Monday, November 4, 2019

गुल ओ किमाम वजूद

इस उम्मीद से कि,
पानी छन्न से टूट जाएगा..!
वो सैकड़ों पत्थर,
तालाब में फेकता रहा..!!

गर्माहट-ऐ-इश्क़ में कहाँ,
दिलचस्पी थी उसकी..??
वो तो बस मतलब की
रोटियां सेकता रहा..!!

शिद्दतों की गहराई,
बिल्कुल न थी उसमे...!!
आंखों में सागर लिए,
मुड़ चला मैं जब,
वो बस बैठा देखता रहा..!

कहां तो उसने,
अपने अरमानो की,
हर आग ठंडी कर ली..!!
यहां सदियों हमारा ये जिस्म,
बस दहकता रहा..!!

मिटा देने को वजूद बेदर्दी से,
मसल दिया पैरों तले..!
ये कमबख्त,
गुल-ओ-किमाम निकला
बरसों महकता रहा....!!!

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