यहां अश्क चाट के,
सब जिंदा हैं इक दूजे के,
वतन हुआ या,
रेतीली फसीलों में,
कैद जैसे शहर कोई..?
मुरझा के गिर पड़े,
शाखों से परिंदे तक,
वो आया तो ऐसे,
जहरीली जैसे लहर कोई..!!
मसीहा मान के उस को,
लोगों ने पलकों पे बिठाया,
वो लगा दामन ए मुल्क पे,
जैसे बुरी नजर कोई..!!
न पांव उठा सकता है न हाथ,
न आवाज़ उठा सकता है,
न सिर कोई..!
लगता नही के अब बचा है,
जिंदा यहां बशर कोई..!!
लहरों के निशान रेत पे,
आवाम के माजी का,
अक्स दिखा रहे हैं,
बहती थी इस जमी पे कभी
मुहब्बत की नहर कोई..!!
लौट के कभी आयेंगे,
तो हिंद की जमी पे,
तलाशेंगे परिंदे कल के,
और कहेंगे खुद से कराह कर,
मुल्क ए हिंद में भी था,
जम्हूरियत का शजर कोई..!!
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