Thursday, September 24, 2009

प्रश्न और विडम्बनाएं..........

ख़ुद से मेरे प्रश्न और उनसे जुड़ी विडम्बनाएं मेरा पीछा नही छोड़ रही हैं.......इसी क्रम में एक कविता ने और जन्म ले लिया.....

कोई छंद लिखूं कैसे,
कैसे एक और मुक्तक लिखूं...........
कैसे स्वयं की परिभाषा लिखू...............?

दर्पण की मुझसे विरक्ति लिखूं,
या आहत ह्रदय की कहानी लिखूं॥?
कैसे टूट गई एक आशा लिखूं.............?

स्वयं से स्वयं का विद्रोह,
और समर्थन कभी,
या ह्रदय है कितना प्यासा लिखूं..........?

उडेल कर रख दूँ ख़ुद को,
की रिसने दूँ पीड़ा थोडी थोडी,
या घाव लगा है, ज़रा सा लिखूं..........?

माना की झूठा है अंतस कभी कभी,
पर सिर्फ़ मुझसे ही न,
धूल सना या जंग लगा,
या सच्चा सोना खरा सा लिखूं..........?

विडम्बना तो ये भी एक,
की तुम लिख रहे हो मेरी कहानी,
मैं लिखूं भी तो क्या लिखूं............?

Thursday, September 17, 2009

ऐसा क्यों है.............?

मेरे जेहन में सवालों का एक सिलसिला कुछ रोज़ से दरिया बना हुआ है.............


एहसान कर दिया,
मेरे फलक पे आ के,
पर मेरा चाँद, आधा क्यों है.......?

कब गुरेज़ था सहने से मुझे,
पर ये तो बता,
मेरे ही हिस्से, दर्द ज्यादा क्यों है.........?

जिन्दगी किए जा रही है,
मुझसे वादे पे वादे,
फिर ये खुदकुशी का इरादा क्यों है...............?

कह दे की अब तू ही खुदा है मेरा,
या ये बता........
हंसाता है, फिर रुलाता क्यों है.............?

या तो हर दफा राह भूला हूँ,
या ये जहाँ ही तेरा हो गया,
जो भी मिला, हर मुसाफिर,
तेरे ही घर का पता बताता क्यों है..............?

मेरे जिस्म के बिखरे हिस्सों का,
बनाया जाता है ढेर, बाद-ऐ-कत्ल,
फिर हर कोई, ढेर पे एहसान जताता क्यों है............?

प्यार की शिद्दत,
नज़र आती है, जब आंखों में,
तो हर शख्स मुझे आजमाता क्यों है.............?

माना की क़यामत थे,
कुछ लम्हे हमारे,
पर तेरी याद की दाना आहट से भी,
मेरा हर रंग थरथराता क्यों है..................?

रौशनी देख खुश हो...............?
नाचो गाओ दोस्तों,
पर ये भी पूछो,
गौरव आख़िर अपना घर जलाता क्यों है............?

Wednesday, September 9, 2009

When Culture Emerged

That crescent moon,
of human origin...............
Rose somewhere,
in the middle of the world........!

When nature bet new bait,
and evolution penetrated,
the anthropoids,
Differentially.........!

Standing on the bank of Nile,
He bowed his head,
To the Sun,
and offered himself,
to the Nature,
with the intution...........!

Amused, Surprized moreover Wondered,
Gazing the animal flocks in day,
and stars at Night.............!
Just began to analyze,
Began to scale..............!

When one different,
Made others different..........!
Took them with,
To live with..............!
They learned feeding, to live........!
Stopped living to be fed only..........!

Somthing happening,
In and out of him,
it was emersion,
Different from feelings,
It was thought..........!
Something most infectious,
Ever existed...........!

When someone different,
Thought somethingdifferent,
Rose his hand,
Pointed towards the horizon,
to show the beauty,
of nature's creation,
to rest of the fellows...........!

Cultured emerged,
from very inside of first,
the first human.........!

क्या तुम न आओगे.........?

एक दोस्त जो जिन्दगी बन गया था, बिछड़ गया था..................और खो गया हमेशा के लिए.........याद आता है, हर उस दोपहर जो आग बन कर बरसती है मेरे सर पर और मैं एक छाँव की तलाश में भटकता रहता हूँ...........


सब कहते हैं,
के अब तुम न आओगे लौट कर........
दूर चले गए हो न,
बहुत दूर.............
तुम्हारी याद क्यों नही जाती..............?

कहते हैं,
तुम्हे जन्नत नसीब हुई होगी...........

मुझे धोखा क्यों दिया.....?
क्यों छोड़ दिया अकेला.......?
वादा किया था,
जुदा न होगे.........!

सोचता हूँ, फिर सोचता रहता हूँ.....
मैं क्यों हूँ.........?
क्यों ठहर जाया करता हूँ......!

इन सूनी गलियों में,
बंद दरवाजों से,
उलझता रहता हूँ,
इनसे मेरा रिश्ता ही क्या है.........?
सब तो तुम्हारे थे........?

क्यों मैं दीवारों पे,
हाथ लगाते चलता हूँ......?
कुछ भी नही अब,
इन मुर्दा दीवारों में.........!

हाँ कहीं कहीं, कुछ धब्बे,
खून के..........
दीवारों के संग लिपट कर
सूख चुके.......

एक चिपचिपे से धब्बे पे,
ठहर गया है हाथ.......
वहीँ जहाँ तुम खड़े थे,
टिक कर, मुझे बाहों में लिए,
जूझते अपने दर्द से.......

ये धब्बा,
क्यों नम है अब तक........
बिल्कुल तुम्हारे उस रुमाल जैसा,
जिसे तुमने बाँधा था,
मेरे कंधे पे.............

तुमने देख ली थी वो छोटी से चोट,
पर मैं न देख सका वो गोली,
जो मुझे लगी थी,
पर तुमसे हो कर.......

तुम्हारी ही बाहों में,
होश खो दिया.....

फिर तुम्हे खो दिया...........

हाथ का ज़ख्म भर चला है,
दिल का हर रोज़ हरा हो जाता है..........

वो हाथ हिंदू थे के मुसलमान,
नही पता.........
पर हथियार हर हाथ में थे..........

कौंधती हैं यादें,
अब भी उस दोपहर की......

जब तुम खड़े थे,
मेरे और हर वार के बीच,
मेरे आगे, पीछे और हर तरफ़.....
उन हाथों से बचाने के लिए...............

बचा भी लिया,
पर अब कौन बचायेगा........
जल्द ही किसी रोज़,
इस शहर में, फिर दंगा हो जाएगा.................

बाद-ऐ-हयात......

इक एहसास बाद मरने का, पुरसुकून लगता है, शायद अब तभी आराम मिले पर.......................ये कमबख्त उम्मीदें..................

ख़त्म हो गयीं,
इश्क की सब शोखियाँ,
उठ गई महफिल,
जाम क्यों छलका.......
साकी की तरफ़ से,
अब ये शरारत क्यों है............?

कत्ल कर दिए हैं,
अरमान सभी,
तो फिर किसकी है ये............
नशेमन में,
बू-ऐ-बगावत क्यों है...........?

दफ्न कर देता हूँ.........

उठ उठ के आ जाती है,
इस उम्मीद को जिन्दगी से,
इतनी सलाहत क्यों है..........?

पुरसुकून है, जेहन बाद मरने के,
पर कहीं तो खलबली मची है.........

कमबख्त इस मुर्दा जिस्म को,
इतना जीने की आदत क्यों है.............?

Sunday, September 6, 2009

ग़लतफहमी.....

हम पे भी गुजरी है, कुछ ऐसी ही,
ख्यालों से परे जा कर देखा,
तो दुनिया ही कुछ और थी...........




क्या कभी ये नही हो सकता कि किसी की आंखों को या किसी की आँखे हमें ग़लत पढ़ते रहें............कई दिन, महीनो, सालों या फिर सारी उमर..........