Wednesday, January 16, 2008

अंततः

कुछ नयी कोपलें,
कितनी प्राकृतिक और हरीतिम,
पुरानी शाखों से..............
आगे निकल कर....

हदें तोड़ कर ठिठोली करतीं,
हवा के संग,
जैसे कोई अल्हड़ किशोरी,
जैसे जुलूस में आगे चलते बच्चे।

कुछ और हरी पत्तियां,
पर गहराई लिए,
अपने रंग में,
समेटे अँधेरे को,
खुद को सीमित करतीं,
दुबकती, छुपती..........
जैसे कोशिश हर नजर से बचने की।

शायद अनुभवों का परिणाम,
कई मौसम देखे हैं,
जिनका वसंत भी जा चुका।

अब अन्तिम सत्य की प्रतीक्षा.........

नयी कोपलों को विस्तार चाहिए,
स्थान तो सीमित ही है,
जो पुराने हुए उन्हें जाना होगा......
थके हारे बुजुर्गों जैसा.........

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