जब भी कभी धर्म, धार्मिकता, ईश्वर, अलौकिकता, पर बहस होती है तो इसका कोई अंत नही होता लेकिन यदि वैज्ञानिक प्रमाणों एवं परिकल्पनाओं को व्यवस्थित क्रम में रखें तो कुछ यक्ष प्रश्नों के उत्तर स्वयमेव मिल जाते हैं। इसके लिए धर्मान्धता से थोडी देर के लिए छुटकारा पाना होगा। डार्विन, लैमार्क, और ओपैरिन के सिद्धांतों को पढ़ चुके लोग जानते हैं कि किस प्रकार रासायनिक संश्लेषण से पहले जीवन का उद्भव और फिर जीवन के निरंतर विकास से वर्तमान प्रकृति का जन्म हुआ। मानव का विकास बंदरों से माना जाता है। जीवाश्म प्रमाणों पर विश्वास करें तो यह प्रक्रिया कई करोड़ साल पहले शुरू हुई फिर लगभग दस लाख साल पहले प्राचीन वानर वंश का अभ्युदय हुआ। वानर वंश के सदस्यों में विकास कि प्रक्रिया भिन्न हो चली तो कई प्रकार की मानव जातियाँ विश्व भर में विकसित होने लगीं। इन्ही दस लाख सालों के दौरान धर्म एवं ईश्वर जैसे विचारों कि उत्पत्ति भी हुई। जब मानव मस्तिष्क विकसित हुआ तो जिज्ञासा ने प्रबल रुप धारण कर लिया। अन्य जीवों से श्रेष्ठ मानव सितारों, दिन-रात, बाढ़-सूखा, सर्दी-गरमी, को अलग तरह से देखने लगा। कल्पना और भय का एक मिश्रित प्रभाव उसे सदैव विस्मित करता रहा, लेकिन जंगली तो वो अभी भी था, और पूर्ण मानव न हो कर पशु लक्षण भी अभी बाक़ी थे।
इसी समय हर युग की तरह कुछ अधिक बुद्धिमान मानव हर सभ्यता में विकसित होने लगे जिनको मानवता कि समझ आने लगी, जो प्रकृति के गूढ़ रहस्य तो नही समझ पाए परन्तु सभ्यता की आवश्यकताओं को अवश्य समझने लगे। इन प्रबुद्ध आदिमानवों में एक प्राकृतिक प्रेरणा बलवती होने लगी जो बाद में मानवता और अंततः विकृत हो कर धार्मिकता बन गयी। कबीलों का निर्माण होने लगा , भाषा विकसित नही हुई लेकिन बात समझने के लिए सांकेतिक भाषा का प्रयोग होने लगा। इसी समय आवश्यक था कि एक ऐसे भय कि रचना हो जो मनुष्य को मानव बनाए, प्रकृति की रहस्यमई अन्तःप्रेरना ने मानव मस्तिष्क पर विचित्र प्रभाव डाला, जंतुओं के समान मानव मन में प्राकृतिक घटनाओं का भय समाया। आदिमानव ने सोचा कि कुछ तो है जो प्रकृति का संचालन करता है, और इस प्रश्न का उत्तर जब उसे सदियों तक नही मिला तो ईश्वर नामक एक वैचारिक भय और उत्पन्न हुआ, जिसे समझा न जा सका, हर उस घटना को इस विचार से जोड़ दिया गया। यह भी प्राकृतिक प्रेरणा है कि भय कि अवस्था में मानव में समर्पण का भाव उत्पन्न होता है। मानव ने अनदेखे, अनजाने, अनसुलझे उस वैचारिक रहस्य को सब कुछ समर्पित करना शुरू कर दिया, रुधिर से पुष्प तक सब कुछ, जो उसकी आदिचेतना ने उसे सुझाया। यही प्रथम धार्मिक समर्पण था। जनसंख्या बढ़ी, भाषा विकसित हुई, प्रबुद्ध आदिमानवों का विकास तीव्र हुआ उनमें वार्तालाप हुआ तो ईश्वरीय वैचारिकता के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई। कर्म-काण्ड एवं अनुष्ठान भी प्रारंभ हुए। विचार विस्तृत हुए। अज्ञानी मानव में स्मृति ने इस भय का और विस्तार किया। कथाओं के जन्म लेने के साथ ईश्वर एवं धर्म के विचार को प्रमाणित करने की दिशा में भी प्रयास प्रारंभ हो गए।
मेरे विचार से धर्म एक डंडा है जो मनुष्य नामक जंगली पशु को मानव बनाता है और इस डंडे के संचालन के लिए ईश्वर नामक अकल्पनीय विचार की रचना हुई है।
समाज का एक वर्ग वर्तमान में मानवता की रक्षा के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है जिसे पंडित, मौलाना, या पादरी के रुप में देखा जाता है. ईश्वर नामक अप्रतिम भय की गूढ़ता एवं रहस्य को बरकरार रखना इनकी जिम्मेदारी है ताकि धार्मिक डंडे से मनुष्य नामक जंगली पशु को मानवता कि राह दिखाई जा सके।
एक यक्ष प्रश्न पुनः उत्पन्न होता है कि यदि ईश्वर एक विचार है तो प्रकृति का संचालन कौन करता है? इस प्रश्न का उत्तर है "ऊर्जा"। हर धर्म एक दिव्यशक्ति, नूर या सुपरनेचुरल गलो की बात करता है, जो अप्रत्यक्ष रुप से ऊर्जा ही है। विज्ञान जिस प्रकार प्रिकृति से संबंधित है उसी प्रकार धर्म ईश्वर से संबंधित है, जब विज्ञान अपनी निर्धारित सीमा से बाहर जाने लगता है तो प्रकृति उस पर पुनः नियंत्रण स्थापित करती है, उसी प्रकार ईश्वर धर्म की पुनर्स्थापना करता है जब वह विकृत होने लगता है। विज्ञान भले ही ऊर्जा के कुछ रुप निर्धारित कर दे लेकिन कुछ रुप विज्ञान की समझ से परे रह जाते हैं, और शायद वही रुप अलौकिक, प्राकृतिक घटनाओं का संचालन करते हैं। रुप भले ही कितने हों, ईश्वर आख़िर एक है और प्रकार भले ही कितने हों ऊर्जा भी एक ही है। न ही ईश्वर उत्पन्न होता और न ही मरता है जैसे ऊर्जा। आदिब्रम्ह और आदिऊर्जा दोनो समान रहस्य हैं। ये रहस्य मानव कि समझ से परे हैं। मैं सिक्के का एक पहलू ऊर्जा को और दूसरा ब्रम्ह को मानता हूँ। लौकिक और अलौकिक जगत कि समस्त क्रियाएँ इसी ऊर्जा से संचालित होती हैं, यहाँ तक कि विचार भी! विचार दरअसल रासायनिक प्रक्रिया हैं और इनके संचालन के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, या हम यह कहें कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नही हिलता तो बात एक ही है।
फिर भी एक प्रश्न ईश्वर कि सत्ता को बल प्रदान करता है कि यदि ऊर्जा ही प्रकृति का संचालन कर भी रही है तो इसकी आवश्यकता क्या है? यदि ऊर्जा का रूपांतरण होता भी है तो क्यों? असीमित विस्तार के ब्रम्हांड का निर्माण हुआ तो क्यों अब तक अनेकों विद्वानों से मिल कर भी इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त नही हुआ और जिसे उत्तर के रुप में परिभाषित न कर सके, मानव उसे ईश्वर कहने का पूर्णतयः हक़दार है।
यदि ऊर्जा ने पदार्थ का रुप धारण कर के अनंत ब्रम्हांड में विस्तार प्राप्त कर भी लिया हैं तो क्यो, ईश्वर ने प्रकृति की रचना कि भी है तो क्यों? यही प्रश्न हैं जो ईश्वर को ईश्वर का महत्व प्रदान करते हैं, और ऊर्जा से भिन्नता भी।
इन्ही प्रश्नों ने मुझे और सारे विश्व को सम्मोहन कि अवस्था में रखा हुआ है, मुझे भी परमज्ञान की खोज है और मैं भी इन प्रश्नों से छुटकारा पाना चाहता हूँ, वह भी यदि संभव हुआ तो..........................
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