Wednesday, December 26, 2007

विचित्र प्राणी


सुना था,
बड़ा विचित्र है,

किसी मनुष्य के समान,
या और बेहतर,

फिर एक दिन देख ही लिया,
कथा मिथ्या नही थी,
विचित्र ही था,

हर वस्तु का अलग दृष्टिकोण,
आंखों में भरी उत्सुकता,
जैसे छलक ही जाती,

घ्रान अंग निष्क्रियता को प्राप्त
हल्की आहटों ने चौंकाया उसे
लोगो ने फिकरे कसे

वो पूर्ववत, अप्रभावित,
कुछ खोजता,
सदैव,

रोटी कपडा और मकान के अतिरिक्त भी कुछ,
कुछ तो था जो मिला न था अब तक,

गले में बंधा,
कुछ थैले सा, ना जाने क्या समेटे हुए?

अचानक आंखों में जैसे बिजली चमकी,
बंधा थैला खुल पड़ा,
एक जबान और एक पन्ना हाथों पे गिरे,

जबान हिली तो कागज़ पे,
शब्द गढ़ गए,
सिलसिला देर तक चला,
यथार्थ को आधार मिल गया!

जबान की स्याही ख़त्म हो गयी,
तो कलम बन कर,
फिर थैले में समां गयी,
साथ में यथार्थ को समेटे वो पन्ना भी!

धूसर मटमैले खद्दर के कपडे में लिपटा,
लेखक था वो प्राणी!

मानव के लिए समर्पित,
मानव के लिए सोचता,
मानव से बेहतर!

No comments: