चेहरे पर झुर्रियों ने डेरा डाला,
मस्तिष्क में विचारों ने रुप बदला,
बालों के साथ बातें भी पक सी गयीं,
नज़र में सोंधी सी महक समाने लगी,
कमर भी आख़िर आकार बढाने लगी।
बच्चे अब बच्चे लगने लगे हैं,
कुछ ज्याद ही अच्छे लगने लगे हैं।
वर्तमान को भविष्य और अतीत एक साथ दिखने लगे हैं,
सोच में आशा निराशा की खिचडी पकने लगी है,
उँगलियाँ कीमती पन्नों को अलग रखने लगी हैं।
घडी से क्षण बस टपके ही जाते हैं,
हर पल जी लेने का संदेश दिए जाते हैं,
अपनी अहमियत टिक टिक से बताते हैं।
एकाकीपन का रुप ले कर कोई और आया है,
शायद जीवंन का दूसरा दौर आया है....................
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