Friday, January 18, 2008

लिपि का अमृत

तो फिर एक दिन मुझे,
एहसास हो ही गया,
चला, मैं लौट चला..............

गंतव्य पहुँचा तो कब्रें देखीं,
हज़ारों चिताएँ,
कुछ अधबनी, अधजली
कुछ, बस राख़ के ढेर.........

तभी एक और चिता बनने लगी;

इस बार रोक लिया,
उस विचार को दफ़न होने से,
लिपि का अमृत दे कर.........

कुछ अधजले भी,
उठने की कोशिश करने लगे........

सहारा दिया, संभाला ,
अब मेरे साथ हैं.............

अब अक्सर, "विचारों के कब्रिस्तान" से,
कुछ को जिंदा लौटा कर लाता हूँ,

खुद को इसी तरह जिंदा रख पाता हूँ,
विचारों को लिपि दे कर बचाता हूँ.............

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