Wednesday, June 11, 2008

बेघरों की रात

अपना घर छोड़ कर गावं से शहर आए दो मजदूर दोस्तों
की एक रात तिरपाल की छत तले कुछ यूँ गुज़रती है................

चूर चूर हुआ जाता है बदन
गारा चूना ढो ढो कर गुज़रे हैं
जो सहर-ओ-दिन

दिहाड़ी है हाथ में
तो ख़ुद खाएं या
बीमार बच्चे के लिए बचाएँ
चल आज फिर आटा घोल ले यार
पेट भर जाए
नींद तो आ ही जाए

फटी तिरपाल की छत को
शब ढले आशिकी सूझी है
हवा संग अठखेलियाँ करे तो करे
क्यों हम मजदूरों की नींद हराम करती है

फटी कमीज़ की जेब में एक फोटो पड़ा है
निकाल दे यार
कभी मेले गया था, बा-कुनबा

याद कर लूँ अपनी जवानी
और आज फिर से एक बार दिल जला ले यार
मैं देख लूँ बेटे को..........यहाँ अँधेरा बहुत है.................

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