Wednesday, December 26, 2007

मूल्यांकन

मन का दर्पण टूटा,
टुकड़े घटनाएं बन कर बिखर गए,
मुड कर देखा तो
बिम्ब अधूरा था,

कुछ क्षण विलुप्त थे शायद?
किसने चुरा लिए?

मनमीत ने?
जो दर्पण तोड़ गया,

उसे मन की पोटली में,
कुछ ले जाते देखा था,

वही अमूल्य क्षण.......................
जिन पर अधिकार दोनो का, समान

तो मैं ही वंचित क्यों,
क्यों था नतमस्तक?
सिर झुकाए,
विचार इतने भी भारी न थे?

पर हाँ मैंने भी कुछ छुपाया था,
बस दो मोती आंखों में,
और एक स्वर्ण हृदय,
उसे तो आभास भी न था,

दो आँखें,
विरह की पीडा लिए,
छलकने को आतुर,

और वो कह गया,
जाते-जाते, मुझे

निष्ठुर...................

1 comment:

वर्तिका said...

"पर हाँ मैंने भी कुछ छुपाया था,
बस दो मोती आंखों में,
और एक स्वर्ण हृदय,
उसे तो आभास भी न था,"

i just am speechless having read this.... par aapki kalam ko naman....