चौंक गया हूँ,
यहाँ भी हैं......
वही इमारतें.....कंक्रीट के दरख़्त।
उतनी बुलंद तो नहीं,
पर उतनी ही बेजान।
और उतना ही,
खून पीने वाली...।
इन दरख्तों में,
अजीब सा रिश्ता है...।
मेरे कमरे को भी,
आ कर घेरे खड़े हैं....।
बेजान दीवारों में,
इक दरवाज़ा दोनों ओर,
बराबर खुलता है.....।
कमरे में बस यही है,
दिल लगाने लायक....।
दो अलग दुनियाओं के दरम्यान,
मेरा बराबर का साझीदार...।
और इक पहाड़ी,
छत की फुनगी से,
बहुत दूर नज़र आती है.
पत्थर पाने को
कोख खोद डाली है उसकी।
तो बच के भागी है,
शहरी दरिंदो से....।
भला ऐसे शहरों में,
मासूमो की बिसात क्या होगी......?
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