कदापि मैंने ही आश्रय दे रखा हो ?
कहीं सींचता तो नही रहता ?

बरसों से सोच रहा हूँ.........
आख़िर मेरे आंसू जाते कहाँ हैं.....................?

Sunday, July 5, 2009

सुई.........

वर्तमान में मानव की सबसे बड़ी आवश्यकता, मेरे अंतस में खलबली मचाये रहती है.......मैं सोचता रहता हूँ की क्या खो गया है............शायद एक सुई की आवश्यकता है जो मानवता के वस्त्र दे कर सभ्य पशु मनुष्य को मानव बना सके...........


मानवता की खोज में कुछ पथिक,
भूसे के ढेर में, सुई ढूंढते हैं.......

ये जिज्ञासा न जाने कहाँ से आई है,
बड़ी प्रबल है,
न जाने कहाँ ले जायेगी.......

फाउन्टेन पेन से,
मोबाइल फोन तक का विकास.......
पथिकों ने सब देखा....

सभ्यताएं भी कुछ मिटती हुई.......

आतंक और व्यवसायिकता ने,
गढ़ दी है, दोस्ती की नई परिभाषा......

पथिक फिर भी ढूंढते हैं,
इस परिभाषा में, मानवता का तार........

पूरा विश्व देखना होगा,
पूरा ढेर छानना होगा,
शायद सुई मिल सके.......
शायद सभ्यता के वस्त्र फिर सिल सकें........

मानवता की सुई खोई हुई है,

धर्म की दुकाने खोली गई,
सिर्फ़ ये सुई बेचने के लिए,
पर अब यहाँ,
भेदभाव बिकता है,
घृणा सबसे सस्ती वस्तु है,
इस दूकान में.........

पथिकों को आगे जाना है......
मनुष्य को वस्त्र देने हैं.....
सुई बिना तो सम्भव नही.......

विदेशी राजदूत और समझौते,
समझौते पे हस्ताक्षर......
उनका कलम उसी, सुई जैसा दीखता है......

बस दो पल........

पथिकों को समझौते पर सुई नही मिली......

मानव मनुष्य बन रहा है........
उसे नग्नता का आनंद अच्छा लगता है,
और नग्नता का आनंद अच्छा लगता है,
क्या मनुष्य को वस्त्र नही चाहिए.........?

तो क्या पथिक अब न चलें,
सुई की खोज का क्या होगा.......?

बुद्ध, महावीर, गांधी,
पथिक ही तो थे,
उन्हें तो सुई मिल गई थी,
मानवता के वस्त्र पहने थे,
तो चित्रों में नग्न-अर्धनग्न क्यों.......?

नेत्रों का दोष है,
सभ्यता के वस्त्र किसे दिखे अब तक ........?

पथिक बुद्ध या गाँधी नही,
पर सुई तो चाहिए.......
अपने वस्त्र सीने हैं........
उसे भी सभ्य होना है........

पथिक को प्रेम का धागा भी चाहिए......?

एक और खोज.......
सीमित जीवन, अंतहीन खोज.....

वस्त्र अधूरे रह गए,
पथिक को चिर विश्राम करना पड़ा......

सभ्यता की नग्नता,
चिरजीवी....
मनुष्य की पशुता चिरजीवी.......

कुछ और पथिकों को,
ढूंढनी होगी,
मानवता की सुई,
मनुष्य को वस्त्र देने हैं,

नग्न रह कर प्रकृति का रोष,
असहनीय, अन्त्य.......
न सह सकेगा मनुष्य
वस्त्र तो पहनने ही होंगे।

वायु से भी आवश्यक,
मानवता के वस्त्र,
और एक सुई, जो चुभती नही,
सबसे अधिक महत्वपूर्ण.............

दुर्घटना

किसी घटना के लिए क्या कारण उत्तरदायी है......कभी कभी पता नही चलता पर बाद में हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं........वो एक घटना ही हमें अपना और समाज का पूरा प्रतिबिम्ब दिखा देती है........



मैं, ऑटो पे सवार,
जा रहा था, अपने अस्थाई निवास,
ब्रेक और हार्न की,
मिली जुली आवाजों ने,
भंग कर दी तंद्रा,
विचारों ने छोड़ दिया,
कुछ पल के लिए.........

एक विचार न माना,
बोल ही उठा....
क्रासिंग होगी शायद.........

रुका हुआ ऑटो थोड़ा सरका,
फिर रुक गया.......

कुछ जुबाने कह रही थीं,
एक्सीडेंट हुआ है........

मेरी उत्सुकता ने सर बाहर निकाला.....
स्वाभाविक, मानवीय......

दूर तक गाड़ियों की कतारें....
पुलिस के सायरन की आवाज़.......

एक बार फिर देर से..........

डंडा फटकारता एक सिपाही.......

भीड़ छंटी तो एक ढेर दिख गया.......

तुडे मुडे से अंग,
जैसे सिलवटी रेशम......

नए जूते से बंधा एक पैर.....

अधरंगी लाल सफ़ेद चादर से,
बाहर झांकता हुआ.........

और हर दर्शक जूते पे अफ़सोस करता हुआ....

थोडी ही दूर,
उतनी ही टूटी पड़ी,
एक मोटरबाइक.......

कुछ और अफ़सोस,
गलों से निकल, सड़क पर फैल गए.......

सुना तेज़ जा रहा था,
ट्रक से टकरा गया........

कोई बोला, ट्रैफिक भी तो हैवी है........
हाँ..........सिग्नल भी ख़राब है........
प्रशासन ही मुर्दा है साला..........

बात मुख्यमंत्री पर आ गई......
मुर्दाबाद के नारे,
न जाने कब गाड़ियों के बीच आ गए.......

फिर सब ठीक हो गया.......
पुलिस आ गई थी न.........

सुबह अखबार ने बताया.......
वो ट्रक,
वो सिग्नल,
वो ट्रैफिक,
वो प्रशासन
सब बाइज्ज़त बरी हो गए.........
पता चला शराब दोषी थी......
बाइक वाले में छुपी थी.......

फरार हो गई, बह गई,
लाइसेंसी दुकानों में छुप गई,
अंग्रेज़ी और देशी का रूप धर कर.......

मैं सोचता रह गया.....
ये दुर्घटना कल नही हुई थी.....
उस दिन हुई थी जब,
मदिरा का अविष्कार हुआ था........

Saturday, July 4, 2009

ये कैसा न्याय...............?

कई पाठक सामिष भोजन करते होंगे, यह कविता कोई उपदेश नही क्योंकि हो सकता है विचार न ज़मे, कभी मैं भी सामिष का शौकीन था पर अब शाकाहारी हूँ, इस घटना के बाद से ही एक जीव की जान न लेने का प्रण कर लिया..............


कुछ कड़वी यादों को स्टेशन पर छोड़ कर,
लौट रहा था,
वक्त रेंग रहा था, सांप जैसा........

सड़क किनारे, ठेले को घेरे खड़े लोग,
एक कुत्ता, और दूर एक बिल्ली भी.........

ठेले के पास कटे पंजों.....
खून सने पंखों का ढेर......

कुत्ता और बिल्ली दोनों अधीर,
कुछ टुकडों की प्रतीक्षा में,
जो बस गिरने ही वाले थे...........

मैंने ठेले को देखा,
कुछ रुई के ढेर, सिमटे, डरे सहमे.......

वही..........

ब्रीड वाली मुर्गी.........

शायद भविष्य जानते थे अपना,
तभी तो टाँगे छुपा रखी थी.......

डरे हुए बच्चे की तरह.........

एक आवाज़ सुनी.........मांस काटने जैसी...........
लगा वो हथियार मेरी गर्दन पे चला है.........
मैंने आँखें मूँद ली......नज़र चुरा ली.........

पर उस आवाज़ ने अनसुना कर दिया मेरा विरोध,
आ कर कानों से टकरा ही गई.......

एक चीख़ जो निकल ही नही पाई,
उस रुई के ढेर की तो ज़बान ही नही थी.......?
तो चीखा कौन.....?

मेरा मन...........?

ढेर ने किसी को पुकारा...........आओ बचा लो मुझे.......!
क्या मुझे...........?

शायद मैंने सुना था.......
पर वो भीड़ क्यों न सुन पाई जो घेरे खड़ी थी,
उस ठेले को.........?

मैं मुह मोड़ कर चल दिया............
ढेर बोला.........मुझे ज़बान नही मिली.....
वरना चीखता पुकारता.......

ईश्वर को.............

जो उतना ही मेरा है,
जितना मनुष्य का..........

पर ढेर पुकार न सका,
सर्वशक्तिमान को,

होता.........

तो सुनता न..............

उसकी घुटी हुई चीख़............

दोष तो रुई के ढेर का ही है,
उसने छुपा रखा है कुछ सुर्ख.....
अपने भीतर.........

गोश्त............

जो इंसान को..........

नही.....! मनुष्य को.......

कुछ ज्यादा ही पसंद है....?
या शायद शौक है..........?

बिल्ली, कुत्ते की प्रतीक्षा समाप्त.....!
कुछ फड़फड़ाया, फिर शांत.........

रुई का ढेर या मेरा अंतस..........
एक एहसास जिसे लिख नही पाया,
बस वितृष्णा के साथ सुना और महसूस किया........?

एक असफल चीख़, दो थरथराते पंजे,
एक कटा गला, और परों पे बहता सुर्ख लहू........

रुई के ढेर रंगीन होने लगे,
उनके उतारते कपड़े.....वो दो हाथ.......

लगा मेरे ही हैं...........!
कारण भी तो मैं था............?

चेहरे पे विजय भाव,
जैसे कसाई ने जीत ली जंग,
अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़
मुर्गियों को हलाल कर के..........!

कुछ पर और गिरे,
कुछ अतड़ियां और निकलीं........

हलाल चिकन तैयार था.........

किसी मनुष्य की जिव्हा का स्वाद बढ़ाने को,
एक जानवर दूसरे का भोजन बन जाने को........

प्राकृतिक होता तो दोष ईश्वर की ऋचा में था,
पर ये कैसा न्याय...............?

एक का पेट भरे, स्वाद आए,
दूसरे की जान जाए..................?

Tuesday, June 16, 2009

तम्मनाएं.............

बुझी बुझी सी शाम में,
यादों की सूखी लकडियाँ,
छिड़का करता हूँ.........

इस उम्मीद में,
की कोई तो लौ उठेगी.....

कुछ तो रौशनी होगी,
थोड़ा तो बदन तपेगा.........
और कोई तो एहसास बचेगा..........

कमबख्त ये सर्दी,
जिन्दगी बुझाने में लगी है.......

तुम आओ, तो बदन पे,
कुछ तम्मनाएं सेंक लूँ..........

तुम्हे जी भर,
बस एक नज़र देख लूँ........

क्या पता, जिस्म की ये अंगीठी,
दुबारा जले न जले.......

और मुझे शिकवा रह जाए..........

क्यों न मैंने आग दे दी,
अपने अरमानों को............

आग............

कुछ चमकीले से बदन,
कुछ रेशमी सी बाहें.....
मेरा दिल जला देती हैं........

जुनूनी बना देती हैं,
मेरा चैन-ओ-सुकून छीन,
बेदर्द सज़ा देती हैं...............

सुर्ख रेशमी होठों के प्याले,
छलकते हैं, रोज़ मेरे आगे........
लुभाते हैं, बुलाते हैं.......

छलावा मान के,
बचता आया अब तक............

पर तुमसे मिलकर,
ख़ुद पे काबू नही.........

वो बे परदा रातें कुछ,
कुछ बे पैरहन दिन.......


मेरे जेहन को मथते रहते हैं,
मेरी तमन्नाओं को,
और तीखा बना कर...............

अब बदन की,
गीली सी लकड़ी से..........

धुंआ उठने लगा है,
भीतर कुछ सुलगने लगा है...........

इस से पहले,
की आग कुछ ज्यादा ही,
सुलग जाए..........

क्यों न एक और,
बेपर्दा रात हो जाए.........

Monday, June 15, 2009

कीडा..............

नफरतों की नई शक्ल, नया ज़ज्बा है, पर दुश्मन वही पुराना शहर है.........


शराबी है ये शहर,
मैंने देखा है........

लुढ़के से कुछ जिस्म,
डगमगाते कुछ कदम.......

घर का रास्ता पूछते,
मिन्नतें करते,
गिडगिडाते, वाइज़ के आगे........

घर का रास्ता पूछते........

फिर होश में होने का दिखावा,
वो सारी कवायदें,
सारी हरकतें, बेवकूफाना.......

ख़ुद को दगा देते,
शराबियों का शहर......

कीडों का शहर,
नालियों का शहर........

दगाओं का, बेईमानियों का,
इंसानों के आसामियों का शहर.........

नफरत हो चली है,
चिकनी सड़कों से.......

जो रोज़ भुला देती हैं,
की मैं, कच्ची धूल भरी.......

पर सोंधी महक वाली......
पगडंडियों का मुसाफिर....................

यहाँ नाली का कीडा हूँ.............

दो पल सुकून के लिए..................

दिल की खलिश जब पूरे शबाब पे निकलती है तो लफ्जों का तरन्नुम बदल जाया करता है तल्खी में, दौर-ऐ-तन्हाई का बयान-ऐ-दर्द-ऐ-दिल यूँ हुआ.........


जेहन में रेंगते,
अतीत के कुछ पल,
कीडों की मानिंद,
बाहर निकल रहे हैं............

एक सस्ता सा कलम,
कीडों को उठा उठा कर,
रख रहा है, कागज़ पे........

सालों से ये कीडे,
मुझे कुतर रहे हैं.....

मेरे भीतर का सब कुछ.........

कुछ बासी गन्दी यादों में,
पलते रहे ये घुन....

जिन्हें बस कुछ साल लगे हैं,
मुझे खोखला करने में,
थोड़ा थोड़ा, रत्ती रत्ती.........

और हर रात मार देती है मुझे,
पड़ा रहता हूँ किसी ठंडी लाश के जैसा.......

ख्यालों के बूढे, डरावने,
गिद्ध रोज़ नोचते हैं,
मेरे जिंदा जेहन को............

कुछ काली परछाइयां,
कुतरती हैं हर रात मुझे..........

मैं हर रात के आगे,
दोजानू हो के, गिडगिडाता हूँ,
सारी रात.........

बस दो पल सुकून के लिए..................

Wednesday, June 10, 2009

खाली हाथ नही आया............

मैंने तीन महीने समंदर किनारे गुजारे, अब जब वापस लौट आया हूँ तो सोचता हूँ क्या खोया क्या पाया.......इस उधेड़बुन ने कब कविता का रूप ले लिया पता ही नही चला.........



भरे समंदर को छू कर,
क्या खाली लौट रहा हूँ मैं.........

लहरों ने टकरा कर पैरों से,
सोख लिया था कुछ........

नंगे पाँव रेत पे चलते चलते,
न जाने क्या गिरा दिया था..........

शायद...........मेरे भीतर का डर.........

सीपियों की खनक ने,
कुछ इशारा तो दिया था.........

फिर भी खो जाने दिया.........
सागर किनारे मुस्कुराता हुआ,
मैं आगे बढ़ गया............

अजीब है,
खोया है.....फिर भी खुश हूँ..........

खोने पाने के एहसास से,
उबर कर मैं बस बढ़ता रहा.........

जज्ब करता रहा, समंदर को,
कभी बुलबुलों को,
कभी रेत को छू कर............

नदी बन कर,
सारी वितृष्णा बहा दी...........

सारे उद्विग्न पल दे दिए,
अथाह विस्तार को..........

विकृत प्रकृति के अंश दे दिए,
विस्तृत प्रकृति को..........

शुद्ध, स्वस्थ विचारों को,
संजो कर.......

धुली धुली स्मृतियों को समेटे,
सागर सा स्थिर हूँ.......

गहराई ले के लौट आया हूँ.........
सुकून है कि खाली हाथ नही आया...............

Saturday, June 6, 2009

'शोना' मैं हूँ न..........

मेरा दौर-ऐ-गर्दिश,
और हाथ थाम लिया,
आकर तुमने................

अपने पेशानी की सलवटों को,
तुम्हारी मुस्कुराहटों में घोल कर,
हवा में उडाता रहा, बरसों बरस.........
उन मुश्किलों में भी,
मुस्कुराता रहा...................

कुछ छोटी छोटी बातों पे,
मेरा फिक्रमंद हो जाना,
और तुम्हारा मुझसे भी ज्यादा,
सिर्फ़ मेरे लिए...........

गले लगा कर,
वो कह देना.........
'शोना मैं हूँ न'........
इक इक पल में,
सौ सौ, जिंदगियां देता रहा है मुझे............

तुम्हारे काँधे सर रख के,
मैंने कितने ही दर्द बहाए हैं............
ये सारे दर्द यूँ तो,
अश्क बन कर निकले थे............
पर कभी सितारे बने तो कभी फूल,
कभी चमके तो कभी मुस्कुरा दिए.....

फोन पर मेरे,
खांसने की एक आवाज़ से,
तुम्हारा परेशां हो जाना,
सच कहूं तो जीने की,
वजह बना जाता है.........

नही जानता कि, जीना क्या है.......
पर जानता हूँ, कि सिर्फ़ तेरे लिए,
जीना क्या है............

अक्सर सोचता रह जाता हूँ,
कि कैसे जान जाते हो,
कब दिल भरा है और जेब खाली............

इन मीलों के फासले के बाद भी,
कैसे मेरी आंखों की नमी,
दिख जाती है तुम्हे............

कैसे सुन लेते हो, वो भी,
जो मैं ख़ुद से भी नही कह पाता...............

मेरी जिन्दगी को,
किनारे मिलने लगे हैं..............
सिमटने लगी है दुनिया,
सिर्फ़ तुम तक...........
तो कहो मैं क्या करू,
तुमने ही किया है ये सब......

तुम्हारे गेसुओं की खुशबू,
कहती है, हर रात मुझसे.........
'शोना' मेरे बिना मत जीना..............

तो कहो क्यों न मैं वादा कर लूँ............

और कह दूँ.........
'जानू' ये वादा कभी नही टूटेगा..................

Friday, June 5, 2009

विद्रोह.......

आक्रोश, (वो भी निजी दिनचर्या और व्यवसाय के मध्य हुए द्वंद से उत्पन्न) मुझे रोज़ खिन्न कर देता है..............परिणिति तो प्रारब्ध की व्यवस्था है..............मैं माध्यम ही हूँ.....पर बोध है मुझे हर स्थिति के परिवर्तन का...............यह सारा विश्लेषण कविता का रूप ले कर चला आया.............



अब तो बस, घर से दफ्तर,
दफ्तर से घर का सफर.......
यही मेरा अपना समय है,
जब मैं ख़ुद को ढूँढा करता हूँ...............

विषय तलाशा करता हूँ,
जिसे दर्पण बना कर,
ख़ुद को देख सकूं,
देख सकूं, कि मैं अब क्या हो गया हूँ.................

कभी राह चलते हर शख्स में,
ख़ुद को देखता हूँ............
उसके अक्स में,
हैरान, परेशान, जूझते हुए.....
कभी खिलखिलाते कभी टूटते हुए.......

घरो में, आफिस में, चुन दी गयीं......
जिन्दा जिंदगियां.......
जिनमें से कुछ रजामंद,
हँसते हुए, इस सज़ा के लिए..........

वातानुकूलित दीवारों से,
सट कर जीती ये जिन्दगी......
मेरे लहू की गर्मी को सोखे लेती है,
जाने क्या बैर इन दीवारों को,
मेरी ऊष्मा से..............

अपने अंतस के मर जाने का,
विचार मारता है,
रोज थोड़ा थोड़ा....................

किसी और में सुलगे न जले,
कोई भी न चाहे जीना,
भले न कोई साथ चले.......

मुझमे विद्रोह सुलग उठा है,
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आन्दोलन को.............
बस समझाना है अपने मन को........

कुटिल अर्थव्यवस्था ,
अपनी माँ राजनीति से मिल कर,
मुझे और क्यों छले.........?

क्यों न उगे विचारों का सूरज,
क्यों न भावनाओं का कारोबार चले...............

Sunday, May 31, 2009

यकीन........

दूसरों की राह पे चला नही,
पर मैं भी तो कोई भला नही..........

गैरों के हाथ में देख,
खूबसूरत हाथ,
क्या कभी मेरा दिल जला नही...........?

मेरे पास बस इतने ही लफ्ज़,
बस इतनी ही बातें,
कुछ उजले दिन, कुछ अँधेरी रातें.......

शायद तुम मेरे साथ हो,
तो फिर तन्हाई क्यों है.........?
यूँ साथ हो के, जुदा जुदा हो........
मेरे साथ ये परछाई क्यों है.........?

क्यों रात भर नींद नही आती मुझे,
क्यों रात रात भर मैं करवटें बदलता हूँ,
कभी तकिया बदलता हूँ,
कभी उसकी सलवटें बदलता हूँ................!

जब कुछ भी पेश-ऐ-नज़र नही होता,
तब भी मेरी निगाहों ने,
तुझे देखा है............
अंधे यकीन को लिए जिए जाता हूँ,
इक बिरहमन ने कहा था,
मेरे हाथ में तेरे नाम की रेखा है................

Wednesday, May 27, 2009

युग्म...........

बस रुकी तो....डिवाइडर पर लगे पेड़ों पे,
नज़र पड़ ही गई,
लोहे के तारों की बाड़ में घिरे,
नन्हे से पौधे को देखा
सुकुमार, कोमल, सुंदर........
और जंग लगे लोहे का संरक्षण..........
युग्म विचित्र सा लगा.......

मुझे विचारमग्न देख,
बाड़ को हँसी आ गई,
जैसे पापा हँसते थे.................
मैंने कारण पुछा तो,
एक मुस्कराहट का,
प्रत्युत्तर मिला...........

बस चल दी तो,
शरारती नन्हे पौधे ने,
शुभविदा कहा..................

पाँच साल बाद फिर बस रुकी है,
ठीक वहीँ,
पर दृश्य में सिरे से परिवर्तन है..........
बाड़ जर्जर हो चली है............
और यौवन था उस पौधे पर..........

पौधे ने अभिवादन किया,
मैंने विश्लेषण कर लिए स्थिति के........

परीक्षण किया युग्म का........
युवा पौधे की शाखों ने,
बाड़ की रिक्तियों से निकल कर,
उसे थाम रखा था.......पूरी मजबूती से......

युग्म में मुझे,
पिता पुत्र का रिश्ता दिख गया........

बस फिर चल दी है,
पौधे का शालीन सा अभिवादन आया है,
जर्जर बाड़ को,
थामे रखने का वादा किया है उसने.................

समझोगे कभी................?

यूँ आधी रातों को उठ जाना,
तुम्हे भुलाने की कोशिशें करना,
कोहरे से ढकी सड़कों पे,
भागना बदहवास............
क्या समझोगे कभी..............?

कभी भीड़ के बीच खड़े हो कर,
कभी पानी की धार के नीचे,
कभी पी कर बेहिसाब,
कभी मन्दिर-ओ-मजार के पीछे..........
तेरी दिल तोड़ने वाली बातों को,
भुलाने की वो कोशिशें............
काश ये दर्द तुम भी जानो............?

तुम्हे क्या पता,
कितना बदला था,
मैंने ख़ुद को, बस तुम्हारे लिए.......

अब हर बात कहने से पहले,
सोचते और बस सोचते रहना........
चुप रहना भी सीख लिया मैंने............
क्या तुम्हे महसूस हुआ कभी.....................?

आईने के आगे खड़ा हो कर देखूं,
वो पुराना अक्स नही दिखता,
ये तो कोई और है,
जिसे बनाया है तुमने,
और फिर मैंने.........मिल कर..........

हैरान भी हूँ, परेशान भी,
के जीना तो है मुझे..........
पर हर रोज़ मरते हुए...................

यूँ भी हो...........

ख्यालों में अपने,
एक सफ़्हा मैं यूँ भी लिखूं.........
के दो पल को तू मैं हो जा,
और मैं तू हो सकूं...........

अलमस्त फुर्सत से,
मैं भी पहचान निकालूँ,
दिल के सारे,
दबे अरमान निकालूँ.........

हसरतों के माथे,
पसीने की बूंदे न हों.........
न पेशानी पे सलवटें.........

एक रात कोई ऐसी भी गुज़रे,
नशा हो तेरा बेहिसाब,
फिर देर-ओ-सहर तक न उतरे...............

कभी चाँद यूँ भी हो रोशन,
के भरी दोपहर तक न उतरे.............

तुमने आवाज़ दी थी.........

बारिशें भाती न थीं,
बूँदें दिल में आरजू जगाती न थीं,
सुबह आ के जगा जाती थी,
रात जाते जाते,
रुला जाती थी...............

कोई अपना भी है ज़माने में,
ये एहसास कहाँ था,
सुकून तो था दुनिया भर में,
पर मेरे पास कहाँ था..............

उठते गिरते कदम लिए जाते थे,
नामालूम मंजिलों की ओर,
गुमसुम तन्हाई चलती थी संग संग,
मुझे डराती थी और...............

तुम्हे देखती थी,
मेरी हसरत भरी निगाह हर रोज़,
तमन्ना तरस जाती थी,
सरे-राह हर रोज़...........

उन दिनों जब मैं ख़ुद से,
खफा खफा था,
तुमने आवाज़ दी थी,
एक रोज़ मुझे रोका था..........

पूछा था.............
क्यों ख़ुद पे सितम करते हो?...........
दोस्तों से,
राज़-ऐ-दिल कहने से डरते हो?............

बस यूँ ही देखता रह गया था,
तेरी आंखों के फरेब को,
तड़प कर पूछा था,
दिल ने उसी पल

दोस्त कहते हो..........
पर क्या आंखों की जुबां समझते हो?..............

दिल तो कह गया,
पर मैं न कह सका,
ज़माने से था,
तुम से था,
ख़ुद से भी मैं खफा खफा था...............

हाँ पर आज भी याद है मुझे,
तुमने पीछे से आवाज़ दी थी,
मुझे रोका था..........................

Monday, January 12, 2009

मेरे अंतस की पीड़ा को जानेगा कौन,
कहानी जैसी है,
तो सच मानेगा कौन.............

मैंने ख़ुद में फरहाद को देखा,
तुझमें मीरा का रूप,
अब जीवन की जलती धरा है पैरों तले,
सर पर विचारों की धूप..........

मैं बरसों से जैसे का तैसा,
तनिक प्रेम का प्यासा
न भाव में प्राण शेष रहे,
न ह्रदय में आशा.........

तो आज सारे भाव निष्प्राण,
पर मानस में कोलाहल,
तुमसे ही जीवन, जीवन सा जटिल,
अन्यथा मृत्यु सा सरल.........................
मैंने गैरों से लड़ना सीखा है,
पर कैसे तुम्हे समझाऊँ,
तुमने सुना ही नही,
चाहा तो बहुत के तुम्हे बताऊँ..........

रोज़ मैं थोड़ा थोड़ा,
शीशा हुआ जाता हूँ,
जानता हूँ के कल गिर जाऊंगा,
बिखर जाऊँगा..........

सहमा हुआ हूँ, घबराया भी,
तुम्हारी तरफ़ देखता हूँ,
उम्मीद की नज़र से,
के आओगे और हाथ थाम लोगे,
बेचैन हूँ मैं,
तुम तो सबर से काम लोगे................

लगता है ये भी भरम था,
तेरा मुझपे इतना ही करम था,
तो अब जीने की वजह क्या बनाऊं,
क्या तेरी याद बिसरा दूँ..............?