Thursday, December 11, 2014

भगवा और हरा

मुसलमानो जाओ और अपने खुदा से खून का रंग हरा मांग कर लाओ। हिन्दुओ तुम भी जाओ और अपना खून भगवा रंगा कर लाओ।

अगर तुम्हारा खुदा और भगवान् तुम्हे इस बात से इनकार करता है तो वो तुम्हारे हिन्दू और मुसलमान होने से भी इनकार करता है।

ये भगवा और हरे की बातें कर के तुम बस अपने खुद और भगवान् के होने या ना होने पर सवाल ही उठाते हो क्योंकि तुम में से किसी ने आज तक न तो उसे देख और न ही तुम उसके होने का सुबूत दे पाये हो।

पर मेरा कोई है जो तुम्हारे हिन्दू भगवान् और मुसलमान खुदा से भी ऊपर है। जिसे मैं इंसानियत कहता हूँ।

खुदा, भगवान् और धर्म, मज़हब के नाम से छाती पीटने वालो उसने तुम्हे इंसान बना कर भेज था यहाँ आ कर तुमने भेड़ियों के झुण्ड बना लिए।

तुम जानवर हो और जानवरों की तरह ही लड़ते हो। इस से पहले की तुम्हारा खुद और भगवान् भी तुमसे नाराज़ हो जाए सुधर जाओ। इंसान बन जाओ।

Sunday, November 23, 2014

दुकानें

नया बाज़ार लगा है
दुकाने खुली हैं……

आओ कफ़न के
सौदागरों से मिलते हैं

जाओ देखो।
पहचान लोगे वो दूकान....
आसान है....।

लोकतंत्र को,
आर्थिक कड़ाही में,
उबाल कर राजनीति का,
मुलम्मा चढ़ा कर,
चौथे स्तम्भ की लकड़ी से बने
तख्ते पर रखा हो...।

जहाँ भय को
लालच के साथ
गड्डमड्ड कर के
स्वार्थ का तमाशा नहीं बनाया जाता

परंतु सु-तर्क का
पोस्टमार्टम हो रहा हो
समझ लेना
तुम उनके ही ग्राहक हो...
और वो तुम्हारे...।

किसने किसको खरीदा,
इस से निर्लिप्त आगे बढ़ना।

जहाँ पुरानी फटी धोती में,
गुदड़ी बनी बुढ़िया को,
व्यापारिक कौव्वे
तिल तिल नोचते दिखें।
समझना गंतव्य के निकट हो।
जहाँ बड़ा सा सफ़ेद साफा बांधे
एक बुढ्ढा आदमी
बंजर आँखों से उम्मीद के बादलों की
झूठी कहानी सुनाता हो

मत सुनना, तुम्हे रोना पड़ेगा।

और उसके नाचने पर ना जाना
व्यवस्था की तरह
वह भी अव्यवस्थित हो चूका है

एक दालान है उस से आगे
जहाँ देसी विदेसी नथों का
बाज़ार होगा।

चमकीली नथें
लुभाएंगी......

फुसलावे में मत आना।
वो खुद बहकाये जाने की
शिकायत करती देखी गयी हैं अक्सर..।

तुम को पूरा बाज़ार घूमना होगा।

तो आगे बढ़ कर एक मुट्ठी
आटा भर लेना सामने रखे बोरे में से
जिसमे से पसीने और लहू की
सड़ांध तुम्हारे नथुनों को
चीर देने का माद्दा रखती हो...।

उस मुट्ठी भर आटे को
अपनी कोख में समेट कर
महसूस करना
किसी गाँव में सूखा पड़ा खेत
और एक किसान की
ठंडी फ़िज़ूल पड़ी देह की गर्मी...।
अपनी आकांक्षाओं को तपा कर
उस लाश से....

आगे बढ़ जाना और
काले से पत्थर को ठोकर मार
रास्ते से दूर हटा देना

पर चौंकना मत जब वो पत्थर
खुल कर कुपोषित
चमार के लड़के में बदल जाए

और सड़क के किनारे किनारे रेंगने लगे...

जी भर ठंडी करना आँखे
उस लाल पानी के फव्वारे को देख
जो एक हिन्दू की गर्दन से निकल
मुसलमान की
गर्दन में समा रहा हो..

मैं उस बाज़ार में जाने लायक
न रहा अब।

लौटते हुए आना,
मन भर एहसान करना
रत्ती भर इंसान ले आना...।

टुकड़े

जब तुम यादों के,
कंदील बना कर
आँखों के झरोखों में
रखती थीं

मैं बूँद बूँद
रौशनी बन कर टपकता था।

जब तुम बिखरे कपड़ो के साथ,
मिलन की सलवटें
सम्हाल रही होतीं,

मैं कहीं तकिये पे,
आंसू के दाग सा
मुख़्तसर हो जाता था।

तुमने टूटी पायल के
हिस्से बटोरे जब
और बिखरे घुंघरुओं में से एक
तुम्हारे पैर लग
छिटक कर
दूर जा गिरा.....

मेरी एक ठंडी सांस
टूट कर दो टुकड़े हो गयी

परदे को पकड़े खड़ी
जो गिन रही थी
दो छल्लो की कमी

ख्यालों के बादल का
एक नाज़ुक टुकड़ा
मेरे तुम्हारे दरम्यान
फना हो गया।

डेस्क पे अपनी उँगलियों से
कर रही थीं जब तुम
करीने की आवाज़

तुम्हारे नाखूनों से निकल
एक धागे में
बड़ी दूर तक जा रही थी

और हर कदम पर
खामोशी की चादरें
उतार कर खड़े हो गए
उजले झुरमुट

अंगड़ाई ली तुमने
शबनम का कतरा फलक से
टूटा....
गिरा....
और अपने वज़ूद पर
इतरा गया।

एक मिसरा तुमने
गुनगुनाया।
यहाँ मेरे आफिस तक
तरन्नुम के बादल आये हैं।

Sunday, November 9, 2014

अब सैलाब आएगा......!

उमड़ती घुमड़ती,
जिस ममता की छाँव ने,
दी थीं, किलकारियां,
उसके अपमान के दोषी हो तुम...!

कर लिया बहुत,
दुरुपयोग ममता का,
तुमने ही हर लिया शील,
जाने कितनी सीताओं का.......

न दो इतनी पीड़ा,
की अश्रुओं में उसके,
बह जाये तुम्हारा अस्तित्व

तुमने दूध कि मिठास में,
घोला है....
तिरस्कार और अपमान का विष,
भला बताओ......कैसे?

न हो बंजर, धरा भारत की...?

पर अँधेरा बहुत हो चुका,
अब तमस का अंत निकट है...!

किरण एक दिख रही है,
पूरब से.........
लगता है माहताब आएगा.........!

ये तुम्हारे पैंतरे, न चलेंगे अब,
न चालबाज़ियों में, बटेंगे और घर....

बच्चों की मासूम आँखों में,
नया, प्यारा ख्वाब आएगा...

हो चुकी बहुत इन्तहा,
जुल्म ओ सितम की अब,

जाग रही है, माँ मेरी,
बहन ने कस ली है कमर,

बदल जाएगी ये दुनिया,
अब आएगा,
तो इन्कलाब आएगा........!

जाओ किनारों से कह दो,
अब सैलाब आएगा..........!

Tuesday, September 23, 2014

यहाँ न आये कोई....

सब के चेहरों पे सिल दो,
मातमी लिबास,
अब न मुस्कुराये कोई.… 

दर बंद हैं,
हर ख़ुशी के लिए,
उनसे भी कह दो,
यहाँ न आये कोई.... 

हम बड़े बेआबरू हो,
निकले हैं,
उनकी महफ़िल से,
दुआ है, अब,
महफ़िल में न बुलाये कोई.... 

तुम्हारे तंज़ चुभते हैं,
गुलदस्तों से निकल कर,
मेरी कब्र पे,
फूलों को चादर,
न चढ़ाये कोई.... 

नग़मे हैं कि,
दिल की पीर हो गए,
सुकूं है बहुत यहाँ,
जमीदोज हो कर,
कहो कि, मोहब्बतें,
 गुनगुनाये कोई.…

बड़ी मुश्किल से,
पड़ी है आदत,
कह दो फ़िक्र मंदों को,
खैरख्वाह बन के,
ना आये कोइ……

मुझसे भी पूछ लेती,
हाले दिल दुनिया,
तो रिश्तों का तस्सवुर हो जाता,
मिल के अपना ही,
 हाल सुनाये सभी.…

कभी रोती है,
तो कभी हंसती है,
कभी देखे है गुमसुम,
तो मेरी किस्मत,
मुस्कुराये कभी.……




Sunday, August 17, 2014

अब वो बात न होगी...

प्यार इतना है तुझसे,
और जुदाई भी ऐसी,
कि रोज़ मरता हूँ,
रोज़ जीता हूँ, सौ दफा...

मेरे अश्कों को ही,
नम करनी है,
दिल की जमी.....
इस सावन,
कोई बरसात न होगी.........

जब तुझे याद न करू,
वो रात कभी रात न होगी........

दिल बैठा जा रहा है,
ये सोच कर.....

कि पल पल बीता,
जिनके लिए सदियों जैसा,
उनसे दो पल की भी,
मुलाकात न होगी.........

मैंने मार दिया है,
अपने ही हाथों,
तम्मंनाओ को अपनी.......
पर तेरे माथे शिकन आये,
मुझसे अब वो बात न होगी.....

गर तेरी रज़ा है,
तो मेरे सर माथे.....

दुनिया तेरे कदमो पे,
कर देता हूँ, न्योछावर,
इस से ज्यादा,
मेरी औकात न होगी......

अब सबसे होगी,
पर तेरे दीवाने से,
तेरी मुलाक़ात न होगी.......

तेरे माथे शिकन आये,
मुझसे अब वो बात न होगी...

एक बार खुद तू,
बयां कर दे.........

तो पलट के न आऊँ कभी,
आ गया गर कभी,
तो इंसान की मेरी,
ज़ात न होगी............

कुछ भी हो पर,
अब वो बात न होगी........!

अब तो तू ये बीडा उठा ले....

व्योपारी चूसे, नदिया जंगल,
धरती नीर बहाए.........

भूखी गोपी, भूखे ग्वाले,
किसना भूखा जाए......

ऐसी विपदा अपने लाये,
दिल की कौन बुझाये...

सुन ले रे देश के बेटे,
तेरी माता असुअन रोये....

काहे बैठा बिसरा के बिरसा,
अब देर बड़ी ही होए.......

खुद भी उठ,
ये बीड़ा उठा ले,
मिटटी तुझे बुलाये.......

व्योपारी चूसे नदिया जंगल,
धरती नीर बहाए...

माता के आँचल दाग लगा है,
कंस खड़ा मुस्काए.....

अपनी अपनी सब साधे हैं,
कौन दूजे को हाथ लगाये...

अब तो तू ये बीड़ा उठा ले,
मिटटी तुझे बुलाये....

तेरा किसना भूखा जाये.....!

बीरसे के सब फूल चुराए,
तेरी राह सजाये कांटे.........
गीता कुरान के नाम पे नेता,
देश तेरा ये बांटे........

देख विधाता साथ खड़ा है,
काहे को घबराए.....
अपनी किस्मत आप बदल ले,
जैसा भी तू चाहे......

अब तो तू ये बीड़ा उठा ले,
मिटटी तुझे बुलाये.....

Wednesday, August 6, 2014

हाथ थाम लो यारों......

हाथ थाम लो यारों,
बोझ उठाना है फिर,
हुक्मरानों को........
पैगाम देना है.......

इब्तिदा के बाद,
भटक गया है काफिला,
इसको इसका,
मुआफिक अंजाम देना है...........

न भूखा रहे कोई पेट,
हर सर को छत हो नसीब,
बदन पे कपडा,
हर हाथ को,
अब काम देना है.........

लानी है लुटी दौलत वापस,
हर गरीब का,
माल-ओ-असबाब,
उसको उसके हक़ का,
तमाम देना है......

भूलने लगी है दुनिया,
तो याद दिलाने की,
आप पड़ी है सर पे......

चल उठ, अपने वतन को,
फिर एक बार पुराना वो,
नाम देना है..............


गर पड़े जरूरत,
तो उतर जाने दे,
सर, खुशी खुशी.....
अगर है प्यास उसको तो,
सैयाद के हाथ,
खुद अपने लहू का जाम देना है......

हुक्मरानों को,
पैगाम देना है.........

जो तेरा है, वो तेरा ही हो,
अपने कारिंदों से,
जो खुद को समझ बैठे हैं शहंशाह,
हिसाब तमाम लेना है..........

काफिले को,
मुआफिक अंजाम देना है

चल उठ, अपने वतन को,
फिर एक बार पुराना वो,
नाम देना है..............
हिन्दुस्तान को,
फिर हिनुस्तान देना है..........!

Sunday, August 3, 2014

तेरी ही जुस्तजू आये....!

मेरे दर्दों से भी,
गुलाब सी खुशबू आये...

महकता है,
मेरा छोटा सा आशियाँ,
दर पे मेरे जब भी तू आये...

लब जो सी दिए तूने,
अपनी तंज़नाज़ नज़रों से,
अब मेरी आँखों में,
तेरी जुस्तुजू आये......

तू जो कभी,
मिलने आये,
तो मेरी साँसों से,
तेरी खुशबू आये....

बड़ा पेचीदा है,
ये धुंधला दर्द,
कभी तड़प के आये,
कभी सुर्खरू आये.........

अब मेरी आँखों में,
तेरी जुस्तुजू आये...

यूं पशोपेशियों में,
डाला है तूने मुझे,
की पी रहा हूँ हर बूँद,
मानिन्दे-ए-ज़हर.....

भला रुसवा करने तुझे,
मेरी आँख में,
अश्क क्यू आये........

ये तेरी ही कारगुजारियां,
की मेरे रूबरू,
बस तू ही तू आये......
बाद इसके भी,
बस एक तेरी जुस्तजू आये....

निगाहें लगी है दर पे,
कहीं गवां न दूं एक भी लम्हा,
तेरे दीदार का,
मैं फेरु पल भर जो नज़र इधर,
उधर तू आये.....

तेरी बस तेरी ही,
जुस्तजू आये..........

तमन्ना है, के तू हो,
बस तू हो और तू ही हो,
और कुछ न हो.....
कभी वो पल भी आये,
की सिर्फ मुझसे मिलने तू आये.......!

Tuesday, July 1, 2014

वो ज़ख्म देता है,
तो शिफा भी देता है,

मेरा यार दगा देता है,
फिर बता भी देता है....!

Thursday, May 15, 2014

मुतफ़र्रिक

कमबख्त हर रात पिछली रात के जैसी,
हालत-ए-चश्म बरसात के जैसी....।

अपनों ने ही निभाई दुश्मनी
गैरों को क्या फ़िक्र
भला हम खुशगवार रहे
कि रहे ग़मज़दा...!


टकरा के गर
लौट आती फलक से
तो भी सुकून होता...

अफ़सोस तो ये है कि
गले में घुट कर रह गयीं
दुआए मेरी....।

न जाने क्यों,
इतना बेतकल्लुफ़ वो,
हँसता है मेरे दर्द पे
ऐसा भी क्या
उसकी ख़ुशी का
सबब आहें मेरी

Wednesday, May 14, 2014

स्थिर सरकार और ताले....!

ये आर्यावत है,
पुरु ही,
सुलझाएंगे गुत्थियाँ....

ये भ्रम भी टूट गया,
की दोबारा कहर ढाने,
सिकंदर नही आएगा...!

संविधानो में,
बढ़ता रहेगा चकल्लस,
यदि न बने नागरिक, नदियाँ....

सदियों से प्यासी,
गंगोत्री के लिए,
कोई स्वार्थी,
समंदर नही आएगा...!

लोकतंत्र के,
दरवाजो पे लग गया,
स्थिर सरकार की,
मांग का ताला.......!

अब आम आदमी,
संसद के,
अन्दर नही आएगा....!

Sunday, May 4, 2014

स्नेहसिक्त...!

कदाचित सम्मान का प्रयोजन है,
याचना नहीं,

विपत्तियां हैं स्वीकार्य,
प्रताड़ना नहीं.....।

पेटी में बंदी,
हीरे और मोती के,
निरर्थक अस्तित्तव का,
बोध है....।

आह, दुर्भाग्य,
प्रेम और स्नेह को,
दुर्बलता माना गया...।

शक्ति पर्याय,
बल स्तम्भ को,
किंचित अवसर न मिला....!

ऊर्जा के विछोभ,
तांडव को उसने,
मोड़ दिया,
स्नेहासिक्त.....।

ह्रदय की अंतरिम,
विमाओं में,
वह शक्ति का पर्याय हो कर भी,
बहे गंगा और सरस्वती बन कर....।

सिंचित है जिसकी श्वास से,
भू, जल और वायु...!

जिसके लिए,
विलास त्यक्त,
आनंद परित्यक्त,
ममता के समक्ष....!

अस्तित्व का मूल,
शक्ति के पर्याय को,
बोध है......।
स्व:प्रकृति का.....!

कदाचित संतुलन का,
कारण तुम ही हो,
धन्य हो.....!

Tuesday, January 28, 2014

संबध...........!



मैं अर्थ की परिभाषा,
ढूंढता रहा......
तुमने इति को रच दिया.......?

मैं शब्दों में वाक्य ढूंढ रहा था,
तुमने छंद रच दिया......?

ये निष्पादन, ये रचनाएं,
कितनी विलक्षण और प्राकृतिक हैं,
पर तुम्हारा स्वभाव......?

यही प्रश्न लिए......!
बुद्ध भटके, इशु सूली चढ़े,
तो अब कौन....?

तुमसे मैंने अपने सम्बन्ध का,
मूल खोज लिया है.......!

रचो, प्रफुल्लित हो,
और नष्ट करो......!

तुम्हारी इस क्रीडा में,
मेरा आनंद तो नहीं,
पर हाँ, भय है.............!

अनंत भय,

और पीड़ादायी....!

काली सी इक बाती है...........!






इतनी उजली कि जहाँ भर,
रोशन कर डाला..........!

पर दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है............!

थकान से यूं तो हर शाम दमकती है,
बदन की लौ.......

पर इसके बीच भी बसी है,
विछोह की परछाई..

कोशिशें अब भी उतनी ही संजीदा हैं,
पर नींद कहाँ आती है.........?

न जाने कहा से ढूढ़ लिया है,
मुसीबतों ने इस घर का पता,
एक उधर से जाती है,
एक इधर से आती है...........!

दमकती लौ के बीच भी,
काली सी एक बाती है........!

जिंदगी इस कदर होगी खुशमिजाज़,
अंदाजा ही न था,
एक दफा मुस्कुराता क्या हूँ,
ये बरसों मज़ाक उडाती है...!

दमकती लौ के बीच भी.....!

बारहा इतना सुकून है,
चाँद को नमूदार देख,
हर अमावास की रात...!

कि तुम्हे भी शिद्दतन,
मेरी याद तो आती है.........!

बतौर इलाज़ बना ली थी मैंने,
दिन चढ़े मह्बे-ख्वाब देखने की आदत,
कमबख्त बिस्तर पे अकेली मेरी रात,
हर वहम झुठलाती है.......!

हर दमकती लौ के बीच,
काली सी इक बाती है......!